उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 50 [बह्र-ए-मुज़ारे’ : भाग-1]
मित्रो ! पिछली क़िस्त में मैने ’बह्र-ए-मुन्सरिह’ पर बातचीत की । अब इस क़िस्त में ’ बह्र-ए-मुज़ारे’" की चर्चा करेंगे।
[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]
बह्र-ए-मुज़ारे’ भी एक मुरक़्क़ब बह्र [ यानी मिश्रित बह्र] है जो दो ’अर्कान’ के मेल से बनता है
यह बह्र उर्दू शायरी में एक ख़ुश आहंग ,दिलकश और मक़्बूल [मधुर और लोकप्रिय] बह्र है और अमूमन सभी शायरों ने इस बह्र में अपनी ग़ज़ल कही हैं।
इस बह्र का बुनियादी अर्कान है " मफ़ाईलुन [1222] + फ़ाअ’लातुन [2122] यानी "a,b'
अगर इस बहर की ’मुसद्दस’ शकल लिखनी हो तो
अर्कान होंगे a -a-b =यानी मफ़ाईलुन---मफ़ा ई लुन--फ़ाअ’ ला तुन
अगर इस बह्र की ’मुसम्मन शकल लिखनी हो तो
अर्कान होंगे a-b--a-b = यानी मफ़ाईलुन---फ़ाअ’लातुन---मफ़ाईलुन---फ़ाअ’ लातुन
वैसे ज़्यादातर शायरों ने इस बह्र के मुसम्मन शकल में ही शायरी की है
एक बात और
बह्र--ए-रमल का बुनियादी रुक्न ’ :फ़ाइलातुन " [2122] होता है-और इस रुक्न का एक शकल ’फ़ा’अ लातुन [2122] भी होता है ।
तो क्या दोनों ’फ़ाइलातुन’ क्या एक है???
जी नहीं --गो [यद्दपि] -वज़न [2122] तो दोनो का एक ही है पर दोनों में एक बुनियादी फ़र्क़ है और वह फ़र्क़ है उनकी बुनावट में ,इसके लिखने के अन्दाज़ में ।यानी ’मलफ़ूज़ी’ [बोलने के लिहाज़ से]तौर पे तो एक है मगर ’मक्तूबी’[लिखने के लिहाज़ से] तौर पे अलग है ।
[क] रमल का ’फ़ाइलातुन’ [2122] = [फ़ा]सबब_ए-ख़फ़ीफ़ [2] +इला [ वतद-ए-मज्मुआ] [12]+ तुन [सबब-ए-ख़फ़ीफ़] [2]
= सबब+वतद+सबब
= 2 + 1 2+ 2 = 2122
[ख] मुज़ारे’ का ’फ़ा’अलातुन’ [2122]= फ़ा’अ [वतद-ए-मफ़रूक़] 21 + ला [ सबब--ए-ख़फ़ीफ़] 2 + तुन [ सबब-ए-ख़फ़ीफ़]2
= वतद + सबब+ सबब
= 21 + 2+ 2 = 2122
वज़न तो एक है --मगर बुनावट में फ़र्क है
पहली शकल [क] को ---फ़ाइलातुन -की मुतस्सिल शकल [यानी हर्फ़-ए-ऐन सिलसिलेवार मिला कर लिखा गया है ।
दूसरी शकल [ख] को ---फ़ाइलातुन -- की मुन्फ़सिल शकल कहते है यानी हर्फ़े--ऐन- को ’फ़ासिला’ दे कर लिखा गया है
