उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त -71- [ग़ालिब की एक ग़ज़ल और उसकी बह्र]
मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल है --
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम है मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ! ये माजरा क्या है
मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
काश ! पूछो कि "मुद्दआ क्या है "
-----
-----
मैने माना कि कुछ नहीं ”ग़ालिब’
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
----------------------------
यह ग़ज़ल आप ने ज़रूर सुनी होगी । कई बार सुनी होगी ।कई गायकों ने कई
मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ में गाया है । बड़ी दिलकश ग़ज़ल है ।इतनी दिलकश
और मधुर कि हम इसको सुनने में ही तल्लीन रहते हैं।
मगर
हमने कभी इसकी ’बह्र’ पर ध्यान नहीं दिया कि इसकी बह्र क्या है ? ग़ज़ल ही इतनी मानूस
और मक़्बूल है कि बह्र की कौन सोचे ? वैसे हमारे जैसे श्रोता ,लोगों को ग़ज़ल के दिलकशी
अन्दाज़ से लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं।इसकी तअ’स्सुर में मुब्तिला हो जाते है ।
मगर नहीं ।
आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों को फ़र्क पड़ता है जो आप जैसे अदब-आशना हैं
जो ग़ज़ल से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़र्माते है जो उर्दू शायरी के अरूज़-ओ-बह्र से शौक़ फ़र्माते हैं ।
जी ,यह ग़ज़ल --बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ - की एक मुज़ाहिफ़ शकल है । जिस पर आगे चर्चा करेंगे।
पहले "बहर-ए-ख़फ़ीफ़" की चर्चा कर लेते हैं । ग़ज़ल की बह्र की चर्चा बाद में करेंगे।
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ --उर्दू शायरी की एक मुरक़्क़ब [ मिश्रित ] बह्र है जिसके अर्कान है
फ़ाइलातुन--- मुस तफ़अ’ लुन--फ़ाइलातुन - जिसे हम आप 1-2 की अलामत में
2 1 2 2 ------2 2 1 2-- -2 1 2 2
मुरक़्कब बह्र -वह बह्र होती है जिसमें ’दो या दो से अधिक ’ अर्कान का इस्तेमाल होता है
यहाँ 3-रुक्न का इस्तेमाल किया गया है ।
[नोट - यह 1-2 क़िस्म की अलामत अर्कान की बहुत सही नुमाइन्दगी नहीं करते । यह ready-reckoner जैसा कूछ
है । इस निज़ाम से आप समन्दर के किनारे चन्द ’सीपियाँ ’ तो फ़राहम [ एकत्र ] तो कर लेंगे मगर गहराई से ’गुहर’ नही ला पाएंगे
अगर आप को अरूज़ और अर्कान अगर सही ढंग से और गहराई से समझना है तो फिर फ़ाइलुन--फ़ाइलातुन जैसे अलामत पर आज नही तो कल
आना ही होगा । कारण कि अरूज़ या अर्कान ’आप के लघु-दीर्घ--गुरु -वर्ण पर ’ नहीं
बल्कि -हर्फ़ के हरकात और साकिनात [हर्फ़-ए मुतहर्रिक और हर्फ़-ए-साकिन ] -सबब--वतद -फ़ासिला जैसे अलामात पर चलता है ।
लघु-दीर्घ--गुरु -वर्ण का concept हिन्दी काव्य और संस्कृत के छन्द शास्त्र के लिए ही उचित है । ख़ैर ।
अगर आप ध्यान से देखें तो दूसरा रुक्न ’मुस तफ़अ’-लुन लिखा है । यानी -ऎन-मुतहर्रिक है । यानी -ऎन- पर ज़बर है ।
इसका क्या मतलब ? मतलब है ।
मुसतफ़इलुन - [ 2 2 1 2 ] -रुक्न 2-प्रकार से लिखा जा सकता है
