Monday, June 1, 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 36 [ बह्र-ए-रमल 01 ]

उर्दू बहर पर एक बातचीत  : किस्त 36 [ बहर-ए-रमल की सालिम बहरें]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 
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दायरा-ए--मुजतलबिया: से 3 बहर निकलती हैं ---हज़ज---रमल----रजज़

अब आप कहेंगे यह ’दायरा’ [वॄत] बीच में कहाँ से आ गया? घबड़ाइए नहीं ,मैनें तो बस यूँ ही लिख दिया कि अगर कहीं आप किसी अरूज़ की किताब में यह पढ़े तो आप परेशान न हों।
अरूज़ की किताबों में ’रुक्न’ को दिखाने का/समझने-समझाने का/बताने का यह एक pictorial and Graphical  तरीक़ा है। आप इसे न जाने तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

ह्ज़ज =मुफ़ाईलुन् =1222= वतद [ मुफ़ा, 12 ]    +सबब [ई ,2]       + सबब [लुन , 2]  = 1222
रमल  = फ़ाइलातुन् =2122=   सबब [ फ़ा, 2 ]       + वतद [ इला,12]+ सबब [तुन,2] = 2122
रजज़  =मुस तफ़ इलुन्  = 2212= सबब [ मुस, 2]       + सबब  [ तफ़ ,2] + वतद [इलुन ,12] = 2212

और ये तीनो रुक्न सुबाई रुक्न [7-हर्फ़ी रुक्न] कहलाती है  यक़ीन न हो तो हर्फ़ गिन कर देख लीजिये
इन सब पर मैं पहले भी चर्चा कर चुका हूँ --कोई नई बात नही है।

अगर आप ध्यान से देखें तो स्पष्ट है कि वतद तो हर रुक्न में ’खूँटे’ की तरह गड़ा हुआ है [ वतद को खूंटा PEG भी कहते है ] ये तो सबब है कि किसी रस्सी सा बँधा हुआ बस इस  वतद के कभी आगे कभी पीछे हो रहा है [सबब को रस्सी भी कहते हैं।
अब थोड़ी सी चर्चा दायरा [वृत] पर भी कर लेते है
आप कल्पना करें [ज्यामिति में कल्पना ही करते है ] कि किसी वॄत की परिधि पर  वतद----सबब---सबब रखा हुआ है
[वतद से मेरी मुराद वतद-ए-मज़्मुआ और सबब से सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से है---जिसके बारे में मैं प्रारम्भ में ही चर्चा कर चुका हूँ]
अब आप एक एक टुकड़ा छोड़ कर परिधि पे लिखे टुकड़े पढ़्ते जाइए --आप को यह बहर एक के बाद एक हासिल होती जायेगी -जैसे [वतद--सबब-सबब]-----[सबब---सबब--वतद]----[सबब--वतद--सबब] --
खैर
बहर-ए-रमल का बुनियादी रुक्न " फ़ाइलातुन ’ [2122] है जो एक सबब-ए-खफ़ीफ़+ एक वतद-ए-मज़्मुआ+ एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से बना है और यह एक सालिम रुक्न है

आज बहर-ए-रमल की सालिम बह्र की चर्चा करते हैं}

[1] बहर-ए-रमल मुरब्ब: सालिम
फ़ाइलातुन्----फ़ाइलातुन्
2122--------2122
उदाहरण- [डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से]

दिल में तेरी आरज़ू ने
कैसे कैसे गुल खिलाए
तक़्तीअ आप कर लें इशारा मैं कर देता हूँ

दिल में तेरी / आरज़ू ने
कैसे कैसे   / गुल खिलाए
[ख] बहर-ए-रमल सालिम मुसब्बीग़---अगर हम ऊपर की बहर की आखिरी रुक्न [जो अरूज़ के मुक़ाम पर है] में एक ’साकिन’ और बढ़ा दें [यानी फ़ाइल्लियान 21221 ] कर दे तो यह मुसब्बीग़ हो जायेगा यानी
फ़ाइला्तुन्----फ़ाइल्ल्यान्
2122--------21221
उदाहरण -[कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से]
ऎ नसीम-ए-सुबह ले जा
मेरे दिल का उस तक अहसास
तक़्तीअ आप कर लें , इशारा मैं कर देता हूँ
2122     / 2  1   22
ऎ नसीमे / सुब ह ले जा               [
2 1  2     2   /  2  1  2    2  1
मेरे दिल का /उस त  कह सास
आप जानते है कि अगर शे’र के आखिर में [अगरसबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर ख़त्म हो तो ]एक हर्फ़-ए- साकिन बढ़ा दिया जाय तो बहर के वज़न पे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।
ऐसा क्यों?
इस लिए कि जर्ब और अरूज़ में 2-साकिन एक साथ आ जायेंगे [हरकत+साकिन+साकिन] जब कि तक़्तीअ में एक ही’साकिन’ लिया जाता है।

