उर्दू बह्र पर बातचीत : क़िस्त 23 [ बह्र-ए-मुतकारिब -1]
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है ]
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नोट : चूँकि किसी बह्र पर पूरी चर्चा , किसी एक क़िस्त में समेटना संभव नहीं है अत: पाठकों की सुविधा के लिए हर बह्र के आगे 1---2---3---4 लिखते चलेंगे । क़िस्त अपनी रौ में राह-ए-रवा रहेगी ]
.......---पिछली क़िस्त में हम उर्दू शायरी में प्रचलित 19-बह्र के नाम लिख चुके हैं जिसमें पहला नाम बह्र-ए-मुतक़ारिब था।सच तो यह है कि क्लासिकी अरूज़ में यह बह्र पहले नं0 पर नहीं आती बल्कि इस बहर का सबसे बाद में इज़ाद हुआ और वो भी हिन्दी के गीतो से वज़ूद में आया ।परन्तु हिन्दी पाठकों की सुविधा के लिए मैने इसे पहले लेना मुनासिब इस लिए समझा कि यह बहर बड़ी ही आसान ,सरल,सहज,दिलकश लोक प्रिय , गेय , संगीतमय मारूफ़ और मानूस बह्र है । यही कारण है कि हिन्दी फ़िल्मों में बहुत से गाने इसी बह्र में लिखे गये जो आज भी उतने ही लोकप्रिय कर्णप्रिय है जितने कल थे। लगभग सभी प्रसिद्ध शायरों ने इस बह्र में शायरी की है और हमारे नौ-मश्क़ [ उभरते हुए ]शायर अमूमन इसी बह्र् से शायरी की शुरुआत करते है ।
हिन्दी में हिन्दी कवियों ने भी इसी बहर में [छन्द ] कहें और बहुत ही ही लोकप्रिय मधुर गीत दिए हैं ।
इस बहर का बुनियादी रुक्न है फ़ऊलुन..........फ़ऊलुन ------फ़ऊलुन-----फ़ऊलुन
1 2 2 -------1 2 2 -------1 2 2............ 1 2 2 .
इस बह्र के मुरब्ब: सालिम या मुसद्द्स सालिम में बहुत कम अश’आर कहें गए है ।ज़्यादा तर अश’आर या ग़ज़ल मुसम्मन सालिम और उसकी मानूस मुज़ाहिफ़ शकल में ही कहीं गईं हैं ।इसी लिए मुरब्ब: सालिम और मुसद्दस सालिम की मिसाल ज़्यादा नहीं मिलती ।हमारे नौ जवान शायर आगे आने वाले दिनों में इस बहर में ग़ज़ल कहना पसन्द करें ।
सालिम रुक्न फ़े’अलुन कैसे बनता है -पहले बता चुके है ।एक वतद-ए-मज्मुआ+ एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से बनते हैं
इस क़िस्त में चर्चा बहर-ए-मुतक़ारिब-सालिम की हे करेंगे ।बह्र-ए-मुतक़ारिब मुज़ाहिफ़ की चर्चा अगली क़िस्त में करेंगे
1-बह्र-ए-मुतकारिब मुरब्ब: सालिम :- एक शे’र देखें -
122---122 यानी फ़ऊलुन----फ़ऊलुन--[ मिसरा उला]
‘ 122---122 यानी फ़ऊलुन-----फ़ऊलुन---[ मिसरा सानी]
मुतकारिब इस लिए कि शे’र में रुक्न [फ़ऊलुन 122] का प्रयोग किया गया है ,मुरब्ब: इस लिए कि शे"र में 4-बार [यानी मिसरा में 2बार प्रयोग किया गया है ।इसकी मिसाल तो कम है और बहुत कम शायरों ने ,लगभग न के बराबर या कहें कि आँटा मे नमक के बराबर ही प्रयोग किया है ।चन्द अरूज़ी असातिज़ा [ उर्दू छन्द शास्त्र के गुरुजन ] ने खुद-साख़्ता [यानी ख़ुद की बनाई शे’र [उदाहरण/मिसाल देने के लिए] गढ़े हैं ..शे’र में शे’रीअत या मयार की बात नहीं बल्कि बात समझाने के लिए गढ़ा गया है । समझाने के लिए इस हक़ीर फ़क़ीर ने ऐसा ही एक ख़ुद साख़्ता [स्वयं की बनाई हुई] शे’र गढ़ा है [ यहाँ मयार और शे’रिअत का पास [ख़्याल ]न रखियेगा
इशारों की बातें
न आई जुबाँ पर
कहानी मगर लिख
दिया आसमाँ पर
किसी शे’र या मिसरा के सही वज़न की जाँच -बह्र में है या बहर से ख़ारिज़ है -का सबसे मुस्तफ़ीद और मुस्तनद [ सही और प्रामाणिक ] विधि त्तो ’तक़्तीअ- करना ही होता है। तक़्तीअ करने के कुछ अपने उसूल होते हैं और खुद में यह एक अलग से विषय है जिस पर हम कभी आगे चर्चा करेंगे। फिर भी हम यहाँ रुक्न के वक़्फ़ा को /......./........./......./ से दिखायेंगे कि मिसरा या शे’र वज़न में है या नहीं?
