Saturday, March 22, 2025

उर्दू बह्र पर एक बातचीत: क़िस्त 118: वक़्त फ़िल्म के एक गाने की बह्र

  उर्दू बह्र पर एक बातचीत  : वक़्त फ़िल्म के एक गाने की बह्र

किसी मंच पर मेरे एक मित्र ने सवाल किया था कि एक फ़िल्म ’वक्त’[1965] बलराज साहनी और अचला सचदेव द्वारा अभिनीत फ़िल्म में साहिर लुधियानवी साहब का एक गीत है[आप ग़ज़ल भी कह सकते हैं]

[यू-ट्यूब पर मिल जाएगा]


वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज

वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज


वक़्त की गर्दिश से है, चाँद तारों का निज़ाम

वक़्त के ठोकर में है, क्या हुकूमत क्य समाज


वक़्त की पाबंद है, आती जाती रौनकें

वक़्त है फूलों की सेज, वक़्त है काँटों का ताज


आदमी को चाहिए, वक़्त से डर कर रहे

कौन जाने किस घड़ी , वक़्त का बदले मिज़ाज 

 इस ग़ज़ल का वज़न और इसकी बह्र क्या है ?

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उत्तर :

 [ नोट ; यह लेख उन पाठको के लिए जो अरूज़ से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते है मज़ीद मालूमात

हासिल करना चाहते है। वैसे यह बह्र उर्दू शायरी में बहुत प्रचलित तो नहीं है। बहरकैफ़ यह एक मान्य बह्र  तो है ही जो अरूज़ के नियमों और क़ायदों के मुताबिक ही हासिल होती है। ख़ैर।

इससे पहले कि बात आसानी से समझ में आ जाए-पहले दो शे’र की तक्तीअ’ कर के देख लेते हैं।


शे’र 1 [ मतला ]

2 1 2  2  / 2 1 2 1/ 2 1 2 2  / 2 1 2 1             =   -A------ B---     C--------D

वक़्त से दिन /और रात,/ वक़्त से कल/ और आज  =  2122--2121/ 2122--2121


2 1  2  2/  2 1 2 1/ 2 1 2  2 / 2 1 2 1

वक़्त की हर/ शै गुलाम,/ वक़्त का हर/ शै पे राज = 2122--2121 / 2122-2121

--  --  --  

शे’र 2 

2 1  2  2 /  2 1 2  / 2 1 2 2/ 2 1 2 1             = A'---  - B'      --   C'------  D'

वक़्त की गर्/ दिश से है,/ चाँद तारों /का निज़ाम  = 2122--212  / 2122--2121


2 1  2  2 / 2 1 2  / 2 1 2 2 / 2 1 2 1

वक़्त की ठो /कर में है,/ क्या हुकूमत /क्य समाज = 2122--212 / 2122-2121


बाक़ी दो बचे हुए शे’रों की तक़्तीअ’ आप कर लें और निश्चिन्त हो लें।

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कुछ मित्रों ने बह्र [ कुछ हद तक ] सही पहचाना। जी हां यह बह्र-ए-मदीद है।

बह्र-ए-मदीद एक मुरक़्क़ब [ मिश्रित बह्र] है और इसका बुनियादी रुक्न 

2122--212 [ फ़ाइलातुन--फ़ाइलुन ] है। और इसकी मुसम्मन सालिम शकल 

2122--212---2122--212  होगी ।

 अगर हम मतला में -B-[हस्व का मुक़ाम ]  देखें तो वहाँ -212- के बजाए -2121 आ रहा है यानी एक हर्फ़-ए-साकिन [1] ज़ियादा जो मदीद मुसम्मन के अर्कान में तो नहीं आ रहा है। बज़ाहिर यह ग़ज़ल मदीद मुसम्मन सालिम तो नहीं होगी । हाँ अगर मुक़ाम -D- [ अरूज़/ज़र्ब का मुक़ाम ] पर 2121 आता तो कुछ सोचा जा सकता था।

ऐसा क्यों?

