उर्दू बह्र पर एक बातचीत : वक़्त फ़िल्म के एक गाने की बह्र
किसी मंच पर मेरे एक मित्र ने सवाल किया था कि एक फ़िल्म ’वक्त’[1965] बलराज साहनी और अचला सचदेव द्वारा अभिनीत फ़िल्म में साहिर लुधियानवी साहब का एक गीत है[आप ग़ज़ल भी कह सकते हैं]
[यू-ट्यूब पर मिल जाएगा]
वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज
वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज
वक़्त की गर्दिश से है, चाँद तारों का निज़ाम
वक़्त के ठोकर में है, क्या हुकूमत क्य समाज
वक़्त की पाबंद है, आती जाती रौनकें
वक़्त है फूलों की सेज, वक़्त है काँटों का ताज
आदमी को चाहिए, वक़्त से डर कर रहे
कौन जाने किस घड़ी , वक़्त का बदले मिज़ाज
इस ग़ज़ल का वज़न और इसकी बह्र क्या है ?
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उत्तर :
[ नोट ; यह लेख उन पाठको के लिए जो अरूज़ से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते है मज़ीद मालूमात
हासिल करना चाहते है। वैसे यह बह्र उर्दू शायरी में बहुत प्रचलित तो नहीं है। बहरकैफ़ यह एक मान्य बह्र तो है ही जो अरूज़ के नियमों और क़ायदों के मुताबिक ही हासिल होती है। ख़ैर।
इससे पहले कि बात आसानी से समझ में आ जाए-पहले दो शे’र की तक्तीअ’ कर के देख लेते हैं।
शे’र 1 [ मतला ]
2 1 2 2 / 2 1 2 1/ 2 1 2 2 / 2 1 2 1 = -A------ B--- C--------D
वक़्त से दिन /और रात,/ वक़्त से कल/ और आज = 2122--2121/ 2122--2121
2 1 2 2/ 2 1 2 1/ 2 1 2 2 / 2 1 2 1
वक़्त की हर/ शै गुलाम,/ वक़्त का हर/ शै पे राज = 2122--2121 / 2122-2121
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शे’र 2
2 1 2 2 / 2 1 2 / 2 1 2 2/ 2 1 2 1 = A'--- - B' -- C'------ D'
वक़्त की गर्/ दिश से है,/ चाँद तारों /का निज़ाम = 2122--212 / 2122--2121
2 1 2 2 / 2 1 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 1
वक़्त की ठो /कर में है,/ क्या हुकूमत /क्य समाज = 2122--212 / 2122-2121
बाक़ी दो बचे हुए शे’रों की तक़्तीअ’ आप कर लें और निश्चिन्त हो लें।
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कुछ मित्रों ने बह्र [ कुछ हद तक ] सही पहचाना। जी हां यह बह्र-ए-मदीद है।
बह्र-ए-मदीद एक मुरक़्क़ब [ मिश्रित बह्र] है और इसका बुनियादी रुक्न
2122--212 [ फ़ाइलातुन--फ़ाइलुन ] है। और इसकी मुसम्मन सालिम शकल
2122--212---2122--212 होगी ।
अगर हम मतला में -B-[हस्व का मुक़ाम ] देखें तो वहाँ -212- के बजाए -2121 आ रहा है यानी एक हर्फ़-ए-साकिन [1] ज़ियादा जो मदीद मुसम्मन के अर्कान में तो नहीं आ रहा है। बज़ाहिर यह ग़ज़ल मदीद मुसम्मन सालिम तो नहीं होगी । हाँ अगर मुक़ाम -D- [ अरूज़/ज़र्ब का मुक़ाम ] पर 2121 आता तो कुछ सोचा जा सकता था।
ऐसा क्यों?
ऐसा इसलिए कि 212 [ फ़ाइलुन पर अगर इज़ाला का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो -2121- बरामद होता है । और यह ज़िहाफ़ ’इज़ाला’ -एक ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ही आता है --हस्व या अन्य मुक़ाम पर नही। यानी
212+ इज़ाला = मज़ाल 2121 [ फ़ाइलान]
तब मदीद मुसम्मन मज़ाल की शक्ल होती --2122---212---2122---212[1] मगर ऊपर के मतला में यह सूरत तो नहीं है अत: यह बह्र मदीद मुसम्मन सालिम है नहीं और न ही मदीद मुसम्मन मज़ाल ही ।
तो फ़िर ?
