उर्दू बहर पर एक बातचीत :क़िस्त 31 [ बहर-ए-हज़ज की मुज़ाहिफ़ बह्रें-1]
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
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---पिछली क़िस्त में बहर-ए-ह्ज़ज के मुरब्ब: ,मुसद्दस.मुसम्मन के सालिम बहर और उनकी मुज़ाअफ़ शकल पर बहस की थी
आज बहर-ए-हज़ज के ’मुज़ाहिफ़’ बहर पर चर्चा करेंगे
आप जानते हैं कि बहर-ए-हज़ज का बुनियादी सालिम रुक्न "मुफ़ाईलुन’[ 1 2 2 2] है अत: इस रुक्न पर लगने वाले मुम्किनात ’ज़िहाफ़’ की चर्चा करेंगे
ज़िहाफ़ात और उनके तरीक़ा-ए-अमल की चर्चा पहले ही कर चुके हैं
’मु फ़ाईलुन’ [ 1222] पर लगने वाले मुम्किनात ज़िहाफ़
मुफ़र्द [एकल] ज़िहाफ़
मुफ़ाईलुन[ 1222] +कब्ज़ =मक़्बूज़ =मफ़ाइलुन [1212] यह ज़िहाफ़ आम है
मुफ़ाईलुन[ 1222] +कफ़ = मक्फ़ूफ़ =मफ़ाईलु [1 2 2 1] ][लाम मय हरकत]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +हज़्फ़ = महज़ूफ़ = फ़ऊ लुन [12 2 ] =यह ज़िहाफ़ जर्ब/अरूज़ के लिए मख़सूस
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम =अख़रम =मफ़ऊलुन [ 2 2 2]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +क़स्र =मक़्सूर = मफ़ाईल [ 1221] =फ़ऊलान [1221] से बदल लिया =यह ज़िहाफ़ जर्ब/अरूज़ के लिए ख़ास
मुफ़ाईलुन[ 1222] +बतर =अबतर = फ़अ लुन [2 2]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +तस्बीग़ = मुस्सबीग़ = मफ़ाईलान [ 1 2 2 2 1]
मुरक्क़ब ज़िहाफ़
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम+क़ब्ज़] =अख़रम मक़्बूज़] = फ़ा इलुन [ 212] = [नोट इसे ’शतर’’ भी कहते है और मुज़ाहिफ़ को”अश्तर’ कहते हैं
मुफ़ाईलुन[ 1222] +बतर+क़ब्ज़ = अबतर मक़्बूज़ = फ़ अल [ 1 2] = लाम साकिन
मुफ़ाईलुन[ 1222] +बतर + हज़्फ़ = अबतर महज़ूफ़ = फ़अ [2] [-ऐन साकिन]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +बतर+ क़स्र = अबतर मक़्सूर = फ़ा अ [ 2 1] [-ऐन साकिन]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम+कफ़ = अखरम मक़्फ़ूफ़ = मफ़ऊलु [2 2 1] [ संयुक्त रूप से इसे ’अख़रब’ भी कहते है यानी ख़र्ब= ख़रम+कफ़
मुफ़ाईलुन[ 1222] + ख़रम+हज़्फ़ = अखरम महज़ूफ़ =फ़अ लुन [2 2] [ -ऐन- साकिन]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम+क़स्र =अख़रम मक़्सूर =फ़अ लान [ 2 2 1 ]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम_तस्बीग़ = अख़रम मुस्सबीग़ =मफ़ ऊ लान [ 2 2 2 1]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +कब्ज़+तस्बीग़ = मक़्बूज़ मुस्सबीग़ =मफ़ाइलान [12121 ]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +हतम [=बतर+क़ब्ज़+तस्बीग़]=अहतम = फ़ऊल [ 12 1] [ लाम साकिन
घबराइए नहीं
कोई भी शायर इन तमाम मुमकिनात [संभावित] मुज़ाहिफ़ बहर में शायरी नहीं करता । वो तो academic discussion और जानकारी के लिए लिख दिया । परन्तु कोई मनाही भी नहीं है । आप चाहें तो कर सकते हैं ।ये आप के फ़नी ऎतबार और हुनर-ए-सुखन पर निर्भर करेगा
एक बात और
इन्ही हज़ज की मुज़ाहिफ़ बहरों पर तख़्नीक़ के अमल से ’ रुबाई’ के 24-औज़ान बरामद होते है। वैसे ही जैसे
