उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 56 [ बह्र-ए-क़रीब ]
[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]
यह बह्र भी एक मुरक़्क़ब बह्र है जो 3-अर्कान से मिल कर बनता है अत: यह भी -बह्र-ए-सरीअ’ और बह्र-ए-जदीद--- की तरह मुसद्दस शकल में ही प्रयोग होता है
मगर बह्र-ए-सरीअ’ और बह्र-ए-जदीद-की तरह उर्दू शायरी में बहुत कम ही प्रयोग हुआ है ,। इस बह्र का नाम ’क़रीब’ [समीप] क्यों कहते हैं -मालूम नहीं
कुंवर ’बेचैन’ साहब ने तो इसका हिन्दी नाम ’समीप छन्द’ ही रख दिया-क़रीब के हिन्दी अनुवाद पर।
इस बह्र का बुनियादी अर्कान है---
मफ़ाईलुन-----मफ़ाईलुन---फ़ाइ’लातुन
1222--------1222--------2122
ध्यान रहे -- फ़ाइलातुन [2122] अपने ’मुन्फ़सिल शकल में है] यानी फ़ा इ’लातुन [ यानी -ऐन- अपने मुतहर्रिक शकल में है ] यानी [ वतद मफ़रूक़ + सबब-ए-ख़फ़ीफ़+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ की शकल में है ]
जब कि यही रुक्न जब मुतस्सिल शकल मे होती है तो [सब-ए-ख़फ़ीफ़+वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ शकल में होती है]
आप ’वतद’ का लोकेशन देखिए फिर उसी हिसाब से ’इस पर लगने वाले ज़िहाफ़ात’ सोचिए
मुफ़ाईलुन [1222] पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात की चर्चा कर लेते हैं
मुफ़ाईलुन [1222] + कफ़्फ़ = मक्फ़ूफ़ मुफ़ाईलु [1221]--लाम मुतहर्रिक
म्फ़ाईलुन [1222] + ख़र्ब = अख़रब मफ़ऊलु[ 2 2 1] --- लाम --मुतहर्रिक
फ़ाइ’लातुन[2122] पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात
फ़ाइ’लातुन [ 2122] +हज़्फ़ =महज़ूफ़ फ़ाइ’लुन [2 1 2] [नोट -इ’- को आप -ऐन मुतहर्रिक समझे]
फ़ाइ’लातुन [2122] + क़स्र = मक़्सूर फ़ाइ’लान [2 1 2 1] [ ---तदैव-]
चलिए इसके कुछ प्रचलित बह्र /आहंग देख लेते हैं
[1] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस सालिम
मफ़ाईलुन-----मफ़ाईलुन---फ़ाइ’लातुन
1222--------1222--------2122
एक उदाहरण देख लेते हैं
अब्दुल अज़ीज़ साहब का एक शे’र है
वो भी इक दौर था जिसमें ख़ुशदिली से
न की मैने कभी तेरी मेहमानी
तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1 2 2 2 /1 2 2 2 / 2 1 2 2
वो भी इक दौ / र था जिसमें / ख़ुश दिली से
1 2 2 2/ 1 2 2 2 / 2 1 2 2
न की मै ने / कभी तेरी / मेहमानी
[2] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़
मफ़ाईलु-----मफ़ाईलु-----फ़ाइ’लातुन
1 2 2 1-----1 2 2 1-----2 1 2 2
मफ़ाईलुन [1222] का मक्फ़ूफ़ [यानी मफ़ाईलुन[1222] पर ’कफ़’ का ज़िहाफ़] मफ़ाईलु [1221 ]बरामद होता है -यानी -लाम मुतहर्रिक
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं
’सरवर राज़ सरवर के हवाले से
तिरे ग़म में प्यारे निकल गया दिल
शरारे से है फ़ुरक़त के जल गया दिल
तक़्तीअ’ भी देख लेते है
1 2 2 1 / 1 2 2 1/ 2 1 2 2
तिरे ग़म में / प यारे नि /कल गया दिल
1 2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2 2
शरारे से / है फ़ुर क़त के / जल गया दिल