जहाँ तक ’इमला’ [लिखने का तरीक़ा] का सवाल है वह आप की मरजी पर है -ज़रूरी नहीं कि आप मुतस्सिल शकल में लिखें या मुन्फ़सिल शकल में लिखें --तलफ़्फ़ुज़ और वज़न तो एक जैसा रहेगा---ऐन-- फिर भी मुतहर्रिक ही रहेगा--- बात तो बस समझने की है कि बह्र में शकल कौन सी है तो ज़िहाफ़ात कौन से लगेंगे।मेरा ज़ाती ख़याल है कि इमला अलग अलग लिखें तो समझने और ज़िहाफ़ात लगाने और समझने में आसानी होगी।
पहली शकल [क] में -वतद- वतद-ए-मज्मुआ की शकल में है [यानी हरूफ़ हरकत+हरकत+ साकिन] की शकल में है--यानी दो हरकत ’जमा’ हो कर आए है [इसी लिए ’मज्मुआ’ कहा गया} । इस पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग होते हैं जैसे --ख़्बन--मरफ़ू--क़त’अ ---अह्ज़---मज़ाल वग़ैरह वग़ैरह
दूसरी शकल [ख] में वतद --वतद-ए-मफ़रूक़ की शकल में है [यानी हरूफ़ हरकत+साकिन+हरकत ] की शकल में है -यानी दो हरकत के बीच में ’फ़र्क़’ हो गया इसी लिए ’मफ़रूक़’ कहा गया। इस पर लगने वाले ज़िहाफ़ अलग होता है -जैसे--क़ब्ज़--कफ़--हज़्फ़---कस्र---वग़ैरह वग़ैरह
अबद--असर--हुकम [हुकुम] ---इरम---क्या है ? वतद तो है ---मगर कौन सा वतद?
"वतद -ए-मफ़् रूक" कि मिसाल तो मिलेगी नहीं क्योंकि उर्दू का कोई लफ़्ज़ ’हरकत’ पर गिरता नहीं [यानी मुतहर्रिक नहीं होता।
मगर ऐसे युग्म शब्द जो ’इत्फ़’ या ’कसरा-ए-इज़ाफ़त’ से बनते हैं --नज़र-ए-इनायत---शौक़-ए-ह्बीब जैसे लफ़्ज़--जिसमें नज़र के -र- पर हरकत या शौक़ के-क़- पर हरकत आ गई है तो ’ नज़र’ और ’शौक़’ यहां~ पर ’वतद-ए-मफ़रूक़” की वज़न पर आयेगा
[नोट- सबब--वतद की परिभाषा पर -- शुरू की किस्तों में चर्चा कर चुका हूँ] या किसी भी अरूज़ की मुस्तनद [प्रामाणिक] किताब में मिल जायेगी
अब आप यह कहेंगे कि यहाँ पर इसकी चर्चा करने की क्या ज़रूरत है?
जी ज़रूरत है। इन दोनो शकलों पे लगने वाले यानी ’फ़ाइलातुन’[मुतस्सिल] और ’फ़ाइलातुन’ [मुन्फ़सिल] के ज़िहाफ़ात अलग अलग होते है जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं
कहते हैं ’अरूज़’ एक नीरस विषय है ,मुश्किल है समझना। पहले मैं भी ऐसा ही समझता था--मगर सच पूछें तो ’अरूज़’ बहुत ही दिलचस्प और आसान विषय है --बहुत आसान है समझना इसका-एक बार समझ लेंगे तो इससे खेलने में बड़ा मज़ा आता है -शर्त यह कि बस प्यास बनी रहनी चाहिए
चलिए एक दिलचस्प बात और
’मफ़ाईलुन ’ 1222 में = वतद +सबब+सबब= यानी दो सबब एक साथ आ गए
तो क्या?