बहर-ए-मुतक़ारिब और मुतदारिक के मुज़ाहिफ़ बहरों पर ’तस्कीन’ और तख़नीक के अमल से ’माहिया ’ के 24- औज़ान बरामद होते है---चूँकि यह दोनों ’स्निफ़-ए-सुख़न’ [ काव्य विधायें] उर्दू शायरी की स्वतन्त्र ’काव्य विधा’ है अत: इस पर किसी दीगर मुक़ाम पर विस्तार से चर्चा करेंगे। शिगूफ़ा यहाँ छोड़े जाता हूँ
एक बात और
अहले अरब ने [ अरब के अरूज़ियों ने] ज़िहाफ़ात के मुआमले में 3-क़ैद लगा रखी है
1 मुअक़्क़बा
2 मुरक़्क़बा
3 मुकन्नफ़ा
इस क़ैद पर , विस्तार मे किसी अन्य मुकाम पर चर्चा करेंगे। ’मुआक़बा’ के बारे में ज़रा संक्षिप्त में चर्चा कर लेते हैं यहां ।कारण कि ’हज़ज’ पर मुअक़्क़बा ’ है यानी
------किसी एक single रुक्न में या दो consecutive रुक्न में लगातार ’[यानी एक के बाद दूसरा] दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ एक साथ आ जाते है तो सबब पर ज़िहाफ़ या तो लगेगा या नहीं लगेगा। अगर लगा तो सिर्फ़ किसी एक ही सबब पर लगेगा ,दोनो ’सबब’ पर एक साथ नहीं लगेगा।ऐसी स्थिति 9-बह्रों में होती है । और वो बह्रें है तवील---मदीद---वाफ़िर-----कामिल-----हज़ज-----रमल----मुन्सरह-----ख़फ़ीफ़- और--मुजतस
यानी बह्र-ए-हज़ज में मुअक़्कबा है ।
अब आप कहेंगे कि इस ’परिभाषा’ की या इस क़ैद की क्या ज़रूरत थी? अरूज़ी की किताब में सामान्यतया इस परिभाषा का ज़िक़्र नहीं दिखता।
ज़रूरत इस लिए पड़ी कि
हम जानते हैं कि किसी रुक्न पर ’ज़िहाफ़’ लगाते हैं तो एक ’मुज़ाहिफ़ रुक्न’ प्राप्त होता है । कभी कभी वही ’मुज़ाहिफ़ रुक्न’ किसी और दूसरे तरीक़े या दूसरे अमल से या दूसरे ज़िहाफ़ [मुफ़र्द या मुरक़्क़ब ] के अमल से भी प्राप्त हो सकता है ।तो फिर यह देखना पड़ेगा कि वो तरीक़ा कहीं [मुआक़िबा,---,---] की खिलाफ़वर्जी तो नहीं है ।अगर ख़िलाफ़वर्जी है वह तरीक़ा उचित नहीं माना जायेगा ।
मुआक़बा की क़ैद इस लिए लगाई गई कि रुक्न में एक साथ 4-या -5 मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ न आ जाये । अरबी कलमात 4-या-5 मुतहर्रिक हर्फ़ तो ’स॒पोर्ट’ कर लेते है मगर उर्दू शायरी ’सपोर्ट’ नही कर पाती । उर्दू शायरी मे 3- मुतहर्रिक आते ही ’तस्कीन’-ए-औसत का अमल ’सपोर्ट’ करने लगता है
और यह क़ैद इस् लिए भी कि कहीं ज़िहाफ़ लगाते लगाते दो वज़न की शकल एक जैसी न हो जाये कि भ्रम की स्थिति पैदा हो जाये
ख़ैर बात निकली तो हो गई.....
यहाँ सभी मुमकिनात मुज़ाहिफ़ बह्र और उस पर भी तस्कीन और तख़नीक़ की अमल का चर्चा करना न ज़रूरी है , न मुनासिब है-- सिवा इस के कि उलझन पैदा हो । चर्चा तो इस लिए कर लिया कि वक़्त ज़रूरत काम आए।
अब हम यहाँ सिर्फ़ हज़ज के उन्ही मक़्बूल और मानूस मुज़ाहिफ़ बहर की चर्चा करेंगे जिस में आम तौर पर आम शो’अरा शायरी करते है और जो राइज़ हैं
[क] बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
1222----122
ऊपर देखें तो स्पष्ट है कि मुफ़ाईलुन पर हज़्फ़ ज़िहाफ़ लगने से ’फ़ऊलुन [122] बरामद होता है जिसे महज़ूफ़ कहते हैं और यह ज़िहाफ़ शे’र में अरूज़/जर्ब के लिए ख़ास है
और चूँकि एक शे’र में 4-रुक्न [यानी मिसरा मे 2-रुक्न] तो मुरब्ब: कहलाता है
एक उदाहरण [आरिफ़ ख़ान साहब के हवाले से]-ख़ुद साख़्ता शे’र है उनका
न जीते हैं न मरते
तेरी फ़ुरक़त में हमदम
आप तक़्तीअ कर के देख सकते है -आसान है
1 2 2 2 / 1 2 2 =1222--122
न जीते हैं / न मर ते
1 2 2 2 / 1 2 2 =1222--122
तिरी फ़ुर क़त/ में हम दम