आप देख रहे हैं कि -में---से---के--- को -1- के वज़न पर लिया गया है कारण कि ये सभी मुतहर्रिक हैं और मुतहर्रिक के मुक़ाम पर भी है और बह्र की माँग भी है
[3] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ /मक़्सूर
मफ़ाईलु-----मफ़ाईलु---फ़ाइ’लुन / फ़ाइ’लान
1 2 2 1-----1 2 2 1-----2 1 2 /2 1 2 1
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से--
अजब शख़्स था लब पर थी उस की जान
तड़पता था तेरा नाम ले के वो
अब तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
1 2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2 1
अजब शख़् स / था लब पर थी / उस की जान [मक़्सूर]
1 2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2
त ड़प ता था / तिरा नाम / ले के वो [ महज़ूफ़]
मिसरा ऊला मे ’मक़्सूर’ और मिसरा सानी में ’महज़ूफ़’ लाया जा सकता है।
मगर नामकरण उस ज़िहाफ़ से होगा जो ’मिसरा सानी’ में आता है
यानी इस बह्र का नाम होगा ---क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़"
अगर इस शे’र का यूँ पढ़ें
तड़पता था तेरा नाम ले के वो [ महज़ूफ़]
अजब शख़्स था लब पर थी उस की जान [ मक़्सूर]
तो इस बह्र का नाम होगा ----क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ मक़्सूर--यानी मिसरा सानी के लिहाज़ से।
मगर ग़ज़ल के अश’आर में इन दोनो का ’ख़ल्त जायज़ है- यानी आपस में ’मुतबादिल’ हैं
एक बात और
अगर ऊपर के दो रुक्न मफ़ाईलु 1221] ----मफ़ाईलु [1221] को ध्यान से देखें तो तीन मुतहर्रिक [लाम--मीम--फ़े] एक साथ आ रहे हैं और तख़्नीक़ की अमल से एक बह्र और बरामद हो सकती है
[3-क] मफ़ाईलुन----मफ़ ऊलु -- -फ़ाइ’लुन
1 2 2 2 ---- 2 2 1----------212
आप इस बह्र में कोई शे’र सोच सकते हैं -चाहें तो। अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ाइलुन’ [212 ]की जगह ’फ़ाइलान’[2121] भी लाया जा सकता है।
[4] बह्र-ए-क़रीब मुसद्द्स अख़रब मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर
मफ़ऊलु---मफ़ाईलु---फ़ाइ’लातुन
221----- 1221-------2122
आप जानते हैं कि ’मफ़ऊलु’[221] ----अख़रब है ’मफ़ाईलुन [1222] का
और ’मफ़ाईलु ’[1221] -------मक्फ़ूफ़ है ’मफ़ाईलुन’[1222] का
और दोनों में -लु- मुतहर्रिक है
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं -अब्दुल अज़ीज़’ख़ालिद’ साहब का एक शे’र है
मेरी यही तफ़रीह-ओ-दिल्लगी है
करती ही रहे तेरी इन्तज़ारी
अब तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2 1
मेरी ये /ही तफ़रीह-/ ओ-दिल लगी है
2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2 2
कर ती ही/ रहे तेरी/ इन त ज़ारी
यहाँ तफ़रीह-ओ- इन्तज़ारी में जो -इत्फ़- ओ- है उसका वज़न नहीं लिया गया है । क्यों ? कारण आप जानते होंगे
-------
अगर आप ऊपर के अर्कान के इन्तजाम को ध्यान से देखे तो