[क] एक मुतस्सिल शकल में [ مستفعلن ] जिसमे तमाम हर्फ़ एक दूसरे के ’सिलसिले ’ से [ मिला कर ] लिखे जा सकते है ।जिसमें मुस -तफ़-इलुन में ’-इलुन’- علن वतद-ए-मज़्मुआ होता है
यानी इलुन [ मुतहर्रिक +मुतहर्रिक + साकिन ] हरूफ़।
तो क्या ? कुछ नही । बस जब आप ज़िहाफ़ का अमल करेंगे इस शकल पर तो वो ज़िहाफ़ लगायेंगे जो ’वतद -ए- मज़्मुआ ’ पर लगता है॥ बस यही बताना था ।
[ख] दूसरी मुन्फ़सिल शक्ल मे [ مس تفع لن ] \जिसमें कुछ हर्फ़ ’फ़ासिला ’ देकर [ फ़र्क़ कर के ] लिखा जा सकता है । इसमें मुस - तफ़अ’ -लुन में "तफ़ अ’ تفع -वतद -ए-मफ़रूक़ है
यानी -एइन- मुतहर्रिक होने के कारण । यानी - तफ़अ’ [ मुतहर्रिक+साकिन+मुतहर्रिक ]
जबकि दोनो की तलफ़्फ़ुज़ और दोनों का वज़न एक ही होता है -बस इमला [लिखने ] का फ़र्क है ।
तो क्या ? कुछ नही । बस जब आप ज़िहाफ़ का अमल करेंगे इस शकल पर तो वो ज़िहाफ़ लगायेंगे जो ’वतद -ए- मफ़रुक़ ’ पर लगता है ।बस यही बताना था ।
अर्थात दोनों शकलों पर लगने वाले ज़िहाफ़ अलग अलग होते हैं ।
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ एक मुरक़्क़ब [मिश्रित ] बह्र है । क्योंकि इसमें 3- रुक्न [ फ़ाइलातुन--- मुस तफ़ इलुन--फ़ाइलातुन ] का
इस्तेमाल होता है
मुरक़्कब बह्र---वो बह्र जो ’दो या दो से अधिक ’ सालिम रुक्न से मिल कर बनता है ।
उर्दू शायरी में यह बह्र ’मुसद्दस शकल ’ [ यानी एक मिसरा में 3-रुक्न ] में ही इस्तेमाल हुई है ।और वह भी " मुज़ाहिफ़ शकल’ में ।
यानी हर किसी न किसी रुक्न पर कोई न कोई ज़िहाफ़ लगा हुआ है ।
वैसे तो शायरों ने इसके मूल अर्कान [ फ़ाइलातुन--- मुस तफ़ इलुन--फ़ाइलातुन ] में शायरी तो नही जब कि की जा सकती थी
लेकिन रवायतन ’मुसद्दस’ में ही शायरी की । गो कि कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब ने अपनी किताब -"आहंग और अरूज़ " में इसकी ’मुसम्मन शकल ’
भी तज़वीज की है --मगर बात कुछ आगे न बढ़ सकी । ख़ैर ।
ज़िहाफ़ लगे हुए रुक्न को -मुज़ाहिफ़ रुक्न’ कहते है । जैसे
अगर सालिम रुक्न फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ] पर ’ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगा हो तो बरामद रुक्न को मुज़ाहिफ़ रुक्न ’मख़्बून ’ फ़ इ ला तुन ’ [ 1 1 2 2 ] कहेंगे
।यह एक ’आम ज़िहाफ़’ है जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है ।
अगर सालिम रुक्न पर ’ख़ब्न और हज़्फ़ " का ज़िहाफ़ एक साथ लगाया जाए तो मज़ाहिफ़ रुक्न ’मख़्बून महज़ूफ़ ’ ’फ़े अ’लुन [ 1 1 2 ] [فعلن ] बरामद होगा।
अगर सालिम रुक्न मुस तफ़अ’ लुन [ 2 212 ] पर ’ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो ’मफ़ा इ’लुन [ 12 1 2 ] बरामद होगा
इस प्रकार बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मूल अर्कान पर अगर ये ज़िहाफ़ लगाए जाए तो निम्न दो औज़ान बरामद हो सकते हैं
[1] फ़ाइलातुन----मफ़ाइलुन-- फ़े अ’लुन
2 1 22 ----1 2 1 2 ---1 1 2
[2] फ़इलातुन ----मफ़ाइलुन---फ़े अ’लुन
1122 ------1 2 1 2 ----1 1 2