अगर इसी शे’र को ज़रा तब्दील कर के देखते हैं कि क्या होता है ---आप ख़ुद ही देख लें कि क्या होता है
न जीते हैं न मरते हैं = 1222---1222
तेरी फ़ुरक़त में ,ऎ हमदम = 1222---1222
बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: सालिम का वज़न आ गया
यानी कोई मिसरा आप के हाथ लग गया तो मुरब्ब: मुसद्दस मुसम्मन मफ़ज़ूफ़ मक़्सूर वग़ैरह बनाना तो आप के बायें हाथ का खेल होगा-शर्त यह कि मिसरा अपना पूरा मुकम्मल अर्थ [महफ़ूम] की अदायगी करे।
इसकी मुसद्दस और मुसम्मन शकल भी होती हैं और नाम यूँ होगा
[ख] बहर-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन -----मुफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
1222---------1222--------122
एक उदाहरण [तक़्तीअ] आप कर लीजियेगा
मीर की एक ग़ज़ल है जिसका एक शे’र है
सुख़न मुश्ताक़ है आलम हमारा
गनीमत है जहाँ मे दम हमारा
ग़ालिब की ग़ज़ल का भी एक शे’र ले लेते है कि बात ज़रा और साफ़ हो जाये
हवस को है निशात-ए-कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या
चलिए आप के लिए इस की तक्तीअ किए देता हूँ
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 = 1222---1222---122
ह वस को है /नि शा ते का / र क्या क्या
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 = 1222---1222---122
न हो मरना /तो जी ने का / मज़ा क्या
इस शे’र शुद्ध रूप से हज़ज ’महज़ूफ़’ की मिसाल है -कारण कि शे’र के अरूज़ और जर्ब -दोनो मुक़ाम पर ’फ़ऊलुन’ [ 122] यानी महज़ूफ़ है
[ग] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन---------मुफ़ाईलुन -----मुफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
1222----------1222---------1222--------122
एक उदाहरण [तक़्तीअ आप कर लीजियेगा][एक ख़ुद साख़्ता शे’र इस ग़रीब हक़ीर का भी बर्दाश्त कर लें
नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता आसमाँ से
उसे डर लग रहा होगा यहाँ अहल-ए-ज़हाँ से
तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 = 1222---1222----1222---122
नहीं उतरे / गा अब कोई / फ़ रिश ता आ/ समाँ से
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 = 1222---1222---1222---122
उसे डर लग / रहा होगा / यहाँ अह ले / ज़हाँ से
वैसे यह पूरी की पूरी ग़ज़ल ’महज़ूफ़’ में ही है--कहीं -मक़्सूर की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।
[घ] बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: मक़्सूर
मुफ़ाईलुन--फ़ऊलान [ नून साकिन]
1222------1221
ऊपर देखें तो स्पष्ट है कि मुफ़ाईलुन पर क़स्र ज़िहाफ़ लगने से ’फ़ऊलान [1221 ] बरामद होता है जिसे ’मक़्सूर’ कहते हैं और यह ज़िहाफ़ शे’र में अरूज़/जर्ब के लिए ख़ास है
एक उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से]
तड़पते हैं हर एक आन
तेरी फ़ुरक़त मे हम आह
तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2 2 2 / 1 2 2 1 = 1222----1221 [यहाँ हर एक आन --में अलिफ़ का वस्ल है अत: ’हरेकान ’का [ 1221 ] तलफ़्फ़ुज़ देता है
तड़पते हैं /हर एक आन
1 2 2 2 / 1 2 2 1 = 1222----1221
तेरी फ़ुरक़त /मे हम आह
इसकी मुसद्दस और मुसम्मन शकल भी हो सकती है
[च] बहर-ए-हज़ज मुसद्दस मक़्सूर
मुफ़ाईलुन--------मुफ़ाईलुन--फ़ऊलान [ नून साकिन]