तो .इस पर ’मुरक़्बा" की क़ैद लग जायेगी। अब आप कहेंगे कि यह ’मुरक़्बा" कौन सी बला है
यह क़ैद अरबी अरूज़ियों ने तज़्बीज की ।जैसे [1] मुअ’कबा [2] मुरक़बा [3] मुकनफ़ा
हालाँकि इन तीनो की परिभाषा और व्याख्या गुज़िस्ता क़िस्त 45 में विस्तार से कर चुका हूँ फिर भी आप की सुविधा के लिए एक बार पुन: संक्षेप में ’मुरक़्बा और मुअ’कबा ’ की चर्चा कर लेते हैं और बह्र-ए-मुज़ारे’ में इसकी क्या ज़रूरत है
मुरक़बा :-अगर किसी एकल रुक्न मे [ Single Rukn ] -यदि दो consecutive सबब एक साथ आ जायें तो उसमें से किसी एक सबब पर उचित ज़िहाफ़ अवश्य [must] लगेगा।या लगना चाहिए। और यह भी कि एक साथ दोनो सबब के ’साकिन’
’साकित’ भी नहीं हो सकते
यहाँ रमल के फ़ा इला तुन [2122 में ’ मुरक़्बा’ की क़ैद नहीं लगेगी कारण कि वहाँ बुनावट " सबब--वतद---सबब ’ की है मगर मुज़ारे’ के ’फ़ाअ’ ला तुन’ [2 1 2 2] में मुरक़्ब्बा की क़ैद लग जायेगी --कारण कि इसकी बुनावट " वतद---सबब--सबब" की है और दोनो सबब एक साथ भी consecutively आ गए हैं } तो क्या? इसका मतलब ये हुआ कि "मुज़ारिअ बह्र ’ में फ़ाइलातुन’[2122] अपने सालिम शकल में प्रयोग नहीं हो सकता --जब भी होगा तो ’मुज़ाहिफ़’ शकल में ही प्रयोग होगा [ मुरक़्बा की वज़ह से]
अब एक बात और
तो फिर ’फ़ा’अ ला तुन" [2122] में भी तो ’दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ --ला---और --तुन-- एक साथ आ रहे है -तो इस पर ’मुरक़्बा’ की क़ैद क्यों नहीं ?
बिल्कुल सही। अरबी अरूज़ियों ने इस पर भी क़ैद लगा रखी है ---एक दूसरी तरह की क़ैद । और उस क़ैद का नाम है --मु’अकबा--
हाँला कि इसकी परिभाषा और व्याख्या गुज़िस्ता क़िस्त 45 में विस्तार से कर चुका हूँ फिर भी आप की सुविधा के लिए एक बार पुन: ’- मु’अकबा ’ की चर्चा कर लेते हैं और बह्र-ए-मुज़ारे’ में इसकी क्या ज़रूरत है
[1] मु’अकबा : अगर किसी एक रुक्न में या दो रुक्न के बीच में दो consecutive सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आ जाय तो उसमें से एक ही सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर ज़िहाफ़ लगेगा --दोनो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर एक साथ ज़िहाफ़ नहीं लगेगा। या नहीं लगेगा तो -फिर किसी भी सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर नही लगेगा। यही कारण है कि मुज़ारे’ बह्र में ’फ़ाअ’लातुन’ -सालिम शकल में लाया जा सकता है क्यों कि इस पर ज़िहाफ़ लगाना - MUST- नहीं है
अब उन ज़िहाफ़ात की भी चर्चा कर लेते है जो मफ़ाईलुन [1222] और फ़ा’अ लातुन [2122] पर बह्र-ए-मज़ारि’अ के सन्दर्भ में लग सकते हैं और लगते हैं
मफ़ाईलुन [1222} + ख़र्ब = अख़रब ’मफ़ऊलु [221]
मफ़ाईलुन [1222] [बह्र-ए-मुज़ारे’ के सन्दर्भ में ] लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात---
मफ़ाईलुन [1222] +ख़र्ब (ख़रम+कफ़] = अख़रब =मफ़ऊलु [221]
