उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 72 [ अपनी एक ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ ]
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कुछ दिन पहले किसी मंच पर मैने अपनी एक ग़ज़ल पोस्ट की थी
ग़ज़ल : एक समन्दर ,मेरे अन्दर...
एक समन्दर , मेरे अन्दर
शोर-ए-तलातुम बाहर भीतर 1
एक तेरा ग़म पहले से ही
और ज़माने का ग़म उस पर 2
तेरे होने का भी तसव्वुर
तेरे होने से है बरतर 3
चाहे जितना दूर रहूँ मैं
यादें आती रहतीं अकसर 4
एक अगन सुलगी रहती है
वस्ल-ए-सनम की, दिल के अन्दर 5
प्यास अधूरी हर इन्सां की
प्यासा रहता है जीवन भर 6
मुझको ही अब जाना होगा
वो तो रहा आने से ज़मीं पर 7
सोन चिरैया उड़ जायेगी
रह जायेगी खाक बदन पर 8
सबके अपने अपने ग़म हैं
सब से मिलना’आनन’ हँस कर 9
----------------
जिस पर कुछ सदस्यों ने उत्साह वर्धन किया था ।
और कुछ मित्रों ने इसकी बह्र जाननी चाही ।
उन सभी सदस्यों का बहुत बहुत धन्यवाद।
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है
-------------------------------
वैसे इस ग़ज़ल की
मूल बह्र है --[ बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर ]
अर्कान हैं ----फ़अ’ लु--- फ़ऊलु--फ़ऊलु---फ़ऊलुन
अलामत है 21-- 121-- 121- -122
जिस पर आगे चर्चा करेंगे अभी
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है
---------------------------------------
इस ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ पर आएँ ,उसके पहले कुछ अरूज़ पर कुछ
बुनियादी बातें कर लेते है ।
1- बह्र-ए-मुतक़ारिब कहने से हम लोगों के ज़ेहन में -मुतक़ारिब की 2-4 ख़ास बहरें ही उभर आती है जिसमे अमूमन
हम आप शायरी करते है । जैसे - मुसम्मन सालिम ,मुसद्दस सालिम या फिर इसकी कुछ महज़ूफ़ या मक्सूर शकल की ग़ज़लें
या ज़्यादा से ज़्यादा मुरब्ब: की कुछ शकलें
2- इन के अलावा भी और भी बहुत सी बहूर है मुतक़ारिब के जिसमें बहु्त कम शायरी की गई है या की जाती है । ऊपर लिखी
बह्र भी इसी में से एक बह्र है।
3- अगर कोई बह्र अरूज़ के उसूल के ऐन मुताबिक़ हो और अरूज़ के किसी कानून, उसूल या क़ायदा की कोई खिलाफ़वर्जी
न करती हो -तो वह बह्र इस बिना पर रद्द या ख़ारिज़ नहीं की जा सकती कि इसका उल्लेख अरूज़ की कई किताबों में नहीं किया गया है ।या शायरों नें
इस बह्र में तबाज़्माई नहीं की है ।
4- वैसे तो बहर-ए-वफ़ीर में भी बहुत कम या लगभग ’न’ के बराबर शायरी की कई है तो क्या अरूज़ की किताबों से बह्र-ए-वाफ़िर को रद्द या ख़ारिज़
कर देना चाहिए ?