1222------ 1222------1221
एक उदाहरण [तक़्तीअ आप कर लीजियेगा]
मीर के उसी ग़ज़ल का मक़्ता है
रखे रहते हैं दिल पर हाथ ऎ ’मीर’
यही शायद कि है सब ग़म हमारा
[इस मक़्ता में- अरूज़ के मुक़ाम पर --(हा) --थ ऎ ’मीर’ --- मक़्सूर [ 1221] है जब कि जर्ब में -हमारा - ’महज़ूफ़’ [122]है और शायरी में इनका ख़ल्त [मिलावट] जाइज है ]क्यों? कारण ऊपर लिख दिया है
ग़ालिब के उसी ग़ज़ल का मक़्ता लेते है
बला-ए-जाँ है ;ग़ालिब’ उसकी हर बात
इबारत क्या ,इशारत क्या ,अदा क्या
यहाँ मिसरा सानी तो ख़ैर -मुसद्दस महज़ूफ़-में ही और होना भी चाहिए कारण कि साहब ने मतला के दोनो शे’र में -महज़ूफ़- बाँध दिया था तो लाज़िमन मक्ता के मिसरा सानी में महज़ूफ़ बांधना ही था । मगर मक्ता के मिसरा में ऐसी कोई क़ैद नही सो ग़ालिब साहब ने इसे ’मक़्सूर’ में बांध दिया जो रवा भी और जाइज भी है
मिसरा उला की तक़्तीअ कर देता हूँ
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 1 = 1222---1222---1221
बला-ए-जाँ/ है ;ग़ालिब’ उस/ की हर बा त
एक बात आप ध्यान से देखे---ग़ालिब [उस्ताद] हों या ’मीर’ [ख़ुदा-ए-सुख़न] हों किसी ने पूरी की पूरी ग़ज़ल सिर्फ़ मक़्सूर में ही हो--नहीं कही है। उन्होने मक़्सूर का सहारा कहीं कहीं और किसी किसी मिसरा में लिया है जो रवा है
इसका मतलब यह हुआ कि ख़ालिस मक़्सूर में पूरी की पूरी ग़ज़ल कहना वाक़ई मुश्किल का काम है। जी निहायत मुश्किल का काम है ।मेरे ख़याल से - कारण कि जो शे’र के आख़िर में ’हर्फ़ उल आख़िर’ साकिन तो है ज़रूर- मगर अलिफ़ के बाद आता है यानी ’अलिफ़’ जब आप के शे’र को ऊँचाई पर खीच रहा था ्यानी परवाज़ पर था कि अचानक उसे साकिन पर उतरना पड़ा , जो शे’र की रवानी को कम कर देता है ।यक़ीनन ’तक़्तीअ में तो फ़र्क नहीं पड़ता है शे’र की रवानी में फ़र्क़ पड़ता है ।
अब ग़ालिब के शेर -में अरूज़ के मुक़ाम पर --की हर बात - को ही लें । की हर बा-- तक तो कोई कबाहत नहीं है श्रोता सुनता भी यही है -त- को ज़रा हल्का [लगभग न के बराबर ] भी बोलेंगे तो श्रोता भाव से समझ जायेगा
ख़ैर---
[छ] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन मक़्सूर
मुफ़ाईलुन-----मुफ़ाईलुन--------मुफ़ाईलुन--फ़ऊलान [ नून साकिन]
1222------1222------ 1222------1221
एक उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
मिरे हमदम तेरा दामन जो पकड़ेगा कोई ख़ार
तुझे उस लम्हा रह रह कर सताएगी मेरी याद
तक़्तीअ के लिए एक इशारा कर देते है-तक़्तीअ आप कर लीजियेगा]
मिरे हमदम / तेरा दामन / जो पकड़ेगा / कोई ख़ार
तुझे उस लम/ हा रह रह कर/ सताएगी /मेरी याद
एक बात ’महज़ूफ़’ और मक़्सूर के सन्दर्भ में
---यह ज़िहाफ़ आपस में एक दूसरे की जगह बदले जा सकते हैं । यानी एक मिसरा में ’महज़ूफ़’ और दूसरे मिसरे में ’ मक़्सूर’ लाया जा सकता है। लेकिन बह्र का नाम -मिसरा सानी में [यानी जर्ब के मुक़ाम पर] प्रयुक्त मुज़ाहिफ़ के नाम से तय होगा
यानी अगर जर्ब में ’मक़्सूर’ का प्रयोग हुआ है तो बह्र का नाम होगा-- बहर-ए-हज़ज [ मुरब्ब:/मुसद्दस/मुसम्मन] मक़्सूर
और अगर जर्ब में ’महज़ूफ़’ का प्रयोग हुआ है तो बह्र का नाम होगा-- बहर-ए-हज़ज [ मुरब्ब:/मुसद्द्स/मुसम्मन] महज़ूफ़
ये ज़िहाफ़ आपस में क्यों मुतबद्दिल है? और वज़न में कोई फ़र्क़ क्यों नही पड़ता?
