Monday, June 1, 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 16 [ज़िहाफ़ात 07 ]

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 16 [ज़िहाफ़ात]

[ Disclaimer clause ---- वही जो क़िस्त 1 में है ]
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पिछली क़िस्त में  सालिम अर्कान में ’सबब और उस  पर लगने वाले ज़िहाफ़ का ज़िक़्र कर चुके हैं
अब हम ’वतद’ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात का ज़िक़्र करेंगे।

 अगरचे सबब और वतद की परिभाषा लिख चुके हैं। आप की सुविधा के लिए ’वतद’ की इस्तलाह [परिभाषा] एक बार फिर लिख रहे हैं
वतद :- उर्दू मे 3-हर्फ़ी कलमा को वतद कहते हैं  जैसे शह्र.... ,बह्र ....,ग़ज़ल,....नज़र.....असर ....ज़फ़र...कस्र ..नगर.. वग़ैरह वग़ैरह। इस के दो भेद होते है

वतद-ए-मज्मु’अ.:- यानी वो 3-हर्फ़ी कलमा जिसमें- पहला हर्फ़ मुत्तहर्रिक+दूसरा हर्फ़ मुतहर्रिक + तीसरा हर्फ़ साकिन हो ।
चूँकि पहला और दूसरा हर्फ़ मुतहर्रिक [एक साथ] ’जमा ’ हो गए इसलिए ऐसे कलमा को ’मज्मु’अ’ कहते हैं और अरूज़ में इसे 12 की वज़न से दिखाते हैं । रुक्न में इस वज़न को दिखाने के लिए -कहीं -फ़ऊ,...तो कहीं ..मुफ़ा...तो कभी        इला...तो कहीं -इलुन- तो कहीं -लतुन- से दिखाते हैं } अलामत जो  भी रखें वज़न [1 2]  ही रहेगा और इन सब में पहला और दूसरा हर्फ़ ’हरकत’ ही होगा ।
अगर इसे ऐसे समझे तो कैसा रहेगा-  वतद-ए-मज्मु’अ = ्मुतहर्रिक +सबब-ए-ख़फ़ीफ़
एक सवाल यह  है कि जब  वतद-ए-मज्मु’अ ,की वज़न दिखाने के लिए एक ही अलामत [जैसे मुफ़ा 1 2  या ऐसा ही कोई और ] काफ़ी था तो इतने अलामत बनाने की क्या ज़रूरत थी? इस मंच के कोई साहिब-ए-आलिम इसका जवाब देंगे

वतद-ए-मफ़रूक़ :- वो 3-हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला हर्फ़ हरकत+दूसरा हर्फ़ साकिन+तीसरा हर्फ़ हरकत हो  ।इसका वज़न  21 से ही दिखाते है बस यह बताना पड़ता है या लिखना पड़ता है कि आख़िर हर्फ़ ’मय हरकत है ।
चूँकि दो हरकत फ़र्क़ पर है कारण कि बीच में साकिन आ गया अत: ऐसे 3-हर्फ़ी कलमा को को ’वतद-ए-मफ़रूक़’ कहते हैं  ,,,जैसे ’लातु [बहर-ए-मुक़्तज़िब] में 
      अगर इसे ऐसा समझें तो कैसा रहेगा  वतद-ए-मफ़रूक़ = सबब-ए-ख़फ़ीफ़ + मुतहर्रिक

बात चली तो  बात निकल आई ।उर्दू में जब कोई  लफ़्ज़ मुतहर्रिक पर  ख़त्म  नहीं होता -है -[साकिन पर ख़त्म होता है] तो फिर वतद-ए-मफ़रूक़ के मानी क्या जिसका   आख़िरी हर्फ़ पर ’हरकत’ है
जी बिलकुल सही। यही बात सबब-ए-सक़ील में भी उठी थी। तो समाधान यह था कि इज़ाफ़त की तरक़ीब और ’अत्फ़’ की तरक़ीब - हर्फ़ उल आखिर अगर साकिन है तो ’हरकत’  का आभास [वज़्न] देगा और यही बात यहाँ भी लागू होगी
दुहराने की ज़रूरत नहीं।फिर भी एक दो लफ़्ज़ आप की सुविधा के लिए लिख रहा हूँ

अहल-ए-नज़र.......जान-ओ-माल.......[बाक़ी कुछ आप  सोचें]
अच्छा ,एक बात और..

3-हर्फ़ी कलमा में एक सूरत ऐसे भी तो हो सकती है -- मुतहर्रिक +साकिन+साकिन -तो फिर ऐसे वतद का क्या नाम होगा???