अब इसकी तक़्ती’अ कर के देख लेते है
1 2 2 / 1 2 2
इ शा रों / की बा तें [ यहाँ -की- को बहर के वज़न की माँग पर 2- के बजाय -1- पर लिया जायेगा ]
1 2 2 / 1 2 2
न आ ई / जु बाँ पर
1 2 2 / 1 2 2
क हा नी /म गर लिख
1 2 2 / 1 2 2
दि या आ /स माँ पर
यानी मिसरा में 2-और शे;र में 4- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
इस बह्र में एक बात ध्यान देने की है -चूँकि मिसरा उला में 2-ही रुक्न होते है और वो मुक़ाम है सदर--अरूज़ का ]यानी इस बहर के शे’र में ’हस्व’ का मुकाम नही होता
यही बात मिसरा सानी में भी है } इस में भी दो रुक्न का मुक़ाम इब्तिदा---जर्ब का है और इस में भी हस्व का मुकाम नहीं होता । अर्थात बह्र-ए--मुतक़ारिब मुरब्ब: सालिम में ’हस्व’ का मुकाम नहीं होता
2- बह्र-ए-मुतकारिब मुसद्दस सालिम : इसका बुनियादी शकल है
फ़ऊलुन---- --फ़ऊलुन--------फ़ऊलुन [यानी 122------122------122 मिसरा उला
फ़ऊलुन-------फ़ऊलुन--------फ़ऊलुन [यानी 122-------122------122 मिसरा सानी
मुतकारिब इस लिए कि शे’र में रुक्न [फ़ऊलुन 122] का प्रयोग किया गया है ,मुसद्दस इस लिए कि शे"र में 6-बार [यानी मिसरा में 3 बार प्रयोग किया गया हैऔर सालिम इस लिए कि यह रुक्न [फ़ऊलुन 122] अपनी सालिम शकल में ही प्रयोग हुआ है बिना किसी काट-छाँट के कतर-व्योंत के या बिना किसी ज़िहाफ़ के। इनकी मिसाल भी कम ही दस्तयाब [प्राप्त] है ।फिर भी पर आलिम उस्ताद डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से एक शे’र पेश करता हूँ
बहाती रहीं अश्क आंखे
गुज़रती रही शाम-ए-फ़ुरक़त
इसकी तक़्ती’अ कर के देखते हैं
1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
ब हा ती / र हीं अश्/ क आं खे
1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
गु ज़र ती / रही शा /म-ए-फ़ुर क़त
यानी मिसरा में 3-और शे;र में 6- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
-ए- यहाँ इज़ाफ़त है --इसके बारे में इसी किस्त में नीचे चर्चा की है
एक शे’र और देखें [आलिम जनाब कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब के हवाले से]
पहुँचती है कू-ए-मलामत
हमारी ख़बर हम से पहले
अब इस की तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
प हुँच ती / है कू-ए-/म ला मत
1 2 2/ 1 2 2 / 1 2 2
ह मारी /ख़ बर हम /से पह ले
यानी मिसरा में 3-और शे;र में 6- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
3- बह्र-ए-मुतकारिब मुसम्मन सालिम : यह बहुत ही मक़्बूल बहर है और अमूमन सभी शायरों ने इस बहर में या इसकी मुज़ाहिफ़ बहर में कुछ न कुछ ग़ज़ल ज़रूर कहे है }और इसके मिसाल एक नहीं दो नहीं सैकड़ों मिल जायेंगी । हर नौ-मश्क़ शायर अपनी शायरी की शुरुआत अमूमन इसी बहर से करता है ---
इस की बुनियादी शकल यूँ है
फ़ऊलुन-------फ़ऊलुन------फ़ऊलुन-----फ़ऊलुन [यानी 122----122-----122-----122
फ़ऊलुन--------फ़ऊलुन-------फ़ऊलुन----फ़ऊलुन [यानी 122----122------122----122
अल्लामा इक़बाल साहब का एक शे’र देखें -बहुत मशहूर शे’र है
सितारों से आगे जहाँ और भी है
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं
मुतकारिब इस लिए कि शे’र में रुक्न [फ़ऊलुन 122] का प्रयोग किया गया है ,मुसम्मन इस लिए कि शे"र में 8-बार [यानी मिसरा में 4-बार और सालिम इस लिए कि यह रुक्न [फ़ऊलुन 122] अपनी सालिम शकल में ही प्रयोग हुआ है बिना किसी काट-छाँट के कतर-व्योंत के या बिना किसी ज़िहाफ़ के।इस की तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
सि ता रों / से आ गे /ज हाँ औ/ र भी है
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
अ भी इश्/ क़ के इम्/ति हाँ औ/ र भी हैं
यानी मिसरा में 4-और शे;र में 8- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
उमीदन ,बात साफ़ हो गई होगी
चलिए हिन्दी फ़िल्म का एक गाना सुनाते हैं आप ने भी सुना होगा -कश्मीर की कली का है -बहुत ही मधुर गीत है
इशारों इशारों में दिल लेने वाले
बता ये हुनर तूने सीखा कहाँ से
निगाहों निगाहों से जादू चलाना
मेरी जान सीखा है तूने जहाँ से
ये गीत भी इसी बहर में है -मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम ।मुतकारिब इस लिए कि शे’र में रुक्न [फ़ऊलुन 122] का प्रयोग किया गया है ,मुसम्मन इस लिए कि शे"र में 8-बार [यानी मिसरा में 4-बार और सालिम इस लिए कि यह रुक्न [फ़ऊलुन 122] अपनी सालिम शकल में ही प्रयोग हुआ है बिना किसी काट-छाँट के कतर-व्योंत के या बिना किसी ज़िहाफ़ के।इस की तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
इ शा रों /इ शा रों /में दिल ले/ने वा ले
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
ब ता ये / हु नर तू/ ने सी खा /क हाँ से
1 2 2/ 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
नि गा हों / नि गा हों /से जा दू /च ला ना
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
मे री जा/ न सी खा /है तू ने / ज हाँ से
यानी मिसरा में 4-और शे;र में 8- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
इसी बह्र में हिन्दी फ़िल्म अप्रिल फ़ूल -के गाने का मुखड़ा सुनाते हैं -बड़ा ही दिलकश गाना है -आप ने भी सुना होगा
तुम्हें प्यार करते है करते रहेंगे
कि दिल बन के दिल में धड़कते रहेंगे
अब इस की तक़्तीअ कर के देखते है
1 2 2 /1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
तु म्हें प्या/ र करते /है करते / रहेंगे [यहाँ तुम्हें के =म्हें- को वज़न की माँग पर -मे- का वज़न 2 लेंगे
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
कि दिल बन/ के दिल में /धड़कते /रहेंगे
यानी मिसरा में 4-और शे;र में 8- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
अगर आप ध्यान से ऊपर देखे तो मैने -में....ने....से....है....के--[ऐसे ही और बहुत से ] को मैने 1[ हरकत] की वज़न पर लिया है जब कि दर हक़ीक़त इसे -2- [सबब] की वज़न पर लेना चाहिए था । एक कारण तो यही है कि उस मुक़ाम पर बहर की माँग थी -जहाँ पर फ़’ऊलुन का ’फ़े’ [हरकत] आता है अत: हमें इन लफ़्ज़ को गिरा कर शे;र पढ़ना था तभी बहर क़ायम रह सकती थी --लय क़ायम रह सकता है और गाते वक़्त या तलफ़्फ़ुज़ [शे’र की अदायगी वक्त] इसे हल्का सा दबा कर पढ़ना है । इस गिराने या दबाने से शे’र के मानी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है और तरन्नुम भी क़ायम रहता है । यह अमल उर्दू शायरी में जायज है । हिन्दी छन्द में शब्द के गिराने या दबाने की सुविधा नही है -बल्कि वहाँ दो लघु को [1 1] को एक गुरु [2] या vice versa समझने की सुविधा है } क्यों कि हिन्दी के छन्द ’मात्रिक वर्ण’ पर आधारित होते हैं
अगर इस गाने को -कि दिल बन कर दिल में धड़कते रहेंगे - गायें तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा ? अर्थ और भाव में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा मगर....