यानी सदर/ इब्तिदा के मुक़ाम पर -फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ] की जगह 1 1 2 2 [ फ़इलातुन ] लाया जा सकता है ।
1 1 2 [ फ़े अ’लुन] पर अगर तस्कीन-ए-औसत के अमल से [ फ़अ’ लुन ] 2 2 लाया जा सकता है
उसी प्रकार 1 1 2 [ फ़े अ’लुन ] की जगह 1 1 2 1 [ फ़’इलान ] भी लाया जा सकता है
और उसी प्रकार 22 [ फ़अ’ लुन ] की जगह फ़अ’ लान [ 2 2 1 ] भी लाया जा सकता है
कहने का मतलब यह है कि अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर 112/ 1121/ 2 2/ 2 21 / में से कोई एक लाया जा सकता है । इजाज़त है ।
इस एक बहर के 8- मुज़ाहिफ़ शकल 8-variants बरामद हो सकते हैं । यानी शायर के पास 8-आप्शन दस्तयाब है अपनी बात
कहने के लिए।
यही कारण है कि "बहर-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ " बहुत ही मानूस और मक़्बूल [ लोकप्रिय ] बह्र है
और अमूमन हर शायर ने इस बहर में अपनी शायरी की है ।
------------------
अब ग़ालिब की दर्ज-ए-बाला [ ऊपर लिखित ] ग़ज़ल पर आते है
"दिल--ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है " की बहर का नाम है
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून मुज़ाहिफ़ यानी
फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन---फ़ेअ’ लुन
2122----1212-----22-
और इस पर ऊपर लिखे हुए ’विकल्प’ का अमल भी हो सकता है ।
किसी ग़ज़ल या शे’र का बह्र जाँचने का सबसे सही तरीक़ा ’तक़्तीअ’ करना होता है
ग़ालिब के इस ग़ज़ल के मतला की तक़्तीअ’ मैं कर देता हूँ बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के मुतमुईन हो लें कि क्या सही
है और क्या ग़लत ?
1 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2
दिल-ए-नादाँ/ तुझे हुआ/ क्या है
[ नोट -दिल-ए-नादाँ -में कसरा-ए-इज़ाफ़त के कारण -दिल का लाम ’मुतहर्रिक’ सा आवाज़ देगा । जिसकी चर्चा
मैं ’कसरा-ए-इज़ाफ़त वाले मज़्मून में पहले ही कर चुका हूँ । अत: ’लाम’ का मुक़ाम बह्र के ऐन मुतहर्रिक मुक़ाम पर है जो सही भी है ।
मतलब दिले-नादाँ में ’लाम - खींच कर नहीं पढ़ना है }ध्यान रहे ।
2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2
आ ख़ि रिस दर / द की दवा /क्या है
[नोट- जुमला ’ आखिर इस ’ में अलिफ़ का वस्ल -र-के साथ हो गया है अत: आप को आ खि रिस [ 2 1 2 --] की आवाज़ सुनाई देगी
तक़्तीअ’ भी इसी हिसाब से की जायेगी ।
देखा आप ने ? मतला के मिसरा उला में 1122 और सानी में 2122 लाया गया है और जो अरूज़ के ऐन मुताबिक़ भी है ।
आप और अश’आर की तक़्तीअ’ खुद करें तो इस मज़्मून की सारी बातें साफ़ हो जायेंगी और आप का आत्म-विश्वास भी बढ़ेगा ।
[ बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के बारे में मज़ीद जानकारी के लिये इसी ब्लाग पर कॄपया क़िस्त -57 देखें ]
असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता [हाथ जोड़ कर ] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी
निशानदिही फ़र्माये जिस से मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ
सादर
-आनन्द.पाठक-
मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल है --
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम है मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ! ये माजरा क्या है
मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
काश ! पूछो कि "मुद्दआ क्या है "
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मैने माना कि कुछ नहीं ”ग़ालिब’
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
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यह ग़ज़ल आप ने ज़रूर सुनी होगी । कई बार सुनी होगी ।कई गायकों ने कई
मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ में गाया है । बड़ी दिलकश ग़ज़ल है ।इतनी दिलकश
और मधुर कि हम इसको सुनने में ही तल्लीन रहते हैं।
मगर
हमने कभी इसकी ’बह्र’ पर ध्यान नहीं दिया कि इसकी बह्र क्या है ? ग़ज़ल ही इतनी मानूस
और मक़्बूल है कि बह्र की कौन सोचे ? वैसे हमारे जैसे श्रोता ,लोगों को ग़ज़ल के दिलकशी
अन्दाज़ से लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं।इसकी तअ’स्सुर में मुब्तिला हो जाते है ।
मगर नहीं ।
आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों को फ़र्क पड़ता है जो आप जैसे अदब-आशना हैं
जो ग़ज़ल से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़र्माते है जो उर्दू शायरी के अरूज़-ओ-बह्र से शौक़ फ़र्माते हैं ।
जी ,यह ग़ज़ल --बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ - की एक मुज़ाहिफ़ शकल है । जिस पर आगे चर्चा करेंगे।
पहले "बहर-ए-ख़फ़ीफ़" की चर्चा कर लेते हैं । ग़ज़ल की बह्र की चर्चा बाद में करेंगे।
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ --उर्दू शायरी की एक मुरक़्क़ब [ मिश्रित ] बह्र है जिसके अर्कान है
फ़ाइलातुन--- मुस तफ़अ’ लुन--फ़ाइलातुन - जिसे हम आप 1-2 की अलामत में
2 1 2 2 ------2 2 1 2-- -2 1 2 2
मुरक़्कब बह्र -वह बह्र होती है जिसमें ’दो या दो से अधिक ’ अर्कान का इस्तेमाल होता है
यहाँ 3-रुक्न का इस्तेमाल किया गया है ।
[नोट - यह 1-2 क़िस्म की अलामत अर्कान की बहुत सही नुमाइन्दगी नहीं करते । यह ready-reckoner जैसा कूछ
है । इस निज़ाम से आप समन्दर के किनारे चन्द ’सीपियाँ ’ तो फ़राहम [ एकत्र ] तो कर लेंगे मगर गहराई से ’गुहर’ नही ला पाएंगे
अगर आप को अरूज़ और अर्कान अगर सही ढंग से और गहराई से समझना है तो फिर फ़ाइलुन--फ़ाइलातुन जैसे अलामत पर आज नही तो कल
आना ही होगा । कारण कि अरूज़ या अर्कान ’आप के लघु-दीर्घ--गुरु -वर्ण पर ’ नहीं
बल्कि -हर्फ़ के हरकात और साकिनात [हर्फ़-ए मुतहर्रिक और हर्फ़-ए-साकिन ] -सबब--वतद -फ़ासिला जैसे अलामात पर चलता है ।
लघु-दीर्घ--गुरु -वर्ण का concept हिन्दी काव्य और संस्कृत के छन्द शास्त्र के लिए ही उचित है । ख़ैर ।
अगर आप ध्यान से देखें तो दूसरा रुक्न ’मुस तफ़अ’-लुन लिखा है । यानी -ऎन-मुतहर्रिक है । यानी -ऎन- पर ज़बर है ।
इसका क्या मतलब ? मतलब है ।
मुसतफ़इलुन - [ 2 2 1 2 ] -रुक्न 2-प्रकार से लिखा जा सकता है