महज़ूफ़ [122] और मक़्सूर [1221] में मात्र एक ’साकिन’ अल आख़िर ज़ियादत है और उसके पहले एक साकिन [ अलिफ़ का] और है ।अत: शे’र के अन्त में दो-साकिन’ एक साथ आ गए । जैसे दोस्त----बख़्त--- शिकस्त--याद ..ख़ार -आदि आदि। अन्त में दो साकिन एक साथ आते है] ऐसे केस में तक्तीअ में मात्र ’एक साकिन’ ही शुमार होता है दूसरा साकिन नहीं ।अत: बह्र के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
अगली क़िस्त में --हम हज़ज पर लगने वाले अन्य ज़िहाफ़ात का ज़िक़्र करेंगे
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नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
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---पिछली क़िस्त में बहर-ए-ह्ज़ज के मुरब्ब: ,मुसद्दस.मुसम्मन के सालिम बहर और उनकी मुज़ाअफ़ शकल पर बहस की थी
आज बहर-ए-हज़ज के ’मुज़ाहिफ़’ बहर पर चर्चा करेंगे
आप जानते हैं कि बहर-ए-हज़ज का बुनियादी सालिम रुक्न "मुफ़ाईलुन’[ 1 2 2 2] है अत: इस रुक्न पर लगने वाले मुम्किनात ’ज़िहाफ़’ की चर्चा करेंगे
ज़िहाफ़ात और उनके तरीक़ा-ए-अमल की चर्चा पहले ही कर चुके हैं
’मु फ़ाईलुन’ [ 1222] पर लगने वाले मुम्किनात ज़िहाफ़
मुफ़र्द [एकल] ज़िहाफ़
मुफ़ाईलुन[ 1222] +कब्ज़ =मक़्बूज़ =मफ़ाइलुन [1212] यह ज़िहाफ़ आम है
मुफ़ाईलुन[ 1222] +कफ़ = मक्फ़ूफ़ =मफ़ाईलु [1 2 2 1] ][लाम मय हरकत]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +हज़्फ़ = महज़ूफ़ = फ़ऊ लुन [12 2 ] =यह ज़िहाफ़ जर्ब/अरूज़ के लिए मख़सूस
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम =अख़रम =मफ़ऊलुन [ 2 2 2]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +क़स्र =मक़्सूर = मफ़ाईल [ 1221] =फ़ऊलान [1221] से बदल लिया =यह ज़िहाफ़ जर्ब/अरूज़ के लिए ख़ास
मुफ़ाईलुन[ 1222] +बतर =अबतर = फ़अ लुन [2 2]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +तस्बीग़ = मुस्सबीग़ = मफ़ाईलान [ 1 2 2 2 1]
मुरक्क़ब ज़िहाफ़
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम+क़ब्ज़] =अख़रम मक़्बूज़] = फ़ा इलुन [ 212] = [नोट इसे ’शतर’’ भी कहते है और मुज़ाहिफ़ को”अश्तर’ कहते हैं
मुफ़ाईलुन[ 1222] +बतर+क़ब्ज़ = अबतर मक़्बूज़ = फ़ अल [ 1 2] = लाम साकिन
मुफ़ाईलुन[ 1222] +बतर + हज़्फ़ = अबतर महज़ूफ़ = फ़अ [2] [-ऐन साकिन]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +बतर+ क़स्र = अबतर मक़्सूर = फ़ा अ [ 2 1] [-ऐन साकिन]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम+कफ़ = अखरम मक़्फ़ूफ़ = मफ़ऊलु [2 2 1] [ संयुक्त रूप से इसे ’अख़रब’ भी कहते है यानी ख़र्ब= ख़रम+कफ़
मुफ़ाईलुन[ 1222] + ख़रम+हज़्फ़ = अखरम महज़ूफ़ =फ़अ लुन [2 2] [ -ऐन- साकिन]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम+क़स्र =अख़रम मक़्सूर =फ़अ लान [ 2 2 1 ]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +ख़रम_तस्बीग़ = अख़रम मुस्सबीग़ =मफ़ ऊ लान [ 2 2 2 1]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +कब्ज़+तस्बीग़ = मक़्बूज़ मुस्सबीग़ =मफ़ाइलान [12121 ]
मुफ़ाईलुन[ 1222] +हतम [=बतर+क़ब्ज़+तस्बीग़]=अहतम = फ़ऊल [ 12 1] [ लाम साकिन
घबराइए नहीं
कोई भी शायर इन तमाम मुमकिनात [संभावित] मुज़ाहिफ़ बहर में शायरी नहीं करता । वो तो academic discussion और जानकारी के लिए लिख दिया । परन्तु कोई मनाही भी नहीं है । आप चाहें तो कर सकते हैं ।ये आप के फ़नी ऎतबार और हुनर-ए-सुखन पर निर्भर करेगा
एक बात और
इन्ही हज़ज की मुज़ाहिफ़ बहरों पर तख़्नीक़ के अमल से ’ रुबाई’ के 24-औज़ान बरामद होते है। वैसे ही जैसे