मफ़ऊलु--मफ़ाईलु के बीच में क्या है ? कुछ नहीं बस --लाम-- मुतहर्रिक-----मीम मुतहर्रिक---फ़े मुतहर्रिक है यानी तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ तो ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है [नोट--तस्कीन-ए-औसत का अमल नहीं होगा कारण कि तस्कीन-ए-औसत का अमल तब होता है जब ’एक ही रुक्न में ’ -तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ आये] तख़्नीक़ का अमल तब होता है जब ’दो adjacent रुक्न’ में तीन मुतहर्रिक एक साथ आयें और दोनो का अमल ’सालिम’ रुक्न पर कभी नहीं होता-हमेशा ’मुज़ाहिफ़’ रुक्न पर होता है ।
तो ऊपर के दोनो रुक्न तख़्नीक के अमल से दो अलग-अलग मुख़्नीक़ रुक्न बन जायेंगे-----’मफ़ ऊ लुम-और - फ़ाईलु--- जिसे हम इसके हम वज़न मानूस रुक्न ’मफ़ऊलुन---मफ़ऊलु [ यानी 222---221 ] से बदल लेंगे
तब इस बह्र की शकल हो जायेगी
मफ़ऊलुन----मफ़ऊलु---फ़ाइ’लातुन
222---------221------2122
[4-क] बह्र-ए-क़रीब मुसद्द्स अख़रब मक्फ़ूफ़ मुखन्निक़ सालिम अल आख़िर
मफ़ऊलुन----मफ़ऊलु---फ़ाइ’लातुन
222---------221------2122
एक उदाहरण भी देख लेते है --सरवर राज़ सरवर साहब के हवाले से
दुख भुगते इस इश्क़ की बदौलत
मुद्दत तक ना पाई हमने राहत
-नामालूम-
अब इसकी तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2 2 2 / 2 2 1 / 2 1 2 2
दुख भुगते / इस इश् क़ / की बदौ लत
2 2 2 / 2 2 1 / 2 1 2 2
मुद्दत तक/ ना पा इ / हम ने राहत
[5] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु-----मफ़ाईलु---फ़ाइ’लुन\फ़ाइ’लान
221---------1221------212\2121
बात साफ़ है -ऊपर दिखाया भी है
मफ़ाईलुन का ’अख़रब’ मुज़ाहिफ़ ----मफ़ऊलु [221] होता है
मफ़ाईलुन का मक्फ़ूफ़ मुज़ाहिफ़----मफ़ाईलु [ 1221] होता है
और
फ़ाइ’लातुन का महज़ूफ़ मुज़ाहिफ़------ फ़ाइ’लुन [212] होता है जब कि
फ़ाइ’लातु का मक़्सूर मुज़ाहिफ़------फ़ाइ’लान [2121] होता है
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं--डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
आँखों में है अब भी वही समाँ
पहलू में कभी आप थे मेरे
अब तक़्तीअ’ भी कर के देख लेते है
2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2
आँखों में / है अब भी व /ही समाँ
2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2
पहलू में / कभी आप / थे मि रे
इस बह्र में भी अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर फ़ाइ’लुन की जगह फ़ाइ’लान लाया जा सकता है --ख़ल्त जायज़ है
अच्छा ,एक बात तो रह ही गई
इस बह्र का नाम ’क़रीब’ क्यों रखा गया -मालूम नहीं । मुझे लगता है ,मेरी व्यक्तिगत सोच है कि इसके अर्कान मफ़ाईलुन [1222] और फ़ाइलातुन [2122] -दोनो एक ही दायरे से निकले है और क़रीब भी है वतद के लिहाज़ से
या इस पर ज़िहाफ़ात लगाते लगाते लगभग ’रुबाई’ की बह्र के क़रीब पहुँच जाते हैं--शायद इसी लिए। हो सकता है कि मैं ग़लत भी हूँ । अगर आप लोगों को कही कारण मिल जाये तो ज़रूर बताइएगा--कि मेरे इल्म में भी इज़ाफ़ा हो सके ।
अब मै यह तो नही कह सकता कि बह्र-ए-क़रीब के सारे आहंग की चर्चा मैने कर ली -है -और भी इसके आहंग मुमकिन है और यह आप के फ़न-ए-शायरी पर निर्भर करता है ।
अत: इस बह्र का बयान यहीं ख़त्म करता हूँ
अगले क़िस्त में किसी और बह्र की चर्चा करेंगे
अस्तु
नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]
यह बह्र भी एक मुरक़्क़ब बह्र है जो 3-अर्कान से मिल कर बनता है अत: यह भी -बह्र-ए-सरीअ’ और बह्र-ए-जदीद--- की तरह मुसद्दस शकल में ही प्रयोग होता है
मगर बह्र-ए-सरीअ’ और बह्र-ए-जदीद-की तरह उर्दू शायरी में बहुत कम ही प्रयोग हुआ है ,। इस बह्र का नाम ’क़रीब’ [समीप] क्यों कहते हैं -मालूम नहीं
कुंवर ’बेचैन’ साहब ने तो इसका हिन्दी नाम ’समीप छन्द’ ही रख दिया-क़रीब के हिन्दी अनुवाद पर।
इस बह्र का बुनियादी अर्कान है---
मफ़ाईलुन-----मफ़ाईलुन---फ़ाइ’लातुन
1222--------1222--------2122
ध्यान रहे -- फ़ाइलातुन [2122] अपने ’मुन्फ़सिल शकल में है] यानी फ़ा इ’लातुन [ यानी -ऐन- अपने मुतहर्रिक शकल में है ] यानी [ वतद मफ़रूक़ + सबब-ए-ख़फ़ीफ़+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ की शकल में है ]
जब कि यही रुक्न जब मुतस्सिल शकल मे होती है तो [सब-ए-ख़फ़ीफ़+वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ शकल में होती है]
आप ’वतद’ का लोकेशन देखिए फिर उसी हिसाब से ’इस पर लगने वाले ज़िहाफ़ात’ सोचिए
मुफ़ाईलुन [1222] पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात की चर्चा कर लेते हैं
मुफ़ाईलुन [1222] + कफ़्फ़ = मक्फ़ूफ़ मुफ़ाईलु [1221]--लाम मुतहर्रिक
म्फ़ाईलुन [1222] + ख़र्ब = अख़रब मफ़ऊलु[ 2 2 1] --- लाम --मुतहर्रिक
फ़ाइ’लातुन[2122] पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात
फ़ाइ’लातुन [ 2122] +हज़्फ़ =महज़ूफ़ फ़ाइ’लुन [2 1 2] [नोट -इ’- को आप -ऐन मुतहर्रिक समझे]
फ़ाइ’लातुन [2122] + क़स्र = मक़्सूर फ़ाइ’लान [2 1 2 1] [ ---तदैव-]
चलिए इसके कुछ प्रचलित बह्र /आहंग देख लेते हैं
[1] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस सालिम
मफ़ाईलुन-----मफ़ाईलुन---फ़ाइ’लातुन
1222--------1222--------2122
एक उदाहरण देख लेते हैं
अब्दुल अज़ीज़ साहब का एक शे’र है
वो भी इक दौर था जिसमें ख़ुशदिली से
न की मैने कभी तेरी मेहमानी
तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1 2 2 2 /1 2 2 2 / 2 1 2 2
वो भी इक दौ / र था जिसमें / ख़ुश दिली से
1 2 2 2/ 1 2 2 2 / 2 1 2 2
न की मै ने / कभी तेरी / मेहमानी
[2] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़
मफ़ाईलु-----मफ़ाईलु-----फ़ाइ’लातुन
1 2 2 1-----1 2 2 1-----2 1 2 2
मफ़ाईलुन [1222] का मक्फ़ूफ़ [यानी मफ़ाईलुन[1222] पर ’कफ़’ का ज़िहाफ़] मफ़ाईलु [1221 ]बरामद होता है -यानी -लाम मुतहर्रिक
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं
’सरवर राज़ सरवर के हवाले से
तिरे ग़म में प्यारे निकल गया दिल
शरारे से है फ़ुरक़त के जल गया दिल
तक़्तीअ’ भी देख लेते है
1 2 2 1 / 1 2 2 1/ 2 1 2 2
तिरे ग़म में / प यारे नि /कल गया दिल
1 2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2 2
शरारे से / है फ़ुर क़त के / जल गया दिल
आप देख रहे हैं कि -में---से---के--- को -1- के वज़न पर लिया गया है कारण कि ये सभी मुतहर्रिक हैं और मुतहर्रिक के मुक़ाम पर भी है और बह्र की माँग भी है