इसे कुछ ऐसे कर के देखते है ।मुरब्ब: की शकल कर देते हैं=
शे’र 1 [ मतला ]
2 1 2 2 / 2 1 2 1// 2 1 2 2 / 2 1 2 1 = -A------ B--// A------ B--
वक़्त से दिन /और रात,// वक़्त से कल/ और आज = 2122--2121/ 2122--2121
2 1 2 2/ 2 1 2 1// 2 1 2 2 / 2 1 2 1
वक़्त की हर/ शै गुलाम,/ वक़्त का हर/ शै पे राज = 2122--2121 // 2122-2122
अब यह मुरब्ब: मुज़ाइफ़ [ यानी मुरब्ब: की दो गुनी की हुई ] की शकल हो गई [ यानी एक मिसरा में 4-अर्कान । शे’र में 8 अर्कान
चूंकि मुरब्ब: शे’र में हस्व का मक़ाम नही होता बस--सीधे सदर/इब्तिदा----अरूज़/ज़र्ब होता है तो इज़ाला ज़िहाफ़ [2121] - दोनॊ -B- पर लग सकता है
कारण की दोनो ही अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम है तो अब शेर’ मतला की स्थिति यूँ होगी
[क] 2122---2121// 2122--2121
और नाम होगा --बह्र-ए-मदीद सालिम मज़ाल मुरब्ब: मुज़ाइफ़
अब मिसरा के बीच में -1 [साकिन हर्फ़]-मात्रा ज़ियादा लाया जा सकता है। ध्यान रहे यह -1-वज़न किसी छूट के कारण नही [ जैसा कि कुछ मित्र समझते है बल्कि ज़िहाफ़ के कारण आया है।
नोट - आप मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ से कन्फ़ूज न होइए--मुज़ाहिफ़ [ ज़िफ़ाहशुदा अरकान ] और -मुज़ाइफ़ बोले तो [ दो गुना किए हुए अर्कान ]
चूँकि ग़ज़ल की बह्र का निर्धारण -मतला से ही निर्धारित होता है और साहिर साहब ने दोनो मिसरों में यह वज़न बरता है सो इस बह्र का नाम
बह्र-ए-मदीद सालिम मज़ाल मुरब्ब: मुज़ाइफ़ होगा , न कि मदीद मुसम्मन सालिम।
ख़ैर
अब आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा या उठना चाहिए कि फ़िर ये
A'--- - B' // -- C'------ D' क्या है?
मुरब्ब: के संदर्भ में अब आप इसे यूँ कर लें--
A’------ B ’--// A’------ B’--
यह अन्य शे’र का मिसरा ऊला का वज़न हो सकता है और मिसरा उला में मज़ाल की जगह -सालिम रुक्न - लाया जा सकता है जो यहाँ लाया गया है।
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अच्छा अब इसी बह्र को -बहर ए रमल- के नुक़्त-ए-नज़र से देखते हैं कि क्या स्थिति बनती है ।
बह्र--ए-रमल क्यों ?
इसलिए कि इस बह्र में एक सालिम रुक्न-- 2122-[ फ़ाइलातुन] आया है और यह रुक्न बह्र-ए-रमल का बुनियादी रुक्न है।
यह बह्र तो आप पहचानते होंगे
2122---2122 = फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन
[ बह्र-ए-रमल मुरब्ब: सालिम ]
अब 2122 पर एक ज़िहाफ़ ’कस्र’ का ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं
2122 + कस्र = मक्सूर 2121 [ फ़ाइलान ]
चूँकि ज़िहाफ़ ’कस्र’ एक खास ज़िहाफ़ है जो शे’र के अरूज़/ ज़र्ब ्के मुक़ाम पर ही लगता है [ अन्य मुक़ाम पर नहीं] तो उक्त मुरब्ब: सालिम बह्र हो जाएगी
2122---2121 = फ़ाइलातुन--फ़ाइलान
अब इसको मुज़ाइफ़ [ दो-गुना] कर देते है --यानी मुरब्ब: मुज़ाइफ़ तो
[ख] 2122--2121// 2122-2121
और नाम होगा बह्र-ए-रमल मुरब्ब सालिम मक्सूर मुज़ाइफ़
अब [क] और [ख] की तुलना करें
क्या दोनों बह्र एक-सी नहीं है?
अब इन दोनों की मुज़ाइफ़ [ दो-गुनी की हुई ] शकल भी एक जैसी नही होगी ?
तो फिर ?
तो क्या साहिर साहब की ग़ज़ल बह्र-ए-रमल पर आधारित है?
मतला का वज़न दोनों तरीके से एक ही जैसा उतरेगा--यानी
2122----1221// 2122---1221
हाँ हो सकता है , शर्त यह कि आप आगे के तमाम अश’आर इसी वज़न में कहें या कह सकें ।
मगर अमली तौर [ व्यावहारिक् रूप से] ऐसा नहीं होता जब तक कि आप इतने हुनरमंद न हों साहिब-ए-फ़न न हों । शायद फ़नी तौर पर आप ऐसा कर सकें।
तो फिर?
सिर्फ़ मतले की तक़तीअ’ कर के ही पूरे ग़ज़ल की बह्र नहीं बता सकते/निकाल सकते जब तक कि आगे के कुछ और शे’र की तक़्तीअ’ सेतसदीक न कर लें। अगर शे’र मुरब्ब: है तो [यानी सदर/इबतिदा-----अरूज़/ज़र्ब] [ मुरब्ब: में हस्व का मुक़ाम नहीं होता ]
मदीद के केस में--- अगर ज़र्ब के मुकाम पर मज़ाल [ 2121] है तो अरूज़ के मुकाम पर इसका सालिम रुक्न [ 212] लाया जा सकता है।
रमल के केस में --अगर ज़र्ब के मुक़ाम पर मक्सूर [ 2121] है तो अरूज़ के अमुक़ाम पर इसका सालिम रुक्न [ 2122 ] लाया जा सकता है।
बस यही Clue है कि जिससे पता चलेगा कि उक्त ग़ज़ल मुरब्ब: गज़ल - मदीद- [ मुरक्क़्ब बह्र ] से ताल्लुक रखती है कि - रमल-[ मुफ़र्द बह्र] से ताल्लुक़ रखती है
चलते चलते एक बात और--
शायरी अपनी जगह
इल्म-ए=अरूज़ अपनी जगह
{नोट- : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।
अरूज एक बहुत ही आसान और दिलचस्प विषय है शर्त यह कि इसे मुहब्बत से पढ़ा जाए और शिद्दत से समझा जाए।
{नोट- : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।
सादर
-आनन्द.पाठक-