भूमिका : जब अपने ब्लाग के इस श्रृंखला के पुनरीक्षण और परिवर्धन करने की सोच रहा था तो
ध्यान में आया कि अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ऐसी थीं जो इस इस श्रृंखला में सबसे पहले आनी चाहिए थी जिससे पाठक गण को आगे के क़िस्तों को समझने/समझाने में सुविधा होती । जब तक यह बात
ध्यान में आती तबतक बहुत विलम्ब हो चुका था और 75-क़िस्त लिखा जा चुका था । ख़ैर कोई बात नहीं।
जब जगे तभी सवेरा।
यह वो बुनियादी बातें है जिनका ज़िक्र हर क़िस्त में आता रहता है और वज़ाहत करता रहता हूँ । इसीलिए सोचा कि ये सब बातें यकजा कर लूँ जिससे क़िस्तों में बार बार ज़िक्र न करना पड़ेगा।
इसी लिए इस क़िस्त की संख्या 000 डालनी पड़ी जो क़िस्त 01 से पहले आनी चाहिए थी ।
इस क़िस्त में , हम अरूज़ की कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा करेंगे।
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1- जैसे हिंदी [और संस्कृत में भी ] के छन्द-शास्त्र में ’वार्णिक छन्दों’ में मात्रा गणना की जाती है और अनुशासन के लिए ’गण’ निर्धारित किए गये हैं जिसे हम ’दशाक्षरी सूत्र" -यमाताराजभानसलगा - से याद रखते हैं । यानी
[1] यगण = यमाता = 1 ऽ ऽ = 1 2 2
[2] मगण = मातारा = ऽ ऽ ऽ = 2 2 2
[3] तगण = ताराज = ऽ ऽ 1 = 2 2 1
[4] रगण = राजभा = ऽ 1 ऽ = 2 1 2
[5] जगण = जभान = 1 ऽ 1 = 1 2 1
[6] भगण = भानस = ऽ 1 1 = 2 1 1
[7] नगण = नसल = 1 1 1 = 1 1 1
[8] सगण = सलगा = 1 1 ऽ = 1 1 2
यानी 1-2 के तीन-तीन वर्ण के combination /permutation 8- गण बनते है जहाँ [ 1= लघु वर्ण ] और
[ ऽ = दीर्घ वर्ण ] मानते हैं ।
2- जैसे हिंदी में [ और संस्कृत में भी ] छन्दों के लिए 8- प्रारम्भिक गण की व्यवस्था है ,वैसे ही ’उर्दू’ में भी ’अरूज़’ के लिए भी 8- रुक्न [ ब0व0 अर्कान ] की व्यवस्था है जो निम्न हैं । अरूज़ को आप उर्दू शायरी का छन्द शास्त्र समझिए ।
-सालिम रुक्न --- बह्र का नाम
[1] फ़ऊलुन = 1 2 2 = बह्र-ए-मुतक़ारिब का सालिम रुक्न= 5- हर्फ़ी रुक्न [ख़म्मासी रुक्न]
[2] फ़ाइलुन = 2 1 2 = बह्र-ए-मुतदारिक का सालिम रुक्न= -do-
[3] मफ़ाईलुन = 1 2 2 2 = बह्र-ए-हज़ज का सालिम रुक्न = 7- हर्फ़ी रुक्न[सुबाई रुक्न]
[4] फ़ाइलातुन = 2 1 2 2 = बह्र-ए-रमल का सालिम रुक्न = -do-
[5] मुसतफ़इलुन= 2 2 1 2 = बह्र-ए-रजज़ का सालिम रुक्न = -do-
[6] मु त फ़ाइलुन = 1 1 2 1 2 = बह्र-ए-कामिल का सालिम रुक्न = -do-
[7] मुफ़ा इ ल तुन = 1 2 1 1 2= बह्र-ए-वाफ़िर का सालिम रुक्न = -do-
[8] मफ़ ऊ लातु = 2 2 2 1 = --- --- = -do-
उर्दू में अर्कान को अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे--अफ़ाइल--तफ़ाइल--औज़ान -मीज़ान -- उसूल -- नाम कुछ भी हो अर्थ वही है ।