बहर-ए-मुतक़ारिब और मुतदारिक के मुज़ाहिफ़ बहरों पर ’तस्कीन’ और तख़नीक के अमल से ’माहिया ’ के 24- औज़ान बरामद होते है---चूँकि यह दोनों ’स्निफ़-ए-सुख़न’ [ काव्य विधायें] उर्दू शायरी की स्वतन्त्र ’काव्य विधा’ है अत: इस पर किसी दीगर मुक़ाम पर विस्तार से चर्चा करेंगे। शिगूफ़ा यहाँ छोड़े जाता हूँ
एक बात और
अहले अरब ने [ अरब के अरूज़ियों ने] ज़िहाफ़ात के मुआमले में 3-क़ैद लगा रखी है
1 मुअक़्क़बा
2 मुरक़्क़बा
3 मुकन्नफ़ा
इस क़ैद पर , विस्तार मे किसी अन्य मुकाम पर चर्चा करेंगे। ’मुआक़बा’ के बारे में ज़रा संक्षिप्त में चर्चा कर लेते हैं यहां ।कारण कि ’हज़ज’ पर मुअक़्क़बा ’ है यानी
------किसी एक single रुक्न में या दो consecutive रुक्न में लगातार ’[यानी एक के बाद दूसरा] दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ एक साथ आ जाते है तो सबब पर ज़िहाफ़ या तो लगेगा या नहीं लगेगा। अगर लगा तो सिर्फ़ किसी एक ही सबब पर लगेगा ,दोनो ’सबब’ पर एक साथ नहीं लगेगा।ऐसी स्थिति 9-बह्रों में होती है । और वो बह्रें है तवील---मदीद---वाफ़िर-----कामिल-----हज़ज-----रमल----मुन्सरह-----ख़फ़ीफ़- और--मुजतस
यानी बह्र-ए-हज़ज में मुअक़्कबा है ।
अब आप कहेंगे कि इस ’परिभाषा’ की या इस क़ैद की क्या ज़रूरत थी? अरूज़ी की किताब में सामान्यतया इस परिभाषा का ज़िक़्र नहीं दिखता।
ज़रूरत इस लिए पड़ी कि
हम जानते हैं कि किसी रुक्न पर ’ज़िहाफ़’ लगाते हैं तो एक ’मुज़ाहिफ़ रुक्न’ प्राप्त होता है । कभी कभी वही ’मुज़ाहिफ़ रुक्न’ किसी और दूसरे तरीक़े या दूसरे अमल से या दूसरे ज़िहाफ़ [मुफ़र्द या मुरक़्क़ब ] के अमल से भी प्राप्त हो सकता है ।तो फिर यह देखना पड़ेगा कि वो तरीक़ा कहीं [मुआक़िबा,---,---] की खिलाफ़वर्जी तो नहीं है ।अगर ख़िलाफ़वर्जी है वह तरीक़ा उचित नहीं माना जायेगा ।
मुआक़बा की क़ैद इस लिए लगाई गई कि रुक्न में एक साथ 4-या -5 मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ न आ जाये । अरबी कलमात 4-या-5 मुतहर्रिक हर्फ़ तो ’स॒पोर्ट’ कर लेते है मगर उर्दू शायरी ’सपोर्ट’ नही कर पाती । उर्दू शायरी मे 3- मुतहर्रिक आते ही ’तस्कीन’-ए-औसत का अमल ’सपोर्ट’ करने लगता है
और यह क़ैद इस् लिए भी कि कहीं ज़िहाफ़ लगाते लगाते दो वज़न की शकल एक जैसी न हो जाये कि भ्रम की स्थिति पैदा हो जाये
ख़ैर बात निकली तो हो गई.....
यहाँ सभी मुमकिनात मुज़ाहिफ़ बह्र और उस पर भी तस्कीन और तख़नीक़ की अमल का चर्चा करना न ज़रूरी है , न मुनासिब है-- सिवा इस के कि उलझन पैदा हो । चर्चा तो इस लिए कर लिया कि वक़्त ज़रूरत काम आए।
अब हम यहाँ सिर्फ़ हज़ज के उन्ही मक़्बूल और मानूस मुज़ाहिफ़ बहर की चर्चा करेंगे जिस में आम तौर पर आम शो’अरा शायरी करते है और जो राइज़ हैं
[क] बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
1222----122
ऊपर देखें तो स्पष्ट है कि मुफ़ाईलुन पर हज़्फ़ ज़िहाफ़ लगने से ’फ़ऊलुन [122] बरामद होता है जिसे महज़ूफ़ कहते हैं और यह ज़िहाफ़ शे’र में अरूज़/जर्ब के लिए ख़ास है
और चूँकि एक शे’र में 4-रुक्न [यानी मिसरा मे 2-रुक्न] तो मुरब्ब: कहलाता है
एक उदाहरण [आरिफ़ ख़ान साहब के हवाले से]-ख़ुद साख़्ता शे’र है उनका
न जीते हैं न मरते
तेरी फ़ुरक़त में हमदम
आप तक़्तीअ कर के देख सकते है -आसान है
1 2 2 2 / 1 2 2 =1222--122
न जीते हैं / न मर ते
1 2 2 2 / 1 2 2 =1222--122
तिरी फ़ुर क़त/ में हम दम
अगर इसी शे’र को ज़रा तब्दील कर के देखते हैं कि क्या होता है ---आप ख़ुद ही देख लें कि क्या होता है
न जीते हैं न मरते हैं = 1222---1222