मफ़ाईलुन [1222] + कफ़ = मक्फ़ूफ़=मफ़ाईलु [1221]
फ़ाअ’लातुन [2122] [बह्र-ए-मुज़ारे’ के सन्दर्भ में ] लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात --
फ़ाअ’लातुन [2122] +कफ़ = मक्फ़ूफ़ = फ़ाअ’लातु [2 121 ]
फ़ाअ’लातुन [2122] + हज़्फ़= महज़ूफ़ = फ़ाअ’लुन [212]
फ़ाअ’लातुन [2122]+ क़स्र = मक़्सूर = फ़ाअ’लान [ 2121]
एक बात और स्पष्ट कर दे---जो मुज़ाहिफ़ सालिम बह्रों [यानी सालिम मफ़ाईलुन या सालिम फ़ाअ’लातुन ]के आहंग में आयें उन्हें सब का सब मुरक्क़ब बह्रों में रखना मुनासिब नहीं
चूँकि बह्र में [कई जगह--जो आगे देखेंगे] ’तीन हरकत ’[या तो एक ही रुक्न में या दो रुक्न मिला कर] एक साथ आ जाते हैं तो इन मुज़ाहिफ़ वज़न पर ’तस्कीन-ए-औसत’ या तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और इस से चन्द मज़ीद आहंग और भी बनाए जा सकते हैं । तस्कीन-ए-औसत और तख़्नीक़ के निज़ाम के बारे में पिछले क़िस्तों में चर्चा कर चुका हूँ आप चाहें तो देख सकते है
वैसे तो इस बह्र में मुरब्ब: ,मुसद्दस और मुसम्मन के सैद्धान्तिक रूप से कई आहंग मुमकिन है जिसमें से कुछ तो बहुत ही दिलकश लोकप्रिय [मानूस] मक़्बूल आहंग है ---कुछ कम प्रचलित है लेकिन हम उन्हीं आहंग की चर्चा करेंगे जो काफ़ी लोकप्रिय हैं और उस्ताद शायरों ने अपनी शायरी की है। सभी आहंग में शायरी करना [सैद्धान्तिक रूप ] सम्भव तो है मगर ज़रूरत नहीं है और कोई भी शायर सभी मुमकिनात आहंग में शायरी करता भी नहीं ---सभी शायरों के कुछ चुनिन्दा और पसन्ददीदा आहंग होते है जिसमें वोह शायरी करते हैं --मगर अरूज के लिहाज़ से चर्चा करने में क्या हर्ज है
अगले क़िस्त में बह्र-ए-मुज़ारे’ के ऐसे ही कुछ मक़्बूल आहंग की चर्चा करेंगे
नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
मित्रो ! पिछली क़िस्त में मैने ’बह्र-ए-मुन्सरिह’ पर बातचीत की । अब इस क़िस्त में ’ बह्र-ए-मुज़ारे’" की चर्चा करेंगे।
[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]
बह्र-ए-मुज़ारे’ भी एक मुरक़्क़ब बह्र [ यानी मिश्रित बह्र] है जो दो ’अर्कान’ के मेल से बनता है
यह बह्र उर्दू शायरी में एक ख़ुश आहंग ,दिलकश और मक़्बूल [मधुर और लोकप्रिय] बह्र है और अमूमन सभी शायरों ने इस बह्र में अपनी ग़ज़ल कही हैं।
इस बह्र का बुनियादी अर्कान है " मफ़ाईलुन [1222] + फ़ाअ’लातुन [2122] यानी "a,b'
अगर इस बहर की ’मुसद्दस’ शकल लिखनी हो तो
अर्कान होंगे a -a-b =यानी मफ़ाईलुन---मफ़ा ई लुन--फ़ाअ’ ला तुन
अगर इस बह्र की ’मुसम्मन शकल लिखनी हो तो
अर्कान होंगे a-b--a-b = यानी मफ़ाईलुन---फ़ाअ’लातुन---मफ़ाईलुन---फ़ाअ’ लातुन
वैसे ज़्यादातर शायरों ने इस बह्र के मुसम्मन शकल में ही शायरी की है
एक बात और
बह्र--ए-रमल का बुनियादी रुक्न ’ :फ़ाइलातुन " [2122] होता है-और इस रुक्न का एक शकल ’फ़ा’अ लातुन [2122] भी होता है ।
तो क्या दोनों ’फ़ाइलातुन’ क्या एक है???