ऐसा इसलिए कि  212 [ फ़ाइलुन पर अगर इज़ाला का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो -2121- बरामद होता है । और यह ज़िहाफ़ ’इज़ाला’ -एक ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ही आता है --हस्व या अन्य मुक़ाम पर नही। यानी

212+ इज़ाला = मज़ाल 2121 [ फ़ाइलान]

तब  मदीद मुसम्मन मज़ाल की शक्ल होती --2122---212---2122---212[1] मगर ऊपर के मतला में यह सूरत तो नहीं है अत: यह बह्र  मदीद मुसम्मन सालिम है नहीं और न ही मदीद मुसम्मन मज़ाल ही ।

तो फ़िर ? 

इसे कुछ ऐसे कर के देखते है ।मुरब्ब: की शकल कर देते हैं=

शे’र 1 [ मतला ]

2 1 2  2  / 2 1 2 1// 2 1 2 2  / 2 1 2 1 =   -A------ B--//   A------ B-- 

वक़्त से दिन /और रात,// वक़्त से कल/ और आज  =  2122--2121/ 2122--2121


2 1  2  2/  2 1 2 1// 2 1 2  2 / 2 1 2 1

वक़्त की हर/ शै गुलाम,/ वक़्त का हर/ शै पे राज = 2122--2121 // 2122-2122

अब यह मुरब्ब: मुज़ाइफ़ [ यानी मुरब्ब: की दो गुनी की हुई  ] की शकल हो गई [ यानी एक मिसरा में 4-अर्कान । शे’र में 8 अर्कान

चूंकि मुरब्ब: शे’र में हस्व का मक़ाम नही होता बस--सीधे सदर/इब्तिदा----अरूज़/ज़र्ब होता है तो इज़ाला ज़िहाफ़ [2121] - दोनॊ -B- पर लग सकता है

कारण की दोनो ही अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम है तो अब शेर’ मतला की स्थिति यूँ होगी

[क] 2122---2121// 2122--2121 

और नाम होगा --बह्र-ए-मदीद सालिम मज़ाल मुरब्ब: मुज़ाइफ़ 

अब मिसरा के बीच में -1 [साकिन हर्फ़]-मात्रा ज़ियादा लाया जा सकता है। ध्यान रहे यह -1-वज़न किसी छूट के कारण नही [ जैसा कि कुछ मित्र समझते है बल्कि ज़िहाफ़ के कारण आया है।

नोट - आप मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ से कन्फ़ूज न होइए--मुज़ाहिफ़ [ ज़िफ़ाहशुदा अरकान ]  और -मुज़ाइफ़ बोले तो [ दो गुना किए हुए अर्कान ]

चूँकि ग़ज़ल की बह्र का निर्धारण -मतला से ही निर्धारित होता है और साहिर साहब ने दोनो मिसरों में यह वज़न बरता है सो इस बह्र का नाम

बह्र-ए-मदीद सालिम मज़ाल मुरब्ब: मुज़ाइफ़ होगा , न कि मदीद मुसम्मन सालिम।

 ख़ैर

अब आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा या उठना चाहिए  कि  फ़िर ये

A'---  - B'   // --   C'------  D' क्या है? 

मुरब्ब: के संदर्भ में अब आप इसे यूँ कर लें--

A’------ B ’--//   A’------ B’-- 

यह अन्य शे’र का मिसरा ऊला का वज़न हो सकता है  और मिसरा उला में मज़ाल की जगह -सालिम रुक्न - लाया जा सकता है जो यहाँ लाया गया है।

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अच्छा अब इसी बह्र को -बहर ए रमल- के नुक़्त-ए-नज़र से देखते हैं कि क्या स्थिति बनती है ।
बह्र--ए-रमल क्यों ?
इसलिए  कि इस बह्र में एक सालिम रुक्न-- 2122-[ फ़ाइलातुन] आया है और यह रुक्न बह्र-ए-रमल का बुनियादी रुक्न है।

यह बह्र तो आप पहचानते होंगे

2122---2122 = फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन

[ बह्र-ए-रमल मुरब्ब: सालिम ]