5- यह अरूज़ और बह्र की नहीं ,यह हमारी सीमाएँ हैं हमारी कोताही है कि हम ऐसे बह्र में शायरी नहीं करते ।बहूर तो बह्र-ए-बेकराँ है ।
6- कुछ मित्रों ने इसे बह्र-ए-मीर से भी जोड़ने की कोशिश की । मज़्कूरा बह्र " बह्र-ए-मीर" भी नहीं है । जो सदस्य बह्र-ए-मीर के बारे में मज़ीद मालूमात चाहते
हैं वो मेरे ब्लाग पर " उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 59 [ बह्र-ए-मीर ] देख सकते हैं । वहाँ तफ़्सील से लिखा गया है ।
7- मैने इस ग़ज़ल में कहीं नही कहा कि इसकी बह्र" ---’ यह है । ध्यान से देखें तो मैने ’’मूल" बह्र है -----" लिखा है जिसका अर्थ होता है कि इस "मूल’ बह्र से और भी
मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते है जो मिसरा में एक दूसरे के बदले लाए जा सकते हैं । अरूज़ में और शायरी में इस की इजाज़त है ।
इन ’मुतबादिल औज़ान ’ और बह्र की चर्चा और ग़ज़ल की तक़्तीअ आगे करेंगे ।
8- यह यह एक " ग़ैर मुरद्दफ़" ग़ज़ल [ यानी वह ग़ज़ल जिसमें रदीफ़ नहीं होता ] है
अब ग़ज़ल की बह्र पर आते हैं
1- मैने मूल बह्र में ही इशारा कर दिया था कि इस बह्र का आख़िरी रुक्न सालिम [फ़ऊलुन 1 2 2 ] है । अत: यह मुतक़ारिब की ही कोई बह्र होगी।
2- आप बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम से ज़रूर परिचित होंगे --
फ़ऊलुन---फ़ऊलुन --फ़ऊलुन--फ़ऊलुन
यानी 1 2 2---1 2 2----1 2 2 2---1 2 2
--A---------B---------C_--------D
अब इन्हीं अर्कान [तफ़ाईल] पर मुनासिब ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं क्या होता है ।
अगर A=फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] पर ’सरम’ का ज़िहाफ़ लगाएँ तो जो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगी उसका नाम ’असरम’ होगा और यह सदर और इब्तिदा
के मुक़ाम पर लाया जा सकता है
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ]+ सरम = असरम ’ फ़ अ’ लु ’ [ 2 1 ] बरामद होगा । -ऐन -साकिन -लु- मुतहर्रिक [1] है यहाँ
अगर B= फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] पर ’कब्ज़’ का ज़िहाफ़ लगाया जाय तो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगा उसका नाम होगा ’मक़्बूज़’
और यह आम ज़िहाफ़ है और ’हस्व’ के मुक़ाम पर लाया जा सकता है ।
फ़ऊलुन [1 2 2 ] + कब्ज़ = मक़्बूज़ "फ़ ऊ लु " [ 1 2 1 ]बरामद होगा / -लाम - [1] मुतहर्रिक है
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] तो ख़ैर फ़ऊलुन ही है । सालिम रुक्न है ।
तो अब मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम [ 122---122---122---122 ] की मुज़ाहिफ़ शकल
यूँ हो जायेगी
फ़ अ’ लु ’ ----फ़ ऊ लु -----फ़ ऊ लु ----फ़ऊलुन
21-----------1 2 1 --------1 2 1 -------1 2 2
A B C D
इसी बह्र को मैने "मूल बह्र’ कहा है
अब इस ’मूल बह्र ’ से हम आगे बढ़ते है --तख़्नीक- के अमल से
आप जानते हैं कि ’तख़्नीक’ का अमल सिर्फ़ ’मुज़ाहिफ़ रुक्न ’ पर ही लगता है । सालिम रुक्न पर कभी नहीं करता ।
तो ऊपर जो ’मुज़ाहिफ़ ’ रुक्न हासिल हुआ है उस पर अमल हो सकता है [ मात्र आखिरी रुक्न को छोड़ कर जो एक सालिम रुक्न है ]
यहाँ ’तख़नीक़’ के अमल की थोड़ी -सी चर्चा कर लेते है।
अगर किसी दो-पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न [ adjacent rukn ] में ’तीन’ मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ ’ आ जायें तो "बीच वाला ’ हर्फ़ साकिन हो जायेगा
हमारे केस में ’तीन मुतहर्रिक हर्फ़ " -दो-पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न [ adjacent rukn ] में आ गए हैं तो तख़नीक़ का अमल होगा ।
-फ़े- लाम -और -ऐन-
अगर यह अमल आप A--B---C---D पर ONE-by-ONE लगाएँगे तो आप को कई मुतबादिल औज़ान बरामद होंगे। आप ख़ुद कर के देख लें ।
मश्क़ की मश्क़ हो जायेगी और आत्मविश्वास भी बढ़ जायेगा ।
कुछ मुतबादिल औज़ान नीचे लिख दे रहा हूँ ---
E 21---122---22--22
F 22---22----21-122
G 21---122----22--22
H 21--122---21---122
J 22---22--22---22-
इस अमल से एक वज़न यह भी बरामद होगा --जो मैने मतला के दोनो मिसरा में इस्तेमाल किया है ।और यह वज़न अरूज़ के ऎन क़वानीन के मुताबिक़ है
और अरूज़ के किसी क़ाईद की ख़िलाफ़वर्ज़ी भी नहीं किया मैने ।
अच्छा । आप इस अरूज़ी तवालत से बचना चाह्ते हैं तो A--B--C--D वाले रुक्न में एक आसान रास्ता भी है ।
आप 1+1 =2 कर दीजिए तो भी काम चल जायेगा । बहुत से मित्र प्राय: यह पूछते रह्तें हैं कि क्या हम 1+1= 2 मान सकते है ।
हाँ बस इस विशेष मुक़ाम पर मान सकते हैं । और किसी जगह नहीं । । यह रास्ता बहुत दूर तक नहीं जाता।बस यहीं तक जाता है ।
क्यों?