अरूज़ के लिहाज से फ़र्क़ पड़ेगा -मिसरा बहर से ’खारिज़’ हो जायेगा । बे-वज़न हो जायेगा } गायक को गाने में दिक़्क़त पेश आयेगी । देखिए कैसे ?
सवाल यह कि मिसरा -कि दिल बन कर दिल में धड़कते रहेंगे-भाव और अर्थ से तो ख़ारिज़ नहीं हो रहा है तो बह्र से क्यूँ ख़ारिज़ हो जायेगी?आप आँख बन्द कर शे’र पढ़े आप को खुद महसूस होगा कि शे’र के ’प्रवाह’[ Flow] में कुछ बाधा पड़ रही है -smooth ’ प्रवाह नही है कहीं न कहीं कुछ खटक रहा है -खटक इस लिए रहा है ये मिसरा बहर से खारिज़ जो है ।
कि दिल बन कर दिल में धड़कते रहेंगे-की तक़्ती’अ करते है
1 2 2 / 2 2 2 /1 2 2/ 1 2 2
कि दिल बन/ कर दिल में /ध ड़क ते /र हें गे
आप -कर- और -के- पर ध्यान दें। पहले गाने [मूल गीत] में -के- है जिसका वज़न -1-पर है लेकिन तबादिल शे’र में वहाँ ’कर’ है जिसका वज़न -2- है [ कर को दबा कर-क- तो नहीं पढ़ सकते है न]। अब यह तबादिल [बदला हुआ ] मिसरा सालिम के वज़न में नहीं रह पायेगा [2 2 2 ] हो जायेगा जो फ़ऊलुन का वज़न भी नहीं है
इसी लिये कहते हैं कि शे’र [गज़ल] इतनी नाज़ुक होती है बिला ज़रूरत यह एक भी मज़ीद [अतिरिक्त] हर्फ़ तक -न ज़्यादे न कम - बर्दास्त नहीं कर सकती ---लफ़्ज़ की तो बात ही छोड़ दीजिये
जो आलू-प्याज की तरह अश’आर कहे और लिखे जाते हैं उनमें 100-50 ग्राम वज़न में इधर उधर हो जाये तो क्या फ़र्क़ पड़ता है मगर सो शे’र सोने सा ख़रा मयारी और सच्चा शे’र होता है 1-2 मिली ग्राम का भी-वज़न इधर उधर का बर्दास्त नहीं कर सकता।
अगर आप अरूज़ जानते हैं , समझते हैं तो ये फ़र्क़ भी आप आसानी से समझ जायेंगे वरना तो फ़ेसबुक पर तो हर तीसरा आदमी ग़ज़ल और शे’र कह रहा है ..और ग़लतियों की निशान्दीही कीजिये तो बुरा मान जाते हैं लोग
लेकिन एक सच यह भी है शे’र कहना और लिखना जितना आसान समझते हैं लोग उतना ही मुश्किल है ----ये तो बाज़ार है --जो चलता है वही बिकता है....अब तो बे-वज़न और बे बह्र -बेमज़ा-रुखे -ग़ैर मयारी शे’र पर भी 100-200 वाह वाह करने वाले मिल जाते हैं ..उन्हें अरूज़ से क्या लेना-देना है?
पर हाँ ,यह भी सच है कि social media पर अभी भी कुछ लोग हैं जो बह्र-वज़न-तफ़ाईल का पास [ख़याल] रखते हैं पर ऐसे लोग बहुत कम हैं
खैर इल्म तो इल्म है-सीखने में क्या हरज है --जानेंगे तभी तो सही या ग़लत का फ़र्क कर सकेंगे।
अब बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम के दो चार अश’आर लिख रहे हैं । तक़्ती’अ कर के आप ख़ुद जाँच लीजियेगा
(1) जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ख़ियाबां ख़ियाबां इरम देखते है
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ’ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं -ग़ालिब
(2) जो इस शोर से ’मीर’ रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा
मुझे काम रोने से अकसर है ,नासेह !