[3] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ /मक़्सूर
मफ़ाईलु-----मफ़ाईलु---फ़ाइ’लुन / फ़ाइ’लान
1 2 2 1-----1 2 2 1-----2 1 2 /2 1 2 1
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से--
अजब शख़्स था लब पर थी उस की जान
तड़पता था तेरा नाम ले के वो
अब तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
1 2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2 1
अजब शख़् स / था लब पर थी / उस की जान [मक़्सूर]
1 2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2
त ड़प ता था / तिरा नाम / ले के वो [ महज़ूफ़]
मिसरा ऊला मे ’मक़्सूर’ और मिसरा सानी में ’महज़ूफ़’ लाया जा सकता है।
मगर नामकरण उस ज़िहाफ़ से होगा जो ’मिसरा सानी’ में आता है
यानी इस बह्र का नाम होगा ---क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़"
अगर इस शे’र का यूँ पढ़ें
तड़पता था तेरा नाम ले के वो [ महज़ूफ़]
अजब शख़्स था लब पर थी उस की जान [ मक़्सूर]
तो इस बह्र का नाम होगा ----क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ मक़्सूर--यानी मिसरा सानी के लिहाज़ से।
मगर ग़ज़ल के अश’आर में इन दोनो का ’ख़ल्त जायज़ है- यानी आपस में ’मुतबादिल’ हैं
एक बात और
अगर ऊपर के दो रुक्न मफ़ाईलु 1221] ----मफ़ाईलु [1221] को ध्यान से देखें तो तीन मुतहर्रिक [लाम--मीम--फ़े] एक साथ आ रहे हैं और तख़्नीक़ की अमल से एक बह्र और बरामद हो सकती है
[3-क] मफ़ाईलुन----मफ़ ऊलु -- -फ़ाइ’लुन
1 2 2 2 ---- 2 2 1----------212
आप इस बह्र में कोई शे’र सोच सकते हैं -चाहें तो। अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ाइलुन’ [212 ]की जगह ’फ़ाइलान’[2121] भी लाया जा सकता है।
[4] बह्र-ए-क़रीब मुसद्द्स अख़रब मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर
मफ़ऊलु---मफ़ाईलु---फ़ाइ’लातुन
221----- 1221-------2122
आप जानते हैं कि ’मफ़ऊलु’[221] ----अख़रब है ’मफ़ाईलुन [1222] का
और ’मफ़ाईलु ’[1221] -------मक्फ़ूफ़ है ’मफ़ाईलुन’[1222] का
और दोनों में -लु- मुतहर्रिक है
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं -अब्दुल अज़ीज़’ख़ालिद’ साहब का एक शे’र है
मेरी यही तफ़रीह-ओ-दिल्लगी है
करती ही रहे तेरी इन्तज़ारी
अब तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2 1
मेरी ये /ही तफ़रीह-/ ओ-दिल लगी है
2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2 2
कर ती ही/ रहे तेरी/ इन त ज़ारी
यहाँ तफ़रीह-ओ- इन्तज़ारी में जो -इत्फ़- ओ- है उसका वज़न नहीं लिया गया है । क्यों ? कारण आप जानते होंगे
-------
अगर आप ऊपर के अर्कान के इन्तजाम को ध्यान से देखे तो
मफ़ऊलु--मफ़ाईलु के बीच में क्या है ? कुछ नहीं बस --लाम-- मुतहर्रिक-----मीम मुतहर्रिक---फ़े मुतहर्रिक है यानी तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ तो ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है [नोट--तस्कीन-ए-औसत का अमल नहीं होगा कारण कि तस्कीन-ए-औसत का अमल तब होता है जब ’एक ही रुक्न में ’ -तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ आये] तख़्नीक़ का अमल तब होता है जब ’दो adjacent रुक्न’ में तीन मुतहर्रिक एक साथ आयें और दोनो का अमल ’सालिम’ रुक्न पर कभी नहीं होता-हमेशा ’मुज़ाहिफ़’ रुक्न पर होता है ।