क्योंकि जब आप 1+1 को दो मानना शुरु कर देंगे तो
कामिल की बह्र का बुनियादी रुक्न है ’मु त फ़ाइलुन 1 1 2 1 2 ] तो 2 2 1 2 हो जायेगा यानी ’मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2 ] हो जायेगा जो बह्र-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न है
यह तो फिर ग़लत हो जायेगा।
वैसे ही
वाफिर की बह्र का बुनियादी रुक्न है ’मुफ़ा इ ल तुन [ 1 2 1 1 2 ] तो 12 2 2 हो जायेगा यानी ’मफ़ाईलुन [ 1 2 2 2 ]’ जो बह्र-ए-हज़ज ’ का बुनियादी रुक्न है ।
यह तो फिर ग़लत हो जायेगा।
इसीलिए कहता हूँ कि 1+1 = 2 हर मुक़ाम पर नहीं होता ।
अब अपनी ग़ज़ल की तक़्तीअ’ कर के देखते है कि यह बह्र में है या बह्र से ख़ारिज़ है "
21-- -/-122-- / 2 2 / 2 2 = E
एक / स मन दर / मेरे /अन दर
21-----/1 2 2 / 2 2 / 2 2 = =E
शोर-ए-तलातुम बाहर / भीतर 1 = शोर-ए-तलातुम में कसरा-ए-इज़ाफ़त से शोर का -र- मुतहर्रिक हो जायेगा। और -र- खींच कर [इस्बाअ’] नहीं पढ़ना है
21---/ 1 2 2 / 2 2 / 2 2 =E
एक/ तिरा ग़म / पहले / से ही
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 =E
और /ज़माने /का ग़म /उस पर 2
22 / 22 / 2 1 / 1 2 2 =F
तेरे / होने /का भी /तसव्वुर
2 2 / 2 2 / 2 2 / 2 2 =J
तेरे /होने / से है / बरतर 3
2 2 / 2 2 / 21 / 1 2 2 =F
चाहे /जितना /दूर /रहूँ मैं
22 / 22 / 2 2 / 2 2 =J
यादें /आती /रहतीं /अकसर 4
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 =E
एक /अगन सुल/गी रह/ती है
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 =E
वस्ल-ए-सनम की, दिल के / अन्दर 5
21 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 = E
प्यास /अधूरी /हर इन्/साँ की
2 2 / 2 2 / 2 2/ 2 2 =J
प्यासा /रहता /है जी /वन भर 6
2 2 / 2 2 / 2 2 / 2 2 =J
मुझको /ही अब /जाना /होगा
2 1 / 1 2 2 / 2 1 / 1 2 2 =H
वो तो / रहा आ / ने से ज़मीं पर 7
2 1 / 122 / 2 2 / 2 2 =G
सोन /चिरैया /उड़ जा/ येगी
2 2 / 2 2 / 2 1 / 1 2 2 =F
रह जा/येगी /खाक /बदन पर 8
2 2 / 2 2/ 2 2 / 2 2 =J
सब के /अप ने /अप ने /ग़म हैं
2 2 / 2 2 / 2 2 / 2 2 =J
सब से/ मिलना’/आनन’/ हँस कर 9
उमीद करता हूँ कि मैं अपनी बात कुछ हद तक साफ़ कर सका हूँ ।
नोट - इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है अगर कहीं कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी
निशानदिही फ़र्मा दें जिस से यह हक़ीर आइन्दा खुद को दुरुस्त कर सके ।
सादर
-आनन्द.पाठक -
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कुछ दिन पहले किसी मंच पर मैने अपनी एक ग़ज़ल पोस्ट की थी
ग़ज़ल : एक समन्दर ,मेरे अन्दर...