तू कब तक मेरे मुँह को धोता रहेगा -मीर-
(3) तू तायर है परवाज़ है काम तेरा
तेरे सामने आसमां और भी हैं
गए दिन कि तनहा था मैं अन्जुमन में
यहाँ अब मेरे राजदां और भी हैं -इक़बाल-
(4) जुनूं से गुजरने का जी चाहता है
हँसी जब्त करने का जी चाहता
वो हमसे ख़फ़ा हैं ,हम उन से ख़फ़ा हैं
मगर बात करने का जी चाहता है -शकील बदायूनी-
[ नोट हम उनसे खफ़ा हैं --की तक्ती’अ करेंगे तो बह्र की माँग पर इस की तक़्ती’अ होगी
1 2 2 / 1 2 2
ह मुन से / ख़फ़ा है --कारण कि हम का ’म’ सामने के -उ- से वस्ल [मिल कर] हो कर -मु- की आवाज़ सुनाई देगी और यही तलफ़्फ़ुज़ तक्तीअ मे भी लिया जायेगा। अत: शकील बदायूनी का यह शे’र पूरे वज़न में है ]
और अन्त में
अब राक़िम -उल-हरूफ़ यानी इस हक़ीर का भी एक शे’र बर्दास्त कर लें जो हर मज़्मून के आखिर में लिखता रहा हूँ
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
फ़ैसला आप कीजिये कि यह शे’र किस बहर में है और इसका पूरा नाम क्या होगा ? अच्छा पकड़ लिया ? मुबारक आप को कि अब आप ने समझ लिया कि बहर-ए-मुताक़ारिब मुसम्मन सालिम क्या होता है ।शुक्रिया।
ऐसे और भी बहुत से अश’आर आप को मिल जायेंगे सब का सब यहां लिखना मुमकिन भी नहीं है । मुझे लगता है कि अब आप कम अज कम [कम से कम] -मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम - में कहे गए अश’आर या ग़ज़ल तो आप पहचान ही सकते है ।अगर आप गुनगुना कर इसे कई बार दुहराए तो आप को पता चल जायेगा कि वज़न कहाँ से ख़ारिज़ हो रही है या बह्र कितनी मक़्बूल है
एक बात और
यहां लिखने के लिए भले हम ----तेरा---मेरा--तू---तो---जो--- लिख दिए हों पर बह्र की माँग पर इसे
तिरा ---मिरा....तु----तो [को हल्का सा दबा कर] ---जो-- [को हल्का सा दबा कर] ही पढ़ेंगे और उर्दू शायरी में यह जाइज है कारण कि उर्दू शायरी तलफ़्फ़ुज़ से चलती है और तक़्तीअ में भी इसे वक़्त ज़रूरत -1- के वज़न पर ही लेंगे।
एक बात और
आप जो ऊपर तमाशा-ए-अहल-ए-करम या ऐसे ही और भी लफ़्ज़ जैसे दिल-ए-नादां... जाने-मन .. बाज़ीचा-ए-एतफ़ाल...जिसे इज़ाफ़त-ए-कसरा या सिर्फ़ इज़ाफ़त भी कहते है और जो -ए- आप देख रहे हैं , तक़्ती’अ में ,बहर की माँग पर आप चाहे तो पहले वाले हर्फ़ से जोड़ कर [यानी वस्ल कर] -2- की वज़न पर ले सकते है और न चाहें तो -1- की वज़न पर ही रहने दे सकते हैं । शायर की मर्जी । इसे शायरी में poetic liscence कहते हैं । मगर नस्र में यह छूट हासिल नही है । नस्र में ऐसे लफ़्ज़ को ’खीच कर’ नहीं पढ़ेंगे यानी नस्र में दिल-ए-नादां को दिले नादां नहीं पढ़ेंगे बल्कि दिल के -ल-पर पर एक हल्का सा दबाव [हल्का सा जबर की हरकत देकर] पढ़ेगे । याद कीजिये जब हम सबब और वतद की परिभाषा लिख रहे थे तो कहा था इज़ाफ़त की तर्क़ीब =दिल् [सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् ] को दिल [ सबब्-ए-सक़ील् ] कर् सकते है वरना तो उर्दू में -सबब-ए-सक़ील का कोई लफ़्ज़ ही नही मिलेगा और न ही वतद-ए-मफ़रुक़ का ही [यानी जिस लफ़्ज़ के अन्त में ’मुतहर्रिक ’आता हो।
ठीक यही बात शब-ओ-रोज़ -----रंजो-ग़म.........गुलो-बुलबुल......जिसे हम इत्फ़ या अत्फ़ कहते है पे भी लागू होती है ।इस case में भी वही poetic Liscence हासिल है ।
जब तक़्तीअ कैसे करते हैं और इसके क्या क्या उसूल है -की चर्चा करेंगे तो यह चर्चा तफ़्सील से वहां भी करेंगे।
अब कुछ चर्चा ’मुज़ाइफ़’ की भी कर लेते है
मुज़ाइफ़ का उर्दू लग़वी [शब्द कोशीय ] माने होता है -किसी चीज़ को दो गुना -करना यानी मुसद्दस मुज़ाइफ़ का माने हुआ 6x2 =12 यानी वो शे’र जिसमें 12 सालिम रुक्न का इस्तेमाल हुआ हो [यानी एक मिसरा मे 6 रुक्न] । कभी कभी इसे 12-रुक्नी बहर भी कहते है
उसी प्रकार ’मुसम्मन मुज़ाइफ़; का माने हुआ 8x2=16 यानी वो शे’र जिसमें 16-सालिम रुक्न का इस्तेमाल हुआ हो [यानी एक मिसरा में 8-रुक्न ] कभी कभी ऐसे शे’र को 16-रुक्नी बहर भी कहते है
मुसम्मन मुज़ाहिफ़ का एक मिसाल मुस्तनद अरूज़ी कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब के हवाले से पेश करता हूँ
किया हमने मौक़ूफ़ आहों का भरना, तो क्यों कर ये पहुँचेगी बाब-ए-असर तक
ये वादे की शब है तुम आओ न आओ ,हमें जागना है तुलू-ए-सहर तक
अब इसकी तक़्तीअ भी देख लेते है
1 2 2 /1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
कि या हम /ने मौ क़ू /फ़ आ हों /का भर ना, /तो क्यों कर/ ये पहुँ चे /गी बा ब-ए-/अ सर तक
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2/ 1 2 2