तो ऊपर के दोनो रुक्न तख़्नीक के अमल से दो अलग-अलग मुख़्नीक़ रुक्न बन जायेंगे-----’मफ़ ऊ लुम-और - फ़ाईलु--- जिसे हम इसके हम वज़न मानूस रुक्न ’मफ़ऊलुन---मफ़ऊलु [ यानी 222---221 ] से बदल लेंगे
तब इस बह्र की शकल हो जायेगी
मफ़ऊलुन----मफ़ऊलु---फ़ाइ’लातुन
222---------221------2122
[4-क] बह्र-ए-क़रीब मुसद्द्स अख़रब मक्फ़ूफ़ मुखन्निक़ सालिम अल आख़िर
मफ़ऊलुन----मफ़ऊलु---फ़ाइ’लातुन
222---------221------2122
एक उदाहरण भी देख लेते है --सरवर राज़ सरवर साहब के हवाले से
दुख भुगते इस इश्क़ की बदौलत
मुद्दत तक ना पाई हमने राहत
-नामालूम-
अब इसकी तक़्तीअ भी देख लेते हैं
2 2 2 / 2 2 1 / 2 1 2 2
दुख भुगते / इस इश् क़ / की बदौ लत
2 2 2 / 2 2 1 / 2 1 2 2
मुद्दत तक/ ना पा इ / हम ने राहत
[5] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु-----मफ़ाईलु---फ़ाइ’लुन\फ़ाइ’लान
221---------1221------212\2121
बात साफ़ है -ऊपर दिखाया भी है
मफ़ाईलुन का ’अख़रब’ मुज़ाहिफ़ ----मफ़ऊलु [221] होता है
मफ़ाईलुन का मक्फ़ूफ़ मुज़ाहिफ़----मफ़ाईलु [ 1221] होता है
और
फ़ाइ’लातुन का महज़ूफ़ मुज़ाहिफ़------ फ़ाइ’लुन [212] होता है जब कि
फ़ाइ’लातु का मक़्सूर मुज़ाहिफ़------फ़ाइ’लान [2121] होता है
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं--डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से
आँखों में है अब भी वही समाँ
पहलू में कभी आप थे मेरे
अब तक़्तीअ’ भी कर के देख लेते है
2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2
आँखों में / है अब भी व /ही समाँ
2 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2
पहलू में / कभी आप / थे मि रे
इस बह्र में भी अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर फ़ाइ’लुन की जगह फ़ाइ’लान लाया जा सकता है --ख़ल्त जायज़ है
अच्छा ,एक बात तो रह ही गई
इस बह्र का नाम ’क़रीब’ क्यों रखा गया -मालूम नहीं । मुझे लगता है ,मेरी व्यक्तिगत सोच है कि इसके अर्कान मफ़ाईलुन [1222] और फ़ाइलातुन [2122] -दोनो एक ही दायरे से निकले है और क़रीब भी है वतद के लिहाज़ से
या इस पर ज़िहाफ़ात लगाते लगाते लगभग ’रुबाई’ की बह्र के क़रीब पहुँच जाते हैं--शायद इसी लिए। हो सकता है कि मैं ग़लत भी हूँ । अगर आप लोगों को कही कारण मिल जाये तो ज़रूर बताइएगा--कि मेरे इल्म में भी इज़ाफ़ा हो सके ।
अब मै यह तो नही कह सकता कि बह्र-ए-क़रीब के सारे आहंग की चर्चा मैने कर ली -है -और भी इसके आहंग मुमकिन है और यह आप के फ़न-ए-शायरी पर निर्भर करता है ।
अत: इस बह्र का बयान यहीं ख़त्म करता हूँ
अगले क़िस्त में किसी और बह्र की चर्चा करेंगे
अस्तु
नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
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