एक समन्दर , मेरे अन्दर
शोर-ए-तलातुम बाहर भीतर 1
एक तेरा ग़म पहले से ही
और ज़माने का ग़म उस पर 2
तेरे होने का भी तसव्वुर
तेरे होने से है बरतर 3
चाहे जितना दूर रहूँ मैं
यादें आती रहतीं अकसर 4
एक अगन सुलगी रहती है
वस्ल-ए-सनम की, दिल के अन्दर 5
प्यास अधूरी हर इन्सां की
प्यासा रहता है जीवन भर 6
मुझको ही अब जाना होगा
वो तो रहा आने से ज़मीं पर 7
सोन चिरैया उड़ जायेगी
रह जायेगी खाक बदन पर 8
सबके अपने अपने ग़म हैं
सब से मिलना’आनन’ हँस कर 9
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जिस पर कुछ सदस्यों ने उत्साह वर्धन किया था ।
और कुछ मित्रों ने इसकी बह्र जाननी चाही ।
उन सभी सदस्यों का बहुत बहुत धन्यवाद।
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है
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वैसे इस ग़ज़ल की
मूल बह्र है --[ बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर ]
अर्कान हैं ----फ़अ’ लु--- फ़ऊलु--फ़ऊलु---फ़ऊलुन
अलामत है 21-- 121-- 121- -122
जिस पर आगे चर्चा करेंगे अभी
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है
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इस ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ पर आएँ ,उसके पहले कुछ अरूज़ पर कुछ
बुनियादी बातें कर लेते है ।
1- बह्र-ए-मुतक़ारिब कहने से हम लोगों के ज़ेहन में -मुतक़ारिब की 2-4 ख़ास बहरें ही उभर आती है जिसमे अमूमन
हम आप शायरी करते है । जैसे - मुसम्मन सालिम ,मुसद्दस सालिम या फिर इसकी कुछ महज़ूफ़ या मक्सूर शकल की ग़ज़लें
या ज़्यादा से ज़्यादा मुरब्ब: की कुछ शकलें
2- इन के अलावा भी और भी बहुत सी बहूर है मुतक़ारिब के जिसमें बहु्त कम शायरी की गई है या की जाती है । ऊपर लिखी
बह्र भी इसी में से एक बह्र है।
3- अगर कोई बह्र अरूज़ के उसूल के ऐन मुताबिक़ हो और अरूज़ के किसी कानून, उसूल या क़ायदा की कोई खिलाफ़वर्जी
न करती हो -तो वह बह्र इस बिना पर रद्द या ख़ारिज़ नहीं की जा सकती कि इसका उल्लेख अरूज़ की कई किताबों में नहीं किया गया है ।या शायरों नें
इस बह्र में तबाज़्माई नहीं की है ।
4- वैसे तो बहर-ए-वफ़ीर में भी बहुत कम या लगभग ’न’ के बराबर शायरी की कई है तो क्या अरूज़ की किताबों से बह्र-ए-वाफ़िर को रद्द या ख़ारिज़
कर देना चाहिए ?