ये वा दे /की शब है /तु (मआ)ओ /न आओ /,ह में जा /गना है /तु लू-ए-/ स हर तक
यानी हर मिसरा में 8 रुक्न और शे’र मे 16-रुक्न
[नोट बह्र की माँग पर तुम आओ को - तु माओ की वज़न पर पढ़ा जायेगा - यानी तुम के म का वस्ल सामने वाले -आ- से होकर -मा- की आवाज़ सुनाई दे रही है और यही तलफ़्फ़ुज़ तक़्तीअ में भी लिया जायेगा
इसी प्रकार बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस मुज़ाइफ़ सालिम की मिसाल आप को अगर कहीं दस्तयाब [प्राप्त] हो तो मुझे ज़रूर लिखियेगा-शुक्र गुज़ार रहूँगा
अच्छा पिछले क़िस्त में -आप से एक सवाल किया था ---[........तुम्हें याद हो न कि याद हो]
सवाल यह था कि शे’र देख कर - मुरब्ब: सालिम मुज़ाइफ़[ 8 रुक्न ] और मुसम्मन सालिम [8 रुक्न] में फ़र्क़ कैसे करेंगे? अगली क़िस्त में हम मिल कर इसका समाधान ढूँढने की कोशिश करेंगे
अगली क़िस्त में बहर-ए-मुतक़ारिब पर चर्चा जारी रखते हुए इसकी मुज़ाहिफ़ [ज़िहाफ़ लगी हुई ] बह्र पर चर्चा करेंगे
--------------------------नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है ]
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नोट : चूँकि किसी बह्र पर पूरी चर्चा , किसी एक क़िस्त में समेटना संभव नहीं है अत: पाठकों की सुविधा के लिए हर बह्र के आगे 1---2---3---4 लिखते चलेंगे । क़िस्त अपनी रौ में राह-ए-रवा रहेगी ]
.......---पिछली क़िस्त में हम उर्दू शायरी में प्रचलित 19-बह्र के नाम लिख चुके हैं जिसमें पहला नाम बह्र-ए-मुतक़ारिब था।सच तो यह है कि क्लासिकी अरूज़ में यह बह्र पहले नं0 पर नहीं आती बल्कि इस बहर का सबसे बाद में इज़ाद हुआ और वो भी हिन्दी के गीतो से वज़ूद में आया ।परन्तु हिन्दी पाठकों की सुविधा के लिए मैने इसे पहले लेना मुनासिब इस लिए समझा कि यह बहर बड़ी ही आसान ,सरल,सहज,दिलकश लोक प्रिय , गेय , संगीतमय मारूफ़ और मानूस बह्र है । यही कारण है कि हिन्दी फ़िल्मों में बहुत से गाने इसी बह्र में लिखे गये जो आज भी उतने ही लोकप्रिय कर्णप्रिय है जितने कल थे। लगभग सभी प्रसिद्ध शायरों ने इस बह्र में शायरी की है और हमारे नौ-मश्क़ [ उभरते हुए ]शायर अमूमन इसी बह्र् से शायरी की शुरुआत करते है ।
हिन्दी में हिन्दी कवियों ने भी इसी बहर में [छन्द ] कहें और बहुत ही ही लोकप्रिय मधुर गीत दिए हैं ।
इस बहर का बुनियादी रुक्न है फ़ऊलुन..........फ़ऊलुन ------फ़ऊलुन-----फ़ऊलुन
1 2 2 -------1 2 2 -------1 2 2............ 1 2 2 .
इस बह्र के मुरब्ब: सालिम या मुसद्द्स सालिम में बहुत कम अश’आर कहें गए है ।ज़्यादा तर अश’आर या ग़ज़ल मुसम्मन सालिम और उसकी मानूस मुज़ाहिफ़ शकल में ही कहीं गईं हैं ।इसी लिए मुरब्ब: सालिम और मुसद्दस सालिम की मिसाल ज़्यादा नहीं मिलती ।हमारे नौ जवान शायर आगे आने वाले दिनों में इस बहर में ग़ज़ल कहना पसन्द करें ।
सालिम रुक्न फ़े’अलुन कैसे बनता है -पहले बता चुके है ।एक वतद-ए-मज्मुआ+ एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से बनते हैं
इस क़िस्त में चर्चा बहर-ए-मुतक़ारिब-सालिम की हे करेंगे ।बह्र-ए-मुतक़ारिब मुज़ाहिफ़ की चर्चा अगली क़िस्त में करेंगे
1-बह्र-ए-मुतकारिब मुरब्ब: सालिम :- एक शे’र देखें -
122---122 यानी फ़ऊलुन----फ़ऊलुन--[ मिसरा उला]
‘ 122---122 यानी फ़ऊलुन-----फ़ऊलुन---[ मिसरा सानी]
मुतकारिब इस लिए कि शे’र में रुक्न [फ़ऊलुन 122] का प्रयोग किया गया है ,मुरब्ब: इस लिए कि शे"र में 4-बार [यानी मिसरा में 2बार प्रयोग किया गया है ।इसकी मिसाल तो कम है और बहुत कम शायरों ने ,लगभग न के बराबर या कहें कि आँटा मे नमक के बराबर ही प्रयोग किया है ।चन्द अरूज़ी असातिज़ा [ उर्दू छन्द शास्त्र के गुरुजन ] ने खुद-साख़्ता [यानी ख़ुद की बनाई शे’र [उदाहरण/मिसाल देने के लिए] गढ़े हैं ..शे’र में शे’रीअत या मयार की बात नहीं बल्कि बात समझाने के लिए गढ़ा गया है । समझाने के लिए इस हक़ीर फ़क़ीर ने ऐसा ही एक ख़ुद साख़्ता [स्वयं की बनाई हुई] शे’र गढ़ा है [ यहाँ मयार और शे’रिअत का पास [ख़्याल ]न रखियेगा
इशारों की बातें
न आई जुबाँ पर
कहानी मगर लिख
दिया आसमाँ पर
किसी शे’र या मिसरा के सही वज़न की जाँच -बह्र में है या बहर से ख़ारिज़ है -का सबसे मुस्तफ़ीद और मुस्तनद [ सही और प्रामाणिक ] विधि त्तो ’तक़्तीअ- करना ही होता है। तक़्तीअ करने के कुछ अपने उसूल होते हैं और खुद में यह एक अलग से विषय है जिस पर हम कभी आगे चर्चा करेंगे। फिर भी हम यहाँ रुक्न के वक़्फ़ा को /......./........./......./ से दिखायेंगे कि मिसरा या शे’र वज़न में है या नहीं?