[क] एक मुतस्सिल शकल में [ مستفعلن ] जिसमे तमाम हर्फ़ एक दूसरे के ’सिलसिले ’ से [ मिला कर ] लिखे जा सकते है ।जिसमें मुस -तफ़-इलुन में ’-इलुन’- علن वतद-ए-मज़्मुआ होता है
यानी इलुन [ मुतहर्रिक +मुतहर्रिक + साकिन ] हरूफ़।
तो क्या ? कुछ नही । बस जब आप ज़िहाफ़ का अमल करेंगे इस शकल पर तो वो ज़िहाफ़ लगायेंगे जो ’वतद -ए- मज़्मुआ ’ पर लगता है॥ बस यही बताना था ।
[ख] दूसरी मुन्फ़सिल शक्ल मे [ مس تفع لن ] \जिसमें कुछ हर्फ़ ’फ़ासिला ’ देकर [ फ़र्क़ कर के ] लिखा जा सकता है । इसमें मुस - तफ़अ’ -लुन में "तफ़ अ’ تفع -वतद -ए-मफ़रूक़ है
यानी -एइन- मुतहर्रिक होने के कारण । यानी - तफ़अ’ [ मुतहर्रिक+साकिन+मुतहर्रिक ]
जबकि दोनो की तलफ़्फ़ुज़ और दोनों का वज़न एक ही होता है -बस इमला [लिखने ] का फ़र्क है ।
तो क्या ? कुछ नही । बस जब आप ज़िहाफ़ का अमल करेंगे इस शकल पर तो वो ज़िहाफ़ लगायेंगे जो ’वतद -ए- मफ़रुक़ ’ पर लगता है ।बस यही बताना था ।
अर्थात दोनों शकलों पर लगने वाले ज़िहाफ़ अलग अलग होते हैं ।
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ एक मुरक़्क़ब [मिश्रित ] बह्र है । क्योंकि इसमें 3- रुक्न [ फ़ाइलातुन--- मुस तफ़ इलुन--फ़ाइलातुन ] का
इस्तेमाल होता है
मुरक़्कब बह्र---वो बह्र जो ’दो या दो से अधिक ’ सालिम रुक्न से मिल कर बनता है ।
उर्दू शायरी में यह बह्र ’मुसद्दस शकल ’ [ यानी एक मिसरा में 3-रुक्न ] में ही इस्तेमाल हुई है ।और वह भी " मुज़ाहिफ़ शकल’ में ।
यानी हर किसी न किसी रुक्न पर कोई न कोई ज़िहाफ़ लगा हुआ है ।
वैसे तो शायरों ने इसके मूल अर्कान [ फ़ाइलातुन--- मुस तफ़ इलुन--फ़ाइलातुन ] में शायरी तो नही जब कि की जा सकती थी
लेकिन रवायतन ’मुसद्दस’ में ही शायरी की । गो कि कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब ने अपनी किताब -"आहंग और अरूज़ " में इसकी ’मुसम्मन शकल ’
भी तज़वीज की है --मगर बात कुछ आगे न बढ़ सकी । ख़ैर ।
ज़िहाफ़ लगे हुए रुक्न को -मुज़ाहिफ़ रुक्न’ कहते है । जैसे
अगर सालिम रुक्न फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ] पर ’ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगा हो तो बरामद रुक्न को मुज़ाहिफ़ रुक्न ’मख़्बून ’ फ़ इ ला तुन ’ [ 1 1 2 2 ] कहेंगे
।यह एक ’आम ज़िहाफ़’ है जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है ।
अगर सालिम रुक्न पर ’ख़ब्न और हज़्फ़ " का ज़िहाफ़ एक साथ लगाया जाए तो मज़ाहिफ़ रुक्न ’मख़्बून महज़ूफ़ ’ ’फ़े अ’लुन [ 1 1 2 ] [فعلن ] बरामद होगा।
अगर सालिम रुक्न मुस तफ़अ’ लुन [ 2 212 ] पर ’ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो ’मफ़ा इ’लुन [ 12 1 2 ] बरामद होगा
इस प्रकार बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मूल अर्कान पर अगर ये ज़िहाफ़ लगाए जाए तो निम्न दो औज़ान बरामद हो सकते हैं
[1] फ़ाइलातुन----मफ़ाइलुन-- फ़े अ’लुन
2 1 22 ----1 2 1 2 ---1 1 2
[2] फ़इलातुन ----मफ़ाइलुन---फ़े अ’लुन
1122 ------1 2 1 2 ----1 1 2
यानी सदर/ इब्तिदा के मुक़ाम पर -फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ] की जगह 1 1 2 2 [ फ़इलातुन ] लाया जा सकता है ।