मगर नाम में तो फ़र्क पड़ जायेगा
जैसे  2122------2122-----21221
और इस का नाम होगा
बहर-ए-रमल् मुसद्दस मुसब्बीग़ अल आखिर [अल आखिर न भी लिखेगे तो भी चलेगा कारण कि मुसब्बीग़ तो शे’र के आखिर में ही आता है ]
अरूज़ और जर्ब में सालिम [2122] और मुसब्बीग़ [21221] का ख़ल्त जायज है

[ध्यान दें- पहले मिसरा के अरूज़ के मुक़ाम पर ’सालिम’ [फ़ाइलातुन 2122] है जब कि जर्ब के मुक़ाम पर मुसब्बीग़ [21221] है और यह ख़ल्त जायज है मगर
बहर का नाम --जर्ब [ मिसरा सानी का आखिरी रुक्न ] पर जो होगा उसी से बहर का नाम बरामद होगा
एक बात और--
अगर हम मुरब्ब: को ’मुज़ाइफ़’ [दो-गुना] कर दें तो--
बज़ाहिर मिसरा में 4-रुक्न और पूरे शे’र में 8-रुक्न होंगे -तो हम क्या हम इसे ’मुसम्मन’ कह सकते है --या "मुरब्ब: मुज़ाइफ़" ही कहेंगे? कैसे पहचानेगे कि अमुक शे’र "बहर-ए-रमल मुसम्मन सालिम" है या ’बहर-ए-रमल मुरब्ब: मुज़ाइफ़" है??
यह सवाल मैने पहले भी उठाया था और हर बहर के मुरब्ब: में यह बात आती है। जवाब हमें नहीं मालूम।
पर हाँ इतना ज़रूर कह सकता हूं~--कि मुरब्ब: के केस में सिर्फ़ "सदर/इब्तिदा"  और ’अरूज़/जर्ब’ होता है --जब कि हस्व का मुक़ाम नही होता[ इस पर गुज़िस्ता अक़सात मैं चर्चा कर चुका हूँ ,यहाँ दुहराना ग़ैर ज़रूरी है]
यानी
मुरब्ब:      सदर----अरूज़
इब्तिदा-----जर्ब
  A------B---//   C-----D
मुरब्ब: मुज़ाहिफ़             सदर---अरूज़//सदर--अरूज़ =4-रुक्न
  2122---2122// 2122--2122
  E -------F----//  G--------H
इब्तिदा---जर्ब   //  इब्तिदा---जर्ब =4-रुक्न
2122-----2122// 2122-----2122

तो? जब हम ज़िहाफ़ के चर्चा करेगे तो --मुरब्ब/मुरब्ब: मुज़ाहिफ़ के केस में --वो ज़िहाफ़ात नहीं लगेगे--जो हस्व के लिए मख़्सूस होते है क्योंकि मुरब्ब: बहर में ’हस्व’ होता ही नही
अच्छा ,अगर मुरब्ब: मुज़ाइफ़ में ’मुसब्बीग़’ [ 21221] लगाना है तो कहाँ लगायेंगे ? बज़ाहिर अरूज़ और जर्ब पर ही लगेगा यानी [B and D , F and H ] पर यानी
M 2122---21221  // 2122----21221
M 2122----21221// 2122-----21221
साथ ही यह बह्र-ए-शिकस्ता भी है जब कि मात्र मुसम्मन मैं बहर-ए-शिकस्ता नही होता
मगर जब मुसम्मन में ’मुसब्बीग़’ लगाना हो तो--??

मुसम्मन  सदर---हस्व---हस्व-----अरूज़ =4-रुक्न
इब्तिदा--हस्व----हस्व---जर्ब =4-रुक्न

बज़ाहिर अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर यहाँ भी लगेगा
यानी       N                2122-----2122------2122------21221
N       2122------2122------2122-----21221
अब आप M and N की तुलना करें। अब आप ्"मुरब्ब: मुज़ाहिफ़" [ 4-रुक्न एक मिसरा में]  और मुसम्मन [4-रुक्न एक मिसरा में] अन्तर कर सकते हैं।
[2] बहर-ए-रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन्----फ़ाइलातुन्----फ़ाइला्तुन्
2122--------2122---------2122
उदाहरण [ कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से]

हिज़्र में तनहाई का आलम अजब था
डूब कर यादों में तेरी सो गए हम
तक़्तीअ का एक इशारा कर देते हैं

हिज़्र में तन/  हाइ का आ/लम अ जब था
डूब कर या ]दों में तेरी /  सो गए हम
[2] ख  बहर-ए-रमल मुसद्दस सालिम मुसब्बीग़
फ़ाइला्तुन्----फ़ाइला्तुन्----फ़ाइल्लयान्
2122--------2122---------21221
[नोट --मुसब्बीग़ की वज़ाहत ऊपर कर दी गई है--मुरब्ब: के साथ]
[कमाल अहमद सिद्दीक़ी के हवाले से]
शहर में क्या काम रिन्दान-ए-ख़राबात
एक वीराना करें अच्छा सा  आबाद
तक़्तीअ का इशारा कर देता हूँ
2    1   2   2  /  2 1  2    2   / 2 1 2 2 1
शह र में क्या / काम रिन् दा / ने-ख़राबात
2  1   2 2 / 2 1 2 2     / 2 1   2  2  1
एक वीरा /ना करें अच्  /चा स  आबाद