अब इसकी तक़्ती’अ कर के देख लेते है
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इ शा रों / की बा तें [ यहाँ -की- को बहर के वज़न की माँग पर 2- के बजाय -1- पर लिया जायेगा ]
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न आ ई / जु बाँ पर
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क हा नी /म गर लिख
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दि या आ /स माँ पर
यानी मिसरा में 2-और शे;र में 4- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
इस बह्र में एक बात ध्यान देने की है -चूँकि मिसरा उला में 2-ही रुक्न होते है और वो मुक़ाम है सदर--अरूज़ का ]यानी इस बहर के शे’र में ’हस्व’ का मुकाम नही होता
यही बात मिसरा सानी में भी है } इस में भी दो रुक्न का मुक़ाम इब्तिदा---जर्ब का है और इस में भी हस्व का मुकाम नहीं होता । अर्थात बह्र-ए--मुतक़ारिब मुरब्ब: सालिम में ’हस्व’ का मुकाम नहीं होता
2- बह्र-ए-मुतकारिब मुसद्दस सालिम : इसका बुनियादी शकल है
फ़ऊलुन---- --फ़ऊलुन--------फ़ऊलुन [यानी 122------122------122 मिसरा उला
फ़ऊलुन-------फ़ऊलुन--------फ़ऊलुन [यानी 122-------122------122 मिसरा सानी
मुतकारिब इस लिए कि शे’र में रुक्न [फ़ऊलुन 122] का प्रयोग किया गया है ,मुसद्दस इस लिए कि शे"र में 6-बार [यानी मिसरा में 3 बार प्रयोग किया गया हैऔर सालिम इस लिए कि यह रुक्न [फ़ऊलुन 122] अपनी सालिम शकल में ही प्रयोग हुआ है बिना किसी काट-छाँट के कतर-व्योंत के या बिना किसी ज़िहाफ़ के। इनकी मिसाल भी कम ही दस्तयाब [प्राप्त] है ।फिर भी पर आलिम उस्ताद डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से एक शे’र पेश करता हूँ
बहाती रहीं अश्क आंखे
गुज़रती रही शाम-ए-फ़ुरक़त
इसकी तक़्ती’अ कर के देखते हैं
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ब हा ती / र हीं अश्/ क आं खे
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गु ज़र ती / रही शा /म-ए-फ़ुर क़त
यानी मिसरा में 3-और शे;र में 6- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
-ए- यहाँ इज़ाफ़त है --इसके बारे में इसी किस्त में नीचे चर्चा की है
एक शे’र और देखें [आलिम जनाब कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब के हवाले से]
पहुँचती है कू-ए-मलामत
हमारी ख़बर हम से पहले
अब इस की तक़्तीअ भी देख लेते हैं
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प हुँच ती / है कू-ए-/म ला मत
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ह मारी /ख़ बर हम /से पह ले
यानी मिसरा में 3-और शे;र में 6- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
3- बह्र-ए-मुतकारिब मुसम्मन सालिम : यह बहुत ही मक़्बूल बहर है और अमूमन सभी शायरों ने इस बहर में या इसकी मुज़ाहिफ़ बहर में कुछ न कुछ ग़ज़ल ज़रूर कहे है }और इसके मिसाल एक नहीं दो नहीं सैकड़ों मिल जायेंगी । हर नौ-मश्क़ शायर अपनी शायरी की शुरुआत अमूमन इसी बहर से करता है ---
इस की बुनियादी शकल यूँ है
फ़ऊलुन-------फ़ऊलुन------फ़ऊलुन-----फ़ऊलुन [यानी 122----122-----122-----122
फ़ऊलुन--------फ़ऊलुन-------फ़ऊलुन----फ़ऊलुन [यानी 122----122------122----122
अल्लामा इक़बाल साहब का एक शे’र देखें -बहुत मशहूर शे’र है
सितारों से आगे जहाँ और भी है
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं
मुतकारिब इस लिए कि शे’र में रुक्न [फ़ऊलुन 122] का प्रयोग किया गया है ,मुसम्मन इस लिए कि शे"र में 8-बार [यानी मिसरा में 4-बार और सालिम इस लिए कि यह रुक्न [फ़ऊलुन 122] अपनी सालिम शकल में ही प्रयोग हुआ है बिना किसी काट-छाँट के कतर-व्योंत के या बिना किसी ज़िहाफ़ के।इस की तक़्तीअ कर के देखते हैं
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सि ता रों / से आ गे /ज हाँ औ/ र भी है
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अ भी इश्/ क़ के इम्/ति हाँ औ/ र भी हैं
यानी मिसरा में 4-और शे;र में 8- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
उमीदन ,बात साफ़ हो गई होगी
चलिए हिन्दी फ़िल्म का एक गाना सुनाते हैं आप ने भी सुना होगा -कश्मीर की कली का है -बहुत ही मधुर गीत है
इशारों इशारों में दिल लेने वाले
बता ये हुनर तूने सीखा कहाँ से
निगाहों निगाहों से जादू चलाना
मेरी जान सीखा है तूने जहाँ से
ये गीत भी इसी बहर में है -मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम ।मुतकारिब इस लिए कि शे’र में रुक्न [फ़ऊलुन 122] का प्रयोग किया गया है ,मुसम्मन इस लिए कि शे"र में 8-बार [यानी मिसरा में 4-बार और सालिम इस लिए कि यह रुक्न [फ़ऊलुन 122] अपनी सालिम शकल में ही प्रयोग हुआ है बिना किसी काट-छाँट के कतर-व्योंत के या बिना किसी ज़िहाफ़ के।इस की तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
इ शा रों /इ शा रों /में दिल ले/ने वा ले
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
ब ता ये / हु नर तू/ ने सी खा /क हाँ से
1 2 2/ 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
नि गा हों / नि गा हों /से जा दू /च ला ना
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2
मे री जा/ न सी खा /है तू ने / ज हाँ से
यानी मिसरा में 4-और शे;र में 8- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
इसी बह्र में हिन्दी फ़िल्म अप्रिल फ़ूल -के गाने का मुखड़ा सुनाते हैं -बड़ा ही दिलकश गाना है -आप ने भी सुना होगा
तुम्हें प्यार करते है करते रहेंगे
कि दिल बन के दिल में धड़कते रहेंगे
अब इस की तक़्तीअ कर के देखते है
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तु म्हें प्या/ र करते /है करते / रहेंगे [यहाँ तुम्हें के =म्हें- को वज़न की माँग पर -मे- का वज़न 2 लेंगे
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कि दिल बन/ के दिल में /धड़कते /रहेंगे
यानी मिसरा में 4-और शे;र में 8- रुक्न का इस्तेमाल हुआ है
अगर आप ध्यान से ऊपर देखे तो मैने -में....ने....से....है....के--[ऐसे ही और बहुत से ] को मैने 1[ हरकत] की वज़न पर लिया है जब कि दर हक़ीक़त इसे -2- [सबब] की वज़न पर लेना चाहिए था । एक कारण तो यही है कि उस मुक़ाम पर बहर की माँग थी -जहाँ पर फ़’ऊलुन का ’फ़े’ [हरकत] आता है अत: हमें इन लफ़्ज़ को गिरा कर शे;र पढ़ना था तभी बहर क़ायम रह सकती थी --लय क़ायम रह सकता है और गाते वक़्त या तलफ़्फ़ुज़ [शे’र की अदायगी वक्त] इसे हल्का सा दबा कर पढ़ना है । इस गिराने या दबाने से शे’र के मानी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है और तरन्नुम भी क़ायम रहता है । यह अमल उर्दू शायरी में जायज है । हिन्दी छन्द में शब्द के गिराने या दबाने की सुविधा नही है -बल्कि वहाँ दो लघु को [1 1] को एक गुरु [2] या vice versa समझने की सुविधा है } क्यों कि हिन्दी के छन्द ’मात्रिक वर्ण’ पर आधारित होते हैं
अगर इस गाने को -कि दिल बन कर दिल में धड़कते रहेंगे - गायें तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा ? अर्थ और भाव में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा मगर....