5- यह अरूज़ और बह्र की नहीं ,यह हमारी सीमाएँ हैं हमारी कोताही है कि हम ऐसे बह्र में शायरी नहीं करते ।बहूर तो बह्र-ए-बेकराँ है ।
6- कुछ मित्रों ने इसे बह्र-ए-मीर से भी जोड़ने की कोशिश की । मज़्कूरा बह्र " बह्र-ए-मीर" भी नहीं है । जो सदस्य बह्र-ए-मीर के बारे में मज़ीद मालूमात चाहते
हैं वो मेरे ब्लाग पर " उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 59 [ बह्र-ए-मीर ] देख सकते हैं । वहाँ तफ़्सील से लिखा गया है ।
7- मैने इस ग़ज़ल में कहीं नही कहा कि इसकी बह्र" ---’ यह है । ध्यान से देखें तो मैने ’’मूल" बह्र है -----" लिखा है जिसका अर्थ होता है कि इस "मूल’ बह्र से और भी
मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते है जो मिसरा में एक दूसरे के बदले लाए जा सकते हैं । अरूज़ में और शायरी में इस की इजाज़त है ।
इन ’मुतबादिल औज़ान ’ और बह्र की चर्चा और ग़ज़ल की तक़्तीअ आगे करेंगे ।
8- यह यह एक " ग़ैर मुरद्दफ़" ग़ज़ल [ यानी वह ग़ज़ल जिसमें रदीफ़ नहीं होता ] है
अब ग़ज़ल की बह्र पर आते हैं
1- मैने मूल बह्र में ही इशारा कर दिया था कि इस बह्र का आख़िरी रुक्न सालिम [फ़ऊलुन 1 2 2 ] है । अत: यह मुतक़ारिब की ही कोई बह्र होगी।
2- आप बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम से ज़रूर परिचित होंगे --
फ़ऊलुन---फ़ऊलुन --फ़ऊलुन--फ़ऊलुन
यानी 1 2 2---1 2 2----1 2 2 2---1 2 2
--A---------B---------C_--------D
अब इन्हीं अर्कान [तफ़ाईल] पर मुनासिब ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं क्या होता है ।
अगर A=फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] पर ’सरम’ का ज़िहाफ़ लगाएँ तो जो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगी उसका नाम ’असरम’ होगा और यह सदर और इब्तिदा
के मुक़ाम पर लाया जा सकता है
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ]+ सरम = असरम ’ फ़ अ’ लु ’ [ 2 1 ] बरामद होगा । -ऐन -साकिन -लु- मुतहर्रिक [1] है यहाँ
अगर B= फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] पर ’कब्ज़’ का ज़िहाफ़ लगाया जाय तो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगा उसका नाम होगा ’मक़्बूज़’
और यह आम ज़िहाफ़ है और ’हस्व’ के मुक़ाम पर लाया जा सकता है ।
फ़ऊलुन [1 2 2 ] + कब्ज़ = मक़्बूज़ "फ़ ऊ लु " [ 1 2 1 ]बरामद होगा / -लाम - [1] मुतहर्रिक है
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] तो ख़ैर फ़ऊलुन ही है । सालिम रुक्न है ।
तो अब मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम [ 122---122---122---122 ] की मुज़ाहिफ़ शकल
यूँ हो जायेगी
फ़ अ’ लु ’ ----फ़ ऊ लु -----फ़ ऊ लु ----फ़ऊलुन
21-----------1 2 1 --------1 2 1 -------1 2 2
A B C D
इसी बह्र को मैने "मूल बह्र’ कहा है
अब इस ’मूल बह्र ’ से हम आगे बढ़ते है --तख़्नीक- के अमल से
आप जानते हैं कि ’तख़्नीक’ का अमल सिर्फ़ ’मुज़ाहिफ़ रुक्न ’ पर ही लगता है । सालिम रुक्न पर कभी नहीं करता ।
तो ऊपर जो ’मुज़ाहिफ़ ’ रुक्न हासिल हुआ है उस पर अमल हो सकता है [ मात्र आखिरी रुक्न को छोड़ कर जो एक सालिम रुक्न है ]
यहाँ ’तख़नीक़’ के अमल की थोड़ी -सी चर्चा कर लेते है।
अगर किसी दो-पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न [ adjacent rukn ] में ’तीन’ मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ ’ आ जायें तो "बीच वाला ’ हर्फ़ साकिन हो जायेगा
हमारे केस में ’तीन मुतहर्रिक हर्फ़ " -दो-पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न [ adjacent rukn ] में आ गए हैं तो तख़नीक़ का अमल होगा ।
-फ़े- लाम -और -ऐन-
अगर यह अमल आप A--B---C---D पर ONE-by-ONE लगाएँगे तो आप को कई मुतबादिल औज़ान बरामद होंगे। आप ख़ुद कर के देख लें ।
मश्क़ की मश्क़ हो जायेगी और आत्मविश्वास भी बढ़ जायेगा ।
कुछ मुतबादिल औज़ान नीचे लिख दे रहा हूँ ---
E 21---122---22--22
F 22---22----21-122
G 21---122----22--22
H 21--122---21---122
J 22---22--22---22-
इस अमल से एक वज़न यह भी बरामद होगा --जो मैने मतला के दोनो मिसरा में इस्तेमाल किया है ।और यह वज़न अरूज़ के ऎन क़वानीन के मुताबिक़ है
और अरूज़ के किसी क़ाईद की ख़िलाफ़वर्ज़ी भी नहीं किया मैने ।
अच्छा । आप इस अरूज़ी तवालत से बचना चाह्ते हैं तो A--B--C--D वाले रुक्न में एक आसान रास्ता भी है ।
आप 1+1 =2 कर दीजिए तो भी काम चल जायेगा । बहुत से मित्र प्राय: यह पूछते रह्तें हैं कि क्या हम 1+1= 2 मान सकते है ।
हाँ बस इस विशेष मुक़ाम पर मान सकते हैं । और किसी जगह नहीं । । यह रास्ता बहुत दूर तक नहीं जाता।बस यहीं तक जाता है ।
क्यों?