तेरी फ़ुरक़त में ,ऎ हमदम = 1222---1222
बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: सालिम का वज़न आ गया
यानी कोई मिसरा आप के हाथ लग गया तो मुरब्ब: मुसद्दस मुसम्मन मफ़ज़ूफ़ मक़्सूर वग़ैरह बनाना तो आप के बायें हाथ का खेल होगा-शर्त यह कि मिसरा अपना पूरा मुकम्मल अर्थ [महफ़ूम] की अदायगी करे।
इसकी मुसद्दस और मुसम्मन शकल भी होती हैं और नाम यूँ होगा
[ख] बहर-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन -----मुफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
1222---------1222--------122
एक उदाहरण [तक़्तीअ] आप कर लीजियेगा
मीर की एक ग़ज़ल है जिसका एक शे’र है
सुख़न मुश्ताक़ है आलम हमारा
गनीमत है जहाँ मे दम हमारा
ग़ालिब की ग़ज़ल का भी एक शे’र ले लेते है कि बात ज़रा और साफ़ हो जाये
हवस को है निशात-ए-कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या
चलिए आप के लिए इस की तक्तीअ किए देता हूँ
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 = 1222---1222---122
ह वस को है /नि शा ते का / र क्या क्या
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 = 1222---1222---122
न हो मरना /तो जी ने का / मज़ा क्या
इस शे’र शुद्ध रूप से हज़ज ’महज़ूफ़’ की मिसाल है -कारण कि शे’र के अरूज़ और जर्ब -दोनो मुक़ाम पर ’फ़ऊलुन’ [ 122] यानी महज़ूफ़ है
[ग] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन---------मुफ़ाईलुन -----मुफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
1222----------1222---------1222--------122
एक उदाहरण [तक़्तीअ आप कर लीजियेगा][एक ख़ुद साख़्ता शे’र इस ग़रीब हक़ीर का भी बर्दाश्त कर लें
नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता आसमाँ से
उसे डर लग रहा होगा यहाँ अहल-ए-ज़हाँ से
तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 = 1222---1222----1222---122
नहीं उतरे / गा अब कोई / फ़ रिश ता आ/ समाँ से
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 = 1222---1222---1222---122
उसे डर लग / रहा होगा / यहाँ अह ले / ज़हाँ से
वैसे यह पूरी की पूरी ग़ज़ल ’महज़ूफ़’ में ही है--कहीं -मक़्सूर की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।
[घ] बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: मक़्सूर
मुफ़ाईलुन--फ़ऊलान [ नून साकिन]
1222------1221
ऊपर देखें तो स्पष्ट है कि मुफ़ाईलुन पर क़स्र ज़िहाफ़ लगने से ’फ़ऊलान [1221 ] बरामद होता है जिसे ’मक़्सूर’ कहते हैं और यह ज़िहाफ़ शे’र में अरूज़/जर्ब के लिए ख़ास है
एक उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से]
तड़पते हैं हर एक आन
तेरी फ़ुरक़त मे हम आह
तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2 2 2 / 1 2 2 1 = 1222----1221 [यहाँ हर एक आन --में अलिफ़ का वस्ल है अत: ’हरेकान ’का [ 1221 ] तलफ़्फ़ुज़ देता है
तड़पते हैं /हर एक आन
1 2 2 2 / 1 2 2 1 = 1222----1221
तेरी फ़ुरक़त /मे हम आह
इसकी मुसद्दस और मुसम्मन शकल भी हो सकती है
[च] बहर-ए-हज़ज मुसद्दस मक़्सूर
मुफ़ाईलुन--------मुफ़ाईलुन--फ़ऊलान [ नून साकिन]
1222------ 1222------1221
एक उदाहरण [तक़्तीअ आप कर लीजियेगा]
मीर के उसी ग़ज़ल का मक़्ता है
रखे रहते हैं दिल पर हाथ ऎ ’मीर’
यही शायद कि है सब ग़म हमारा
[इस मक़्ता में- अरूज़ के मुक़ाम पर --(हा) --थ ऎ ’मीर’ --- मक़्सूर [ 1221] है जब कि जर्ब में -हमारा - ’महज़ूफ़’ [122]है और शायरी में इनका ख़ल्त [मिलावट] जाइज है ]क्यों? कारण ऊपर लिख दिया है
ग़ालिब के उसी ग़ज़ल का मक़्ता लेते है