आलिम जनाब  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब ने अपनी किताब ’आहंग और अरूज़’ में इसका नाम दिया है -’वतद-ए-मौक़ूफ़’। हमें ज़िहाफ़ समझने की इस वतद की ज़रूरत नहीं पड़ेगी-सो इस की तफ़्सीलात [विस्तार] में नहीं जाते हैं।
अब हम इन वतद पर लगने वाले ज़िहाफ़ पर आते हैं । पहले वतद-ए-मज्मु’अ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात की चर्चा करेंगे

वतद-ए-मज्मु’अ पर जो ज़िहाफ़ लगते है वो हैं
खरम्.....सलम्......अजब्......कत्’अ........हज़ज़्.....अरज्......तमस्.........बतर्......इज़ाला....तरफ़ील्  [10 ज़िहाफ़्]

 ख़रम् : अगर  कोई सालिम रुक्न ’वतद-ए-मज्मु’अ’ से शुरु होता है तो सर-ए-मज्मु’अ [यानी पहला मुतहर्रिक]को गिराने के अमल को ख़रम करना कहते है
हम जानते हैं कि 8-सालिम रुक्न में से  3-ऐसे सालिम् रुक्न है जो वतद-ए-मज्मु’अ से शुरु होता है और वो हैं
मफ़ाईलुन.[ 1 2 2 2 ]..........फ़ऊ लुन [1 2 2 ]..............मफ़ा इ ल तुन.[ 1 2 1 1 2 ]....
इस ज़िहाफ़ की ख़ूबी यह कि इन तीनों पर अमल तो एक जैसा है मगर तीनों अर्कान में  इस ज़िहाफ़ के नाम अलग अलग है पर तीनो में इसे ’ख़रम’ करना ही कहते हैं

ज़िहाफ़ ख़रम :- मफ़ाईलुन [1 2 2 2 ] +ख़रम = फ़ाईलुन [2 2 2 ] यानी  मफ़ा से सर-ए-वतद यानी ’मीम’ को गिरा दिया  यानी ख़रम कर दिया तो बाक़ी बचा  फ़ा ई लुन [2 2 2] जिसे किसी मानूस हमवज़्न रुक्न  मफ़ ऊ लुन [2 2 2] से बदल लिया ।  मुज़ाहिफ़ रुक्न  को  ’अख़रम’ कहते हैं
ज़िहाफ़ सलम:- फ़ऊ लुन [12 2] + खरम       =ऊ लुन [2 2] यानी फ़ऊ से सर-ए-वतद ’फ़े’ गिरा दिया यानी ख़रम कर दिया तो बाक़ी बचा ’ऊ लुन’{ 22] जिसे किसी  मानूस हमवज़्न रुक्न फ़े’अ लुन [2 2] से बदल लिया [ यहाँ  -एन- साकिन है ।इस से  बरामद  मुज़ाहिफ़ रुक्न को ’असलम’ कहते हैं
ज़िहाफ़ अज़ब :- मफ़ा इ ल तुन [12 1 1 2] +ख़रम= फ़ा इ ल तुन [ 2 1 1 2 ] यानी मफ़ा -से सर-ए-वतद का ’मीम’  गिरा दिया तो बाक़ी बचा -फ़ा इ ल तुन [ 2 1 1 2] जिसे किसी मानूस हम वज़्न रुक्न  ’मुफ़ त इ लुन’ [2 1 1 2] से बदल लिया मुज़ाहिफ़  को ’अज़ब ’ कहते हैं
एक बात और -- ये तीनो ज़िहाफ़  शे’र के सदर और इब्तिदा मुक़ाम से मख़्सूस है [ सदर और इब्तिदा के बारे में पहले ही लिख चुका हूँ ]

ज़िहाफ़ क़त्’अ :-अगर् किसी सालिम रुक्न के आखिर में ’वतद मज्मु’अ’ आता हो तो  इसके साकिन को गिरा देना और उस से पहले आने वाले मुतहर्रिक को साकिन कर देना ’क़त’अ’ कहलाता है । और मुज़ाहिफ़ को ’मक़्तू’अ’ कहते हैं
बज़ाहिर वतद-ए-मज्मु’अ के आख़िर में ’साकिन’ ही होगा और उससे पहले मुतहर्रिक ही होगा [परिभाषा ही ऐसी है]
8-सालिम रुक्न में से  3-रुक्न ऐसे हैं जिस के आखिर मे ’वतद-ए-मज्मु’अ’ आता है और वो हैं
फ़ा इलुन् [ 2 12 ].......मुस तफ़ इलुन् [ 2 2 12 ].........मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12 ]