जी नहीं --गो [यद्दपि] -वज़न [2122] तो दोनो का एक ही है पर दोनों में एक बुनियादी फ़र्क़ है और वह फ़र्क़ है उनकी बुनावट में ,इसके लिखने के अन्दाज़ में ।यानी ’मलफ़ूज़ी’ [बोलने के लिहाज़ से]तौर पे तो एक है मगर ’मक्तूबी’[लिखने के लिहाज़ से] तौर पे अलग है ।
[क] रमल का ’फ़ाइलातुन’ [2122] = [फ़ा]सबब_ए-ख़फ़ीफ़ [2] +इला [ वतद-ए-मज्मुआ] [12]+ तुन [सबब-ए-ख़फ़ीफ़] [2]
= सबब+वतद+सबब
= 2 + 1 2+ 2 = 2122
[ख] मुज़ारे’ का ’फ़ा’अलातुन’ [2122]= फ़ा’अ [वतद-ए-मफ़रूक़] 21 + ला [ सबब--ए-ख़फ़ीफ़] 2 + तुन [ सबब-ए-ख़फ़ीफ़]2
= वतद + सबब+ सबब
= 21 + 2+ 2 = 2122
वज़न तो एक है --मगर बुनावट में फ़र्क है
पहली शकल [क] को ---फ़ाइलातुन -की मुतस्सिल शकल [यानी हर्फ़-ए-ऐन सिलसिलेवार मिला कर लिखा गया है ।
दूसरी शकल [ख] को ---फ़ाइलातुन -- की मुन्फ़सिल शकल कहते है यानी हर्फ़े--ऐन- को ’फ़ासिला’ दे कर लिखा गया है
जहाँ तक ’इमला’ [लिखने का तरीक़ा] का सवाल है वह आप की मरजी पर है -ज़रूरी नहीं कि आप मुतस्सिल शकल में लिखें या मुन्फ़सिल शकल में लिखें --तलफ़्फ़ुज़ और वज़न तो एक जैसा रहेगा---ऐन-- फिर भी मुतहर्रिक ही रहेगा--- बात तो बस समझने की है कि बह्र में शकल कौन सी है तो ज़िहाफ़ात कौन से लगेंगे।मेरा ज़ाती ख़याल है कि इमला अलग अलग लिखें तो समझने और ज़िहाफ़ात लगाने और समझने में आसानी होगी।
पहली शकल [क] में -वतद- वतद-ए-मज्मुआ की शकल में है [यानी हरूफ़ हरकत+हरकत+ साकिन] की शकल में है--यानी दो हरकत ’जमा’ हो कर आए है [इसी लिए ’मज्मुआ’ कहा गया} । इस पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग होते हैं जैसे --ख़्बन--मरफ़ू--क़त’अ ---अह्ज़---मज़ाल वग़ैरह वग़ैरह
दूसरी शकल [ख] में वतद --वतद-ए-मफ़रूक़ की शकल में है [यानी हरूफ़ हरकत+साकिन+हरकत ] की शकल में है -यानी दो हरकत के बीच में ’फ़र्क़’ हो गया इसी लिए ’मफ़रूक़’ कहा गया। इस पर लगने वाले ज़िहाफ़ अलग होता है -जैसे--क़ब्ज़--कफ़--हज़्फ़---कस्र---वग़ैरह वग़ैरह
अबद--असर--हुकम [हुकुम] ---इरम---क्या है ? वतद तो है ---मगर कौन सा वतद?
"वतद -ए-मफ़् रूक" कि मिसाल तो मिलेगी नहीं क्योंकि उर्दू का कोई लफ़्ज़ ’हरकत’ पर गिरता नहीं [यानी मुतहर्रिक नहीं होता।
मगर ऐसे युग्म शब्द जो ’इत्फ़’ या ’कसरा-ए-इज़ाफ़त’ से बनते हैं --नज़र-ए-इनायत---शौक़-ए-ह्बीब जैसे लफ़्ज़--जिसमें नज़र के -र- पर हरकत या शौक़ के-क़- पर हरकत आ गई है तो ’ नज़र’ और ’शौक़’ यहां~ पर ’वतद-ए-मफ़रूक़” की वज़न पर आयेगा
[नोट- सबब--वतद की परिभाषा पर -- शुरू की किस्तों में चर्चा कर चुका हूँ] या किसी भी अरूज़ की मुस्तनद [प्रामाणिक] किताब में मिल जायेगी
अब आप यह कहेंगे कि यहाँ पर इसकी चर्चा करने की क्या ज़रूरत है?