बला-ए-जाँ है ;ग़ालिब’ उसकी हर बात
इबारत क्या ,इशारत क्या ,अदा क्या
यहाँ मिसरा सानी तो ख़ैर -मुसद्दस महज़ूफ़-में ही और होना भी चाहिए कारण कि साहब ने मतला के दोनो शे’र में -महज़ूफ़- बाँध दिया था तो लाज़िमन मक्ता के मिसरा सानी में महज़ूफ़ बांधना ही था । मगर मक्ता के मिसरा में ऐसी कोई क़ैद नही सो ग़ालिब साहब ने इसे ’मक़्सूर’ में बांध दिया जो रवा भी और जाइज भी है
मिसरा उला की तक़्तीअ कर देता हूँ
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 1 = 1222---1222---1221
बला-ए-जाँ/ है ;ग़ालिब’ उस/ की हर बा त
एक बात आप ध्यान से देखे---ग़ालिब [उस्ताद] हों या ’मीर’ [ख़ुदा-ए-सुख़न] हों किसी ने पूरी की पूरी ग़ज़ल सिर्फ़ मक़्सूर में ही हो--नहीं कही है। उन्होने मक़्सूर का सहारा कहीं कहीं और किसी किसी मिसरा में लिया है जो रवा है
इसका मतलब यह हुआ कि ख़ालिस मक़्सूर में पूरी की पूरी ग़ज़ल कहना वाक़ई मुश्किल का काम है। जी निहायत मुश्किल का काम है ।मेरे ख़याल से - कारण कि जो शे’र के आख़िर में ’हर्फ़ उल आख़िर’ साकिन तो है ज़रूर- मगर अलिफ़ के बाद आता है यानी ’अलिफ़’ जब आप के शे’र को ऊँचाई पर खीच रहा था ्यानी परवाज़ पर था कि अचानक उसे साकिन पर उतरना पड़ा , जो शे’र की रवानी को कम कर देता है ।यक़ीनन ’तक़्तीअ में तो फ़र्क नहीं पड़ता है शे’र की रवानी में फ़र्क़ पड़ता है ।
अब ग़ालिब के शेर -में अरूज़ के मुक़ाम पर --की हर बात - को ही लें । की हर बा-- तक तो कोई कबाहत नहीं है श्रोता सुनता भी यही है -त- को ज़रा हल्का [लगभग न के बराबर ] भी बोलेंगे तो श्रोता भाव से समझ जायेगा
ख़ैर---
[छ] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन मक़्सूर
मुफ़ाईलुन-----मुफ़ाईलुन--------मुफ़ाईलुन--फ़ऊलान [ नून साकिन]
1222------1222------ 1222------1221
एक उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
मिरे हमदम तेरा दामन जो पकड़ेगा कोई ख़ार
तुझे उस लम्हा रह रह कर सताएगी मेरी याद
तक़्तीअ के लिए एक इशारा कर देते है-तक़्तीअ आप कर लीजियेगा]
मिरे हमदम / तेरा दामन / जो पकड़ेगा / कोई ख़ार
तुझे उस लम/ हा रह रह कर/ सताएगी /मेरी याद
एक बात ’महज़ूफ़’ और मक़्सूर के सन्दर्भ में
---यह ज़िहाफ़ आपस में एक दूसरे की जगह बदले जा सकते हैं । यानी एक मिसरा में ’महज़ूफ़’ और दूसरे मिसरे में ’ मक़्सूर’ लाया जा सकता है। लेकिन बह्र का नाम -मिसरा सानी में [यानी जर्ब के मुक़ाम पर] प्रयुक्त मुज़ाहिफ़ के नाम से तय होगा
यानी अगर जर्ब में ’मक़्सूर’ का प्रयोग हुआ है तो बह्र का नाम होगा-- बहर-ए-हज़ज [ मुरब्ब:/मुसद्दस/मुसम्मन] मक़्सूर
और अगर जर्ब में ’महज़ूफ़’ का प्रयोग हुआ है तो बह्र का नाम होगा-- बहर-ए-हज़ज [ मुरब्ब:/मुसद्द्स/मुसम्मन] महज़ूफ़
ये ज़िहाफ़ आपस में क्यों मुतबद्दिल है? और वज़न में कोई फ़र्क़ क्यों नही पड़ता?
महज़ूफ़ [122] और मक़्सूर [1221] में मात्र एक ’साकिन’ अल आख़िर ज़ियादत है और उसके पहले एक साकिन [ अलिफ़ का] और है ।अत: शे’र के अन्त में दो-साकिन’ एक साथ आ गए । जैसे दोस्त----बख़्त--- शिकस्त--याद ..ख़ार -आदि आदि। अन्त में दो साकिन एक साथ आते है] ऐसे केस में तक्तीअ में मात्र ’एक साकिन’ ही शुमार होता है दूसरा साकिन नहीं ।अत: बह्र के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
अगली क़िस्त में --हम हज़ज पर लगने वाले अन्य ज़िहाफ़ात का ज़िक़्र करेंगे
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नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
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