अरूज़ के लिहाज से फ़र्क़ पड़ेगा -मिसरा बहर से ’खारिज़’ हो जायेगा । बे-वज़न हो जायेगा } गायक को गाने में दिक़्क़त पेश आयेगी । देखिए कैसे ?
सवाल यह कि मिसरा -कि दिल बन कर दिल में धड़कते रहेंगे-भाव और अर्थ से तो ख़ारिज़ नहीं हो रहा है तो बह्र से क्यूँ ख़ारिज़ हो जायेगी?आप आँख बन्द कर शे’र पढ़े आप को खुद महसूस होगा कि शे’र के ’प्रवाह’[ Flow] में कुछ बाधा पड़ रही है -smooth ’ प्रवाह नही है कहीं न कहीं कुछ खटक रहा है -खटक इस लिए रहा है ये मिसरा बहर से खारिज़ जो है ।
कि दिल बन कर दिल में धड़कते रहेंगे-की तक़्ती’अ करते है
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कि दिल बन/ कर दिल में /ध ड़क ते /र हें गे
आप -कर- और -के- पर ध्यान दें। पहले गाने [मूल गीत] में -के- है जिसका वज़न -1-पर है लेकिन तबादिल शे’र में वहाँ ’कर’ है जिसका वज़न -2- है [ कर को दबा कर-क- तो नहीं पढ़ सकते है न]। अब यह तबादिल [बदला हुआ ] मिसरा सालिम के वज़न में नहीं रह पायेगा [2 2 2 ] हो जायेगा जो फ़ऊलुन का वज़न भी नहीं है
इसी लिये कहते हैं कि शे’र [गज़ल] इतनी नाज़ुक होती है बिला ज़रूरत यह एक भी मज़ीद [अतिरिक्त] हर्फ़ तक -न ज़्यादे न कम - बर्दास्त नहीं कर सकती ---लफ़्ज़ की तो बात ही छोड़ दीजिये
जो आलू-प्याज की तरह अश’आर कहे और लिखे जाते हैं उनमें 100-50 ग्राम वज़न में इधर उधर हो जाये तो क्या फ़र्क़ पड़ता है मगर सो शे’र सोने सा ख़रा मयारी और सच्चा शे’र होता है 1-2 मिली ग्राम का भी-वज़न इधर उधर का बर्दास्त नहीं कर सकता।
अगर आप अरूज़ जानते हैं , समझते हैं तो ये फ़र्क़ भी आप आसानी से समझ जायेंगे वरना तो फ़ेसबुक पर तो हर तीसरा आदमी ग़ज़ल और शे’र कह रहा है ..और ग़लतियों की निशान्दीही कीजिये तो बुरा मान जाते हैं लोग
लेकिन एक सच यह भी है शे’र कहना और लिखना जितना आसान समझते हैं लोग उतना ही मुश्किल है ----ये तो बाज़ार है --जो चलता है वही बिकता है....अब तो बे-वज़न और बे बह्र -बेमज़ा-रुखे -ग़ैर मयारी शे’र पर भी 100-200 वाह वाह करने वाले मिल जाते हैं ..उन्हें अरूज़ से क्या लेना-देना है?
पर हाँ ,यह भी सच है कि social media पर अभी भी कुछ लोग हैं जो बह्र-वज़न-तफ़ाईल का पास [ख़याल] रखते हैं पर ऐसे लोग बहुत कम हैं
खैर इल्म तो इल्म है-सीखने में क्या हरज है --जानेंगे तभी तो सही या ग़लत का फ़र्क कर सकेंगे।
अब बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम के दो चार अश’आर लिख रहे हैं । तक़्ती’अ कर के आप ख़ुद जाँच लीजियेगा
(1) जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ख़ियाबां ख़ियाबां इरम देखते है
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ’ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं -ग़ालिब
(2) जो इस शोर से ’मीर’ रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा
मुझे काम रोने से अकसर है ,नासेह !