जी ज़रूरत है। इन दोनो शकलों पे लगने वाले यानी ’फ़ाइलातुन’[मुतस्सिल] और ’फ़ाइलातुन’ [मुन्फ़सिल] के ज़िहाफ़ात अलग अलग होते है जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं
कहते हैं ’अरूज़’ एक नीरस विषय है ,मुश्किल है समझना। पहले मैं भी ऐसा ही समझता था--मगर सच पूछें तो ’अरूज़’ बहुत ही दिलचस्प और आसान विषय है --बहुत आसान है समझना इसका-एक बार समझ लेंगे तो इससे खेलने में बड़ा मज़ा आता है -शर्त यह कि बस प्यास बनी रहनी चाहिए
चलिए एक दिलचस्प बात और
’मफ़ाईलुन ’ 1222 में = वतद +सबब+सबब= यानी दो सबब एक साथ आ गए
तो क्या?
तो .इस पर ’मुरक़्बा" की क़ैद लग जायेगी। अब आप कहेंगे कि यह ’मुरक़्बा" कौन सी बला है
यह क़ैद अरबी अरूज़ियों ने तज़्बीज की ।जैसे [1] मुअ’कबा [2] मुरक़बा [3] मुकनफ़ा
हालाँकि इन तीनो की परिभाषा और व्याख्या गुज़िस्ता क़िस्त 45 में विस्तार से कर चुका हूँ फिर भी आप की सुविधा के लिए एक बार पुन: संक्षेप में ’मुरक़्बा और मुअ’कबा ’ की चर्चा कर लेते हैं और बह्र-ए-मुज़ारे’ में इसकी क्या ज़रूरत है
मुरक़बा :-अगर किसी एकल रुक्न मे [ Single Rukn ] -यदि दो consecutive सबब एक साथ आ जायें तो उसमें से किसी एक सबब पर उचित ज़िहाफ़ अवश्य [must] लगेगा।या लगना चाहिए। और यह भी कि एक साथ दोनो सबब के ’साकिन’
’साकित’ भी नहीं हो सकते
यहाँ रमल के फ़ा इला तुन [2122 में ’ मुरक़्बा’ की क़ैद नहीं लगेगी कारण कि वहाँ बुनावट " सबब--वतद---सबब ’ की है मगर मुज़ारे’ के ’फ़ाअ’ ला तुन’ [2 1 2 2] में मुरक़्ब्बा की क़ैद लग जायेगी --कारण कि इसकी बुनावट " वतद---सबब--सबब" की है और दोनो सबब एक साथ भी consecutively आ गए हैं } तो क्या? इसका मतलब ये हुआ कि "मुज़ारिअ बह्र ’ में फ़ाइलातुन’[2122] अपने सालिम शकल में प्रयोग नहीं हो सकता --जब भी होगा तो ’मुज़ाहिफ़’ शकल में ही प्रयोग होगा [ मुरक़्बा की वज़ह से]
अब एक बात और
तो फिर ’फ़ा’अ ला तुन" [2122] में भी तो ’दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ --ला---और --तुन-- एक साथ आ रहे है -तो इस पर ’मुरक़्बा’ की क़ैद क्यों नहीं ?