क्योंकि जब आप 1+1 को दो मानना शुरु कर देंगे तो
कामिल की बह्र का बुनियादी रुक्न है ’मु त फ़ाइलुन 1 1 2 1 2 ] तो 2 2 1 2 हो जायेगा यानी ’मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2 ] हो जायेगा जो बह्र-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न है
यह तो फिर ग़लत हो जायेगा।
वैसे ही
वाफिर की बह्र का बुनियादी रुक्न है ’मुफ़ा इ ल तुन [ 1 2 1 1 2 ] तो 12 2 2 हो जायेगा यानी ’मफ़ाईलुन [ 1 2 2 2 ]’ जो बह्र-ए-हज़ज ’ का बुनियादी रुक्न है ।
यह तो फिर ग़लत हो जायेगा।
इसीलिए कहता हूँ कि 1+1 = 2 हर मुक़ाम पर नहीं होता ।
अब अपनी ग़ज़ल की तक़्तीअ’ कर के देखते है कि यह बह्र में है या बह्र से ख़ारिज़ है "
21-- -/-122-- / 2 2 / 2 2 = E
एक / स मन दर / मेरे /अन दर
21-----/1 2 2 / 2 2 / 2 2 = =E
शोर-ए-तलातुम बाहर / भीतर 1 = शोर-ए-तलातुम में कसरा-ए-इज़ाफ़त से शोर का -र- मुतहर्रिक हो जायेगा। और -र- खींच कर [इस्बाअ’] नहीं पढ़ना है
21---/ 1 2 2 / 2 2 / 2 2 =E
एक/ तिरा ग़म / पहले / से ही
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 =E
और /ज़माने /का ग़म /उस पर 2
22 / 22 / 2 1 / 1 2 2 =F
तेरे / होने /का भी /तसव्वुर
2 2 / 2 2 / 2 2 / 2 2 =J
तेरे /होने / से है / बरतर 3
2 2 / 2 2 / 21 / 1 2 2 =F
चाहे /जितना /दूर /रहूँ मैं
22 / 22 / 2 2 / 2 2 =J
यादें /आती /रहतीं /अकसर 4
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 =E
एक /अगन सुल/गी रह/ती है
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 =E
वस्ल-ए-सनम की, दिल के / अन्दर 5
21 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 = E
प्यास /अधूरी /हर इन्/साँ की
2 2 / 2 2 / 2 2/ 2 2 =J
प्यासा /रहता /है जी /वन भर 6
2 2 / 2 2 / 2 2 / 2 2 =J
मुझको /ही अब /जाना /होगा
2 1 / 1 2 2 / 2 1 / 1 2 2 =H
वो तो / रहा आ / ने से ज़मीं पर 7
2 1 / 122 / 2 2 / 2 2 =G
सोन /चिरैया /उड़ जा/ येगी
2 2 / 2 2 / 2 1 / 1 2 2 =F
रह जा/येगी /खाक /बदन पर 8
2 2 / 2 2/ 2 2 / 2 2 =J
सब के /अप ने /अप ने /ग़म हैं
2 2 / 2 2 / 2 2 / 2 2 =J
सब से/ मिलना’/आनन’/ हँस कर 9
उमीद करता हूँ कि मैं अपनी बात कुछ हद तक साफ़ कर सका हूँ ।
नोट - इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है अगर कहीं कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी
निशानदिही फ़र्मा दें जिस से यह हक़ीर आइन्दा खुद को दुरुस्त कर सके ।
सादर
-आनन्द.पाठक -
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