अब 2122  पर एक ज़िहाफ़ ’कस्र’ का ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं

2122 + कस्र = मक्सूर 2121 [ फ़ाइलान ]

चूँकि ज़िहाफ़ ’कस्र’ एक खास ज़िहाफ़ है जो शे’र के अरूज़/ ज़र्ब ्के मुक़ाम पर ही लगता है [ अन्य मुक़ाम पर नहीं]  तो उक्त  मुरब्ब: सालिम बह्र हो जाएगी

2122---2121  = फ़ाइलातुन--फ़ाइलान 

अब इसको मुज़ाइफ़ [ दो-गुना] कर देते है --यानी मुरब्ब: मुज़ाइफ़ तो

[ख] 2122--2121// 2122-2121

और नाम होगा  बह्र-ए-रमल मुरब्ब सालिम मक्सूर मुज़ाइफ़

अब [क] और [ख] की तुलना करें

क्या दोनों बह्र एक-सी  नहीं है?

 अब इन दोनों की मुज़ाइफ़ [ दो-गुनी की हुई ] शकल भी एक जैसी नही होगी ?

तो फिर ?

तो क्या साहिर साहब की ग़ज़ल बह्र-ए-रमल पर आधारित है?

मतला का वज़न दोनों तरीके से एक ही जैसा उतरेगा--यानी

2122----1221// 2122---1221 

हाँ हो सकता है , शर्त यह कि आप आगे के तमाम अश’आर इसी वज़न में कहें या कह सकें ।

 मगर अमली तौर [ व्यावहारिक् रूप से] ऐसा नहीं होता जब तक कि आप इतने हुनरमंद न हों साहिब-ए-फ़न न हों । शायद फ़नी तौर पर आप ऐसा कर सकें।

तो फिर? 

 सिर्फ़ मतले की तक़तीअ’ कर के ही पूरे ग़ज़ल की बह्र नहीं बता सकते/निकाल सकते जब तक कि आगे के कुछ और शे’र की तक़्तीअ’ सेतसदीक न कर लें। अगर शे’र मुरब्ब: है तो [यानी सदर/इबतिदा-----अरूज़/ज़र्ब] [ मुरब्ब: में हस्व का मुक़ाम नहीं होता ]

मदीद के केस में--- अगर ज़र्ब के मुकाम पर मज़ाल [ 2121] है तो अरूज़ के मुकाम पर इसका सालिम रुक्न [ 212] लाया जा सकता है।

रमल के केस में --अगर ज़र्ब के मुक़ाम पर मक्सूर [ 2121] है तो अरूज़ के अमुक़ाम पर इसका सालिम रुक्न [ 2122 ] लाया जा सकता है।

बस यही Clue है कि जिससे पता चलेगा कि उक्त  ग़ज़ल मुरब्ब: गज़ल - मदीद- [ मुरक्क़्ब बह्र ] से ताल्लुक रखती है कि - रमल-[ मुफ़र्द बह्र] से ताल्लुक़ रखती है

चलते चलते एक बात और--

शायरी अपनी जगह

इल्म-ए=अरूज़ अपनी जगह

{नोट- : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।

अरूज एक बहुत ही आसान और दिलचस्प विषय है शर्त यह कि इसे मुहब्बत से पढ़ा जाए और शिद्दत से समझा जाए।

{नोट- : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।

सादर

-आनन्द.पाठक-







 


Wednesday, February 26, 2025

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 117: बह्र-ए-हज़ज की एक मुज़ाहिफ़ बह्र की चर्चा

 क़िस्त 117 : बह्र-ए- हज़ज की एक मुज़ाहिफ़ बह्र की चर्चा 


मेरे एक मित्र ने कुछ नामचीं शायरो के चन्द अश’आर  पेश किए और जानना चाहा कि इनकी बह्र क्या है ?