बिल्कुल सही। अरबी अरूज़ियों ने इस पर भी क़ैद लगा रखी है ---एक दूसरी तरह की क़ैद । और उस क़ैद का नाम है --मु’अकबा--
हाँला कि इसकी परिभाषा और व्याख्या गुज़िस्ता क़िस्त 45 में विस्तार से कर चुका हूँ फिर भी आप की सुविधा के लिए एक बार पुन: ’- मु’अकबा ’ की चर्चा कर लेते हैं और बह्र-ए-मुज़ारे’ में इसकी क्या ज़रूरत है
[1] मु’अकबा : अगर किसी एक रुक्न में या दो रुक्न के बीच में दो consecutive सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आ जाय तो उसमें से एक ही सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर ज़िहाफ़ लगेगा --दोनो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर एक साथ ज़िहाफ़ नहीं लगेगा। या नहीं लगेगा तो -फिर किसी भी सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर नही लगेगा। यही कारण है कि मुज़ारे’ बह्र में ’फ़ाअ’लातुन’ -सालिम शकल में लाया जा सकता है क्यों कि इस पर ज़िहाफ़ लगाना - MUST- नहीं है
अब उन ज़िहाफ़ात की भी चर्चा कर लेते है जो मफ़ाईलुन [1222] और फ़ा’अ लातुन [2122] पर बह्र-ए-मज़ारि’अ के सन्दर्भ में लग सकते हैं और लगते हैं
मफ़ाईलुन [1222} + ख़र्ब = अख़रब ’मफ़ऊलु [221]
मफ़ाईलुन [1222] [बह्र-ए-मुज़ारे’ के सन्दर्भ में ] लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात---
मफ़ाईलुन [1222] +ख़र्ब (ख़रम+कफ़] = अख़रब =मफ़ऊलु [221]
मफ़ाईलुन [1222] + कफ़ = मक्फ़ूफ़=मफ़ाईलु [1221]
फ़ाअ’लातुन [2122] [बह्र-ए-मुज़ारे’ के सन्दर्भ में ] लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात --
फ़ाअ’लातुन [2122] +कफ़ = मक्फ़ूफ़ = फ़ाअ’लातु [2 121 ]
फ़ाअ’लातुन [2122] + हज़्फ़= महज़ूफ़ = फ़ाअ’लुन [212]
फ़ाअ’लातुन [2122]+ क़स्र = मक़्सूर = फ़ाअ’लान [ 2121]
एक बात और स्पष्ट कर दे---जो मुज़ाहिफ़ सालिम बह्रों [यानी सालिम मफ़ाईलुन या सालिम फ़ाअ’लातुन ]के आहंग में आयें उन्हें सब का सब मुरक्क़ब बह्रों में रखना मुनासिब नहीं
चूँकि बह्र में [कई जगह--जो आगे देखेंगे] ’तीन हरकत ’[या तो एक ही रुक्न में या दो रुक्न मिला कर] एक साथ आ जाते हैं तो इन मुज़ाहिफ़ वज़न पर ’तस्कीन-ए-औसत’ या तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और इस से चन्द मज़ीद आहंग और भी बनाए जा सकते हैं । तस्कीन-ए-औसत और तख़्नीक़ के निज़ाम के बारे में पिछले क़िस्तों में चर्चा कर चुका हूँ आप चाहें तो देख सकते है
वैसे तो इस बह्र में मुरब्ब: ,मुसद्दस और मुसम्मन के सैद्धान्तिक रूप से कई आहंग मुमकिन है जिसमें से कुछ तो बहुत ही दिलकश लोकप्रिय [मानूस] मक़्बूल आहंग है ---कुछ कम प्रचलित है लेकिन हम उन्हीं आहंग की चर्चा करेंगे जो काफ़ी लोकप्रिय हैं और उस्ताद शायरों ने अपनी शायरी की है। सभी आहंग में शायरी करना [सैद्धान्तिक रूप ] सम्भव तो है मगर ज़रूरत नहीं है और कोई भी शायर सभी मुमकिनात आहंग में शायरी करता भी नहीं ---सभी शायरों के कुछ चुनिन्दा और पसन्ददीदा आहंग होते है जिसमें वोह शायरी करते हैं --मगर अरूज के लिहाज़ से चर्चा करने में क्या हर्ज है
अगले क़िस्त में बह्र-ए-मुज़ारे’ के ऐसे ही कुछ मक़्बूल आहंग की चर्चा करेंगे
नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
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