तू कब तक मेरे मुँह को धोता रहेगा -मीर-
(3) तू तायर है परवाज़ है काम तेरा
तेरे सामने आसमां और भी हैं
गए दिन कि तनहा था मैं अन्जुमन में
यहाँ अब मेरे राजदां और भी हैं -इक़बाल-
(4) जुनूं से गुजरने का जी चाहता है
हँसी जब्त करने का जी चाहता
वो हमसे ख़फ़ा हैं ,हम उन से ख़फ़ा हैं
मगर बात करने का जी चाहता है -शकील बदायूनी-
[ नोट हम उनसे खफ़ा हैं --की तक्ती’अ करेंगे तो बह्र की माँग पर इस की तक़्ती’अ होगी
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ह मुन से / ख़फ़ा है --कारण कि हम का ’म’ सामने के -उ- से वस्ल [मिल कर] हो कर -मु- की आवाज़ सुनाई देगी और यही तलफ़्फ़ुज़ तक्तीअ मे भी लिया जायेगा। अत: शकील बदायूनी का यह शे’र पूरे वज़न में है ]
और अन्त में
अब राक़िम -उल-हरूफ़ यानी इस हक़ीर का भी एक शे’र बर्दास्त कर लें जो हर मज़्मून के आखिर में लिखता रहा हूँ
अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
फ़ैसला आप कीजिये कि यह शे’र किस बहर में है और इसका पूरा नाम क्या होगा ? अच्छा पकड़ लिया ? मुबारक आप को कि अब आप ने समझ लिया कि बहर-ए-मुताक़ारिब मुसम्मन सालिम क्या होता है ।शुक्रिया।
ऐसे और भी बहुत से अश’आर आप को मिल जायेंगे सब का सब यहां लिखना मुमकिन भी नहीं है । मुझे लगता है कि अब आप कम अज कम [कम से कम] -मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम - में कहे गए अश’आर या ग़ज़ल तो आप पहचान ही सकते है ।अगर आप गुनगुना कर इसे कई बार दुहराए तो आप को पता चल जायेगा कि वज़न कहाँ से ख़ारिज़ हो रही है या बह्र कितनी मक़्बूल है
एक बात और
यहां लिखने के लिए भले हम ----तेरा---मेरा--तू---तो---जो--- लिख दिए हों पर बह्र की माँग पर इसे
तिरा ---मिरा....तु----तो [को हल्का सा दबा कर] ---जो-- [को हल्का सा दबा कर] ही पढ़ेंगे और उर्दू शायरी में यह जाइज है कारण कि उर्दू शायरी तलफ़्फ़ुज़ से चलती है और तक़्तीअ में भी इसे वक़्त ज़रूरत -1- के वज़न पर ही लेंगे।
एक बात और
आप जो ऊपर तमाशा-ए-अहल-ए-करम या ऐसे ही और भी लफ़्ज़ जैसे दिल-ए-नादां... जाने-मन .. बाज़ीचा-ए-एतफ़ाल...जिसे इज़ाफ़त-ए-कसरा या सिर्फ़ इज़ाफ़त भी कहते है और जो -ए- आप देख रहे हैं , तक़्ती’अ में ,बहर की माँग पर आप चाहे तो पहले वाले हर्फ़ से जोड़ कर [यानी वस्ल कर] -2- की वज़न पर ले सकते है और न चाहें तो -1- की वज़न पर ही रहने दे सकते हैं । शायर की मर्जी । इसे शायरी में poetic liscence कहते हैं । मगर नस्र में यह छूट हासिल नही है । नस्र में ऐसे लफ़्ज़ को ’खीच कर’ नहीं पढ़ेंगे यानी नस्र में दिल-ए-नादां को दिले नादां नहीं पढ़ेंगे बल्कि दिल के -ल-पर पर एक हल्का सा दबाव [हल्का सा जबर की हरकत देकर] पढ़ेगे । याद कीजिये जब हम सबब और वतद की परिभाषा लिख रहे थे तो कहा था इज़ाफ़त की तर्क़ीब =दिल् [सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् ] को दिल [ सबब्-ए-सक़ील् ] कर् सकते है वरना तो उर्दू में -सबब-ए-सक़ील का कोई लफ़्ज़ ही नही मिलेगा और न ही वतद-ए-मफ़रुक़ का ही [यानी जिस लफ़्ज़ के अन्त में ’मुतहर्रिक ’आता हो।
ठीक यही बात शब-ओ-रोज़ -----रंजो-ग़म.........गुलो-बुलबुल......जिसे हम इत्फ़ या अत्फ़ कहते है पे भी लागू होती है ।इस case में भी वही poetic Liscence हासिल है ।
जब तक़्तीअ कैसे करते हैं और इसके क्या क्या उसूल है -की चर्चा करेंगे तो यह चर्चा तफ़्सील से वहां भी करेंगे।
अब कुछ चर्चा ’मुज़ाइफ़’ की भी कर लेते है
मुज़ाइफ़ का उर्दू लग़वी [शब्द कोशीय ] माने होता है -किसी चीज़ को दो गुना -करना यानी मुसद्दस मुज़ाइफ़ का माने हुआ 6x2 =12 यानी वो शे’र जिसमें 12 सालिम रुक्न का इस्तेमाल हुआ हो [यानी एक मिसरा मे 6 रुक्न] । कभी कभी इसे 12-रुक्नी बहर भी कहते है
उसी प्रकार ’मुसम्मन मुज़ाइफ़; का माने हुआ 8x2=16 यानी वो शे’र जिसमें 16-सालिम रुक्न का इस्तेमाल हुआ हो [यानी एक मिसरा में 8-रुक्न ] कभी कभी ऐसे शे’र को 16-रुक्नी बहर भी कहते है
मुसम्मन मुज़ाहिफ़ का एक मिसाल मुस्तनद अरूज़ी कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब के हवाले से पेश करता हूँ
किया हमने मौक़ूफ़ आहों का भरना, तो क्यों कर ये पहुँचेगी बाब-ए-असर तक
ये वादे की शब है तुम आओ न आओ ,हमें जागना है तुलू-ए-सहर तक
अब इसकी तक़्तीअ भी देख लेते है
1 2 2 /1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
कि या हम /ने मौ क़ू /फ़ आ हों /का भर ना, /तो क्यों कर/ ये पहुँ चे /गी बा ब-ए-/अ सर तक
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2/ 1 2 2
ये वा दे /की शब है /तु (मआ)ओ /न आओ /,ह में जा /गना है /तु लू-ए-/ स हर तक
यानी हर मिसरा में 8 रुक्न और शे’र मे 16-रुक्न
[नोट बह्र की माँग पर तुम आओ को - तु माओ की वज़न पर पढ़ा जायेगा - यानी तुम के म का वस्ल सामने वाले -आ- से होकर -मा- की आवाज़ सुनाई दे रही है और यही तलफ़्फ़ुज़ तक़्तीअ में भी लिया जायेगा
इसी प्रकार बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस मुज़ाइफ़ सालिम की मिसाल आप को अगर कहीं दस्तयाब [प्राप्त] हो तो मुझे ज़रूर लिखियेगा-शुक्र गुज़ार रहूँगा
अच्छा पिछले क़िस्त में -आप से एक सवाल किया था ---[........तुम्हें याद हो न कि याद हो]
सवाल यह था कि शे’र देख कर - मुरब्ब: सालिम मुज़ाइफ़[ 8 रुक्न ] और मुसम्मन सालिम [8 रुक्न] में फ़र्क़ कैसे करेंगे? अगली क़िस्त में हम मिल कर इसका समाधान ढूँढने की कोशिश करेंगे
अगली क़िस्त में बहर-ए-मुतक़ारिब पर चर्चा जारी रखते हुए इसकी मुज़ाहिफ़ [ज़िहाफ़ लगी हुई ] बह्र पर चर्चा करेंगे
--------------------------नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
Reviewed n corrected by Ram Awadh Vishwkarma ji on 03-10-21
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