[3] बहर-ए-रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन्----फ़ाइलातुन्----फ़ाइला्तुन्----फ़ाइला्तुन्
2122--------2122       --------2122------2122
उदाहरण-क़तील सिफ़ाई का एक शे’र है

था ’क़तील’ एक अहल-ए-दिल अब ,उसको भी क्यों चुप लगी है
एक हैरत सी है तारी शहर भर के दिलबरों  पर 

तक़्तीअ का एक इशारा भर कर देता हूँ आप समझ जायेंगे

था ’क़ती लिक /अह ल-ए-दिल अब / ,उसको भी क्यों /चुप लगी है  [ यहाँ क़तील+इक में वस्ल हो कर =क़ती लिक[1 22] का वज़न दे रहा है
एक हैरत / सी है तारी /शहर भर के / दिल बरों  पर  [ उर्दू में शह र [21] के वज़न पर लेते है जो दुरुस्त भी है .हिन्दी में इसे [12] की वज़न पर लेते हैं]

कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से -2- उदाहरण

रू-ब-रू हर बात कहना है यक़ीनन ज़ीस्त आदत
अपने बेगाने सभी हमसे ख़फ़ा हैं ,क्या करें हम  
 तक़्तीअ का एक इशारा कर देता हूँ --आप भी कर सकते है

रू-ब-रू हर/   बात कहना / है यक़ीनन / ज़ीस्त आदत
अपने बेगा / ने सभी हम /से ख़फ़ा हैं ,/ क्या करें हम

उसके होंठों में जो सुर्खी है ,गुलाबों में नहीं  हैं
उसकी आँखों में जो मस्ती है,शराबों में नहीं है

 इसकी भी तक़्तीअ का एक इशारा भर कर देता हूँ-आप खुद भी कर सकते हैं

उसके होंठों/ में जो सुर्खी / है ,गुलाबों / में नहीं  हैं
उसकी आँखों / में जो मस्ती / है,शराबों /में नहीं है

[यहाँ -के- जो-की- पर मात्रा गिराई गई है जो शायरी में जायज है ]

एक उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से भी दे देता हूँ

हाल-ए-दिल किस को सुनाएँ ,दर्द-ए-दिल किस से कहें हम
इस ज़माने में कोई भी ,राज़दाँ  अपना नहीं है 

इस की तक़्तीअ कर के देखते हैं

हाल-ए-दिल किस/  को सुनाएँ  /,दर्द-ए-दिल किस/ से कहें हम ------ [”हाल-ए-दिल’ को हाल- दिल और”दर्द-ए-दिल’ को दर्द-दिल के वज़न पर लेंगे बहर की माँग पर]

इस ज़माने / में कुई भी /,राज़दाँ  अप / ना नहीं है -------------------[ -कोई - को कुई  के वज़न पर लेंगे बहर की माँग पर]

जैसा कि ऊपर मुरब्ब: और मुसद्दस के केस में  बताया जा चुका है ,मुसम्मन के केस में भी आखिर रुक्न [अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर] मुसब्बीग [  फ़ाइलाय्यान 21221 ] लाया जा सकता है गरऔर इनका आपस में ख़ल्त जायज है
और इस बहर का नाम होगा -’बह्र-ए-रमल मुसम्मन मुसब्बीग़-कहेंगे
एक उदाहरण [डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से]

ज़िन्दगी की हर डगर पर मैं निभाऊँगा तेरा साथ
उम्र भर के वास्ते मैंने तो थामा है तेरा हाथ

इसकी तक़्तीअ कर के देखते हैं

2    1   2    2  /  2  1  2  2     / 2 1  2  2  / 2 1 2 2 1
ज़िन द गी की /  हर डगर पर/  मैं निभाऊँ/ गा तिरा साथ
2 1   2   2  /  2  1  2 2  / 2  1  2  2 / 2 1 2 2 1
उम्र भर के / वास्ते मैं      /ने तो थामा / है तिरा हाथ

चलते चलते एक बात और----
यूँ तो बहर-ए-रमल सालिम मुसम्मन/मुसद्दस उर्दू की एक मक़्बूल बहर है मगर पता नहीं क्यों रमल के मुसद्दस या मुसम्मन में उर्दू शायरों ने ज़्यादा अश’आर नहीं कहे हैं जब कि इसकी मुज़ाहिफ़ बहर बहुत ही मक़्बूल और राइज है और लगभग सभी शायरों ने तब अ आज़माइ की है} यह भी एक अजीब बात है}
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--नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb                 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

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