फ़ा इलुन् [ 2 12 ] + क़त्’अ = फ़ा इल् [2 2] यानी वतद्-ए-मज्मु’अ -इलुन[12]- जो रुक्न के आख़िर में आया है -का साकिन -नून-गिरा दिया और उसके पहले जो मुतहर्रिक -लु- है को साकिन कर दिया तो बाक़ी बचा  फ़ा इल् [2 2]  जिसे  किसी मानूस् हम वज़्न रुक्न् फ़े’अ लुन् [2 2 ] से बदल् लिया --यहाँ -एन् साकिन् है

मुस् तफ़् इलुन् [ 2 2 1 2] +कत्’अ = मुस् तफ़् इल् [2 2 2] यानी वतद्-ए-मज्मु’अ -इलुन्[12]-जो रुक्न् के आख़िर् में आ रहा है-का साकिन् ’नून्’ गिरा दिया और् उस् से पहले आने वाले मुतहर्रिक् -लु- को साकिन् कर् दिया तो बाक़ी  बचा -मुस् तफ़् इल् -[2 2 2] जिसे किसी मानूस् हमवज़्न रुक्न  -मफ़् ऊ लुन् [2 2 2] से बदल् लिया

मु त फ़ा इलुन् [ 1 1 2 1 2] +क़त्’अ = मु त् फ़ा इल् [ 1 1 2 2 ] यानी जो बात् ऊपर् है वही बात् -इलुन्-पर यहां भी। तो बाक़ी बचा मु त फ़ा इल् [ 1 1 2 2 ] जिसे किसी हम वज़न् मानूस् रुक्न् -फ़ इ ला तुन् [1 1 2 2] से बदल् लिया [यहाँ  एन् मय हरकत् है]
यह ज़िहाफ़ अरूज़ और जर्ब के लिए मख़्सूस है

ज़िहाफ़् हज़ज़् :- अगर किसी सालिम रुक्न के आख़िर में वतद मज्मु’अ हो तो उसको साकित [यानी गिरा देना] करने के अमल को हज़ज़ कहते हैं  और मुज़ाहिफ़ को ’अहज़ ’ भी कहते हैं और ’महज़ूज़’ भी कहते हैं। ’महज़ूज़’ ज़्यादे प्रचलित है
आप जानते  हैं  कि सालिम अर्कान में 3-रुक्न ऐसे हैं कि जिसके आख़िर में ’वतद मज्मुआ’ आता है और वो रुक्न हैं
फ़ा इलुन् [ 2 12 ].......मुस् तफ़्इलुन् [ 2 2 12 ].........मु त फ़ा इलुन् [1 1 2 12 ]

फ़ा इलुन [2 12 ] +हज़ज़ = फ़ा [2] = यानी फ़ा इलुन [2 12] के आख़िर में जो वतद मज्मु’अ ’इलुन’[12] है को साकित कर दिया तो बाक़ी बचा ’फ़ा’[2] जिसे मानूस हम वज़्न रुक्न -फ़े’अ [ 2] -[यहाँ -एन-साकिन है ] से बदल लिया
मुस् तफ़् इलुन् [  2 2 12]+ हज़ज़् = मुस् तफ़् [2 2] = यानी मुस् तफ़् इलुन् का आखिर में जो वतद् मज्मु’अ  इलुन् [12] है- को साकित् कर् दिया तो बाक़ी बचा मुस् तफ़् [2 2] जिसे मानूस् हमवज़्न रुक्न् -फ़े’अ लुन् [2 2] से बदल लिया   [ यहाँ -एन्- ब सकून् है]
मु त फ़ा इलुन् [ 1 1 2 1 2 ]+ह्ज़ज़्= मु त फ़ा [1 1 2 ] = यानी मु त फ़ा इलुन् में जो आख़िर में जो वतद् मज्मु’अ है -इलुन्- [12] उसे साकित् कर् दिया तो बाक़ी बचा मु त फ़ा [ 1 1 2] जिसे मानूस् हम वज़्न रुक्न्  फ़े’अलुन् [1 1 2] से बदल् लिया -यहाँ पर् -एन्- मय हरकत् है
यह ज़िहाफ़ भी  अरूज़ और जर्ब के लिए मख़्सूस है

इस् सिलसिले के बाक़ी 5- ज़िहाफ़.... अरज्......तमस्.........बतर्......इज़ाला....तरफ़ील्  का ज़िक़्र अगली क़िस्त 17 में करेंगे

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नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb                 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

Reviewed n corrected by Ram Awadh Vishwkarma ji on 01-10-21/07/10/21

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