;1:

बुलाती है मगर जाने का नहीं

ये दुनिया है इधर जाने का नही


मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर

मगर हद से गुज़र जाने का नहीं

-राहत इन्दौरी-

[ नोट -- ये दुनिया है *उधर* जाने का नहीं --होता तो बेहतर होता। उर्दू के मूल  स्क्रिप्ट में 

-उधर- ही होगा जो हिंदी के लिप्यंतरण से यह दोष उत्पन्न हो गया। उर्दू मे इधर-उधर. इसका-उसका.

इन्हे-उन्हे दोनो का इमला एक सा है। फ़र्क सिर्फ़ ’अलिफ़’ के ऊपर हरकत [ ज़ेर-पेश] का होता है जिसे उर्दू

वाले सीरियसली नही लगाते और हम हिंदी वाले लिप्यंतरण में यह ग़लती कर बैठते है। ख़ैर

:2: 

थकान औरों पे हावी है मिरी

रिहाई अब ज़रूरी है मिरी 


बहुत संजीदगी दरकार है

हँसी भी छूट सकती है मिरी 

-नामालूम-

:3:

यहाँ यूँ ही नहीं पहुँचा हूँ मै

मुसल्सल रात दिन दौड़ा हूँ मैं

-फ़हमी बदायूनी

:4:

ख़ुदा को भूलना आसान है

हमारा मसअला इंसान है ।

-फ़हमी बदायूनी-

अगर इन तमाम अश’आर की तक़्तीअ’ करे तो वज़न उतरता है

1222--1222-12

और अर्कान है 

मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन-फ़े अ’ल

कुछ किताबों में इस बह्र का नाम दिया है--

1-बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस सालिम मजबूब । इस आधार पर कि आख़िरी रुक्न [ अरूज़/जर्ब के मुकाम पर] ’जब्ब’ का ज़िहाफ़ लगा है जो मुज़ाहिफ़ मजबूब हो गया


कुछ किताबों में इस बह्र का नाम दिया है

2- बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस सालिम अब्तर मक़्बूज़ । इस आधार पर कि आख़िरी रुक्न[ अरूज़/जर्ब के मुकाम पर] [ बतर+ कब्ज़] का ज़िहाफ़ लगा है। जो ’अबतर मक़्बूज़’ हो गया।

मैं व्यक्तिगत रूप  से इस दूसरे नाम से इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ।

कारण? 

कारण यह कि -

मुफ़ाईलुन [1222] में ’मुआ’कबा’ की क़ैद है। 

मुआ’कबा -के बारे मे मैने अपने ब्लाग पर चर्चा की है जिसका लिंक है--

https://www.arooz.co.in/2024/12/112-3-riders-restrictions.html

संक्षेप में मुआ’कबा की क़ैद यह है कि --अगर किसी रुक्न में [ यहाँ 1222] मे दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ एक साथ आ जाए [यहां~ आखिरी 2 2 ] तो दोनो एक साथ साकित

नहीं हो सकते । जब कि ’जब्ब:’ आख़िरी 22 को साकित कर देता है  और 12 बचता है जो मुआ’कबा की खिलाफ़वर्जी होगी। इसलिए मैं उसका समर्थक नहीं।

जब कि [अबतर + कब्ज़ ] के अमल से भी 12 बरामद होता है और यह मुआकबा की खिलाफ़वर्जी भी नही करता।

एक बात और

राहत साहब का  रदीफ़-का नहीं - का वज़न 12 पर लिया है । कारण -का- तो ख़ैर -1- पर हो सकता है [ मात्रा पतन के कारण] मगर -नहीं-?

-नहीं -यहाँ -2- पर लिया गया है। कारण ? जहाँ तक मुझे याद है कि इस मिसरा को पढ़ते समय राहत साहब ने एक वज़ाहत फ़रमाई थी कि- नहीं- को फ़ारसी शब्द

-नै-या नइ- [ नहीं-शब्द का विकल्प] के वज़न -2- पर लिया है।

[ नोट : इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़रमाए जिससे यह हक़ीर खुद को दुरुस्त कर सके ।


-आनन्द.पाठक-

88009 27181