1 1 2 [ फ़े अ’लुन] पर अगर तस्कीन-ए-औसत के अमल से [ फ़अ’ लुन ] 2 2 लाया जा सकता है
उसी प्रकार 1 1 2 [ फ़े अ’लुन ] की जगह 1 1 2 1 [ फ़’इलान ] भी लाया जा सकता है
और उसी प्रकार 22 [ फ़अ’ लुन ] की जगह फ़अ’ लान [ 2 2 1 ] भी लाया जा सकता है
कहने का मतलब यह है कि अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर 112/ 1121/ 2 2/ 2 21 / में से कोई एक लाया जा सकता है । इजाज़त है ।
इस एक बहर के 8- मुज़ाहिफ़ शकल 8-variants बरामद हो सकते हैं । यानी शायर के पास 8-आप्शन दस्तयाब है अपनी बात
कहने के लिए।
यही कारण है कि "बहर-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ " बहुत ही मानूस और मक़्बूल [ लोकप्रिय ] बह्र है
और अमूमन हर शायर ने इस बहर में अपनी शायरी की है ।
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अब ग़ालिब की दर्ज-ए-बाला [ ऊपर लिखित ] ग़ज़ल पर आते है
"दिल--ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है " की बहर का नाम है
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून मुज़ाहिफ़ यानी
फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन---फ़ेअ’ लुन
2122----1212-----22-
और इस पर ऊपर लिखे हुए ’विकल्प’ का अमल भी हो सकता है ।
किसी ग़ज़ल या शे’र का बह्र जाँचने का सबसे सही तरीक़ा ’तक़्तीअ’ करना होता है
ग़ालिब के इस ग़ज़ल के मतला की तक़्तीअ’ मैं कर देता हूँ बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के मुतमुईन हो लें कि क्या सही
है और क्या ग़लत ?
1 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2
दिल-ए-नादाँ/ तुझे हुआ/ क्या है
[ नोट -दिल-ए-नादाँ -में कसरा-ए-इज़ाफ़त के कारण -दिल का लाम ’मुतहर्रिक’ सा आवाज़ देगा । जिसकी चर्चा
मैं ’कसरा-ए-इज़ाफ़त वाले मज़्मून में पहले ही कर चुका हूँ । अत: ’लाम’ का मुक़ाम बह्र के ऐन मुतहर्रिक मुक़ाम पर है जो सही भी है ।
मतलब दिले-नादाँ में ’लाम - खींच कर नहीं पढ़ना है }ध्यान रहे ।
2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2
आ ख़ि रिस दर / द की दवा /क्या है
[नोट- जुमला ’ आखिर इस ’ में अलिफ़ का वस्ल -र-के साथ हो गया है अत: आप को आ खि रिस [ 2 1 2 --] की आवाज़ सुनाई देगी
तक़्तीअ’ भी इसी हिसाब से की जायेगी ।
देखा आप ने ? मतला के मिसरा उला में 1122 और सानी में 2122 लाया गया है और जो अरूज़ के ऐन मुताबिक़ भी है ।
आप और अश’आर की तक़्तीअ’ खुद करें तो इस मज़्मून की सारी बातें साफ़ हो जायेंगी और आप का आत्म-विश्वास भी बढ़ेगा ।
[ बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के बारे में मज़ीद जानकारी के लिये इसी ब्लाग पर कॄपया क़िस्त -57 देखें ]
असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता [हाथ जोड़ कर ] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी
निशानदिही फ़र्माये जिस से मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ
सादर
-आनन्द.पाठक-
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