यह सालिम रुक्न कैसे बनते हैं ,इसकी भी चर्चा आगे करेंगे। आइन्दा चर्चा में हम ’रुक्न’/ अर्कान [ रुक्न का ब0व0] -लफ़्ज़ ही इस्तेमाल करेंगे।
यहाँ पर ये अर्कान उर्दू के किस ’दायरे’ [ वृत्त] से निकलते है --उसकी चर्चा नहीं करेंगे। कारण? कारण कि हमे इसकॊ ज़रूरत नहीं पड़ेगी और विषय दुरूह हो जाएगा ऊपर से।
अगर दायरे के बारे में विस्तार से समझना हो इसके बारे में तो अरूज़ की किसी भी किताब में ब आसानी मिल जायेगी ।
2 - पाँच हर्फ़ी [5-हर्फ़ी ]रुक्न को ’ख़म्मासी रुक्न " भी कहते हैं जैसे फ़ऊलुन--फ़ाइलुन [2-रुक्न ]
सात हर्फ़ी [7-हर्फ़ी] रुक्न को ’सुबाई रुक्न’-कहते हैं जैसे मुफ़ाईलुन---फ़ाइलातुन---मुस तफ़ इलुन-- मुतफ़ाइलुन---मुफ़ाइलतुन--मफ़ऊलातु [ 6-रुक्न]
3- यह भी क्या इत्तिफ़ाक़ है कि हिंदी के छन्द गणना के लिए 8- बुनियादी गण और उर्दू के अरूज़ के लिए भी 8-बुनियादी सालिम रुक्न ! ख़ैर
4- उर्दू शायरी के लिए थोड़ी बहुत उर्दू के हरूफ़ [ हर्फ़ का ब0व0] ,क़वायद [ क़ायदा का ब0व0] की जानकारी होनी चाहिए। हो तो बेहतर।
और मैं आशा करता हूँ कि इतनी बहुत जानकारी अवश्य होगी। जानकारी होगी तो आप को अरूज़,बह्र,वज़न समझने /समझाने में
और आसानी होगी।
5- उर्दू के मात्र दो -रुक्न [ फ़ऊलुन 1 2 2 और फ़ाइलुन 2 1 2 ] ऐसे सालिम रुक्न हैं जो हिंदी के .गण [ यगण 1 2 2 और रगण 2 1 2 ] से मेल खाते हैं
इसीलिए कहा जाता है कि ये दो वज़न --हिंदी से उर्दू में आए हैं और उसमें भी ’फ़ाइलुन [2 1 2 ] वज़न ’ पहले आया ।
6- जैसे हम हिंदी में ’वर्ण-माला ’ होती हैं .वैसे ही उर्दू में हिज्जे होते है जिसे ’हरूफ़-ए-तहज्जी, कहते हैं । इन की संख्या 35-या 36 ।उर्दू मे हरूफ़-ए-तहज्जी में बहुत से हर्फ़ ’अरबी’ से आए ,कुछ फ़ारसी तुर्की हिंदी से भी आए ।.जब जब और जैसे जैसे उर्दू को मुख्तलिफ़ आवाज़ों की ज़रूरत महसूस होती गई ,हर्फ़ आते गए और अलामात [ चिह्न] बनाते गए। यही बात हिंदी में भी हुई । उर्दू हर्फ़ की कुछ आवाजें हिंदी में नहीं थी अत: हिंदी के वर्ण में --नुक़्ता [ अलामत ] लगा कर काम चलाते हैं।
क़---ख़--ग़---ज़--अ’ --आदि। मगर यह भी नाकाफी था । जैसे उर्दू में --ज़- की आवाज़ के लिए के 5- हर्फ़ होते है , मगर हमने सबके लिए -एक- ही वर्ण -ज़- रखा।
हिंदी में अब आम आदमी के दैनिक बातचीत में -अब यह नुक़्ते का भी फ़र्क दिनो दिन मिटता जा रहा है -लेखन में भी और उच्चारण में भी।
मगर हम शे’र और ग़ज़ल बावज़ूद इन बारीकियों के भी समझ जाते हैं ।
7- साकिन हर्फ़ : हरूफ़-ए-तहज्जी के तमाम हर्फ़ मूलत: साकिन होते हैं जब तक कि उन पर कोई ’हरकत’ न दी जाए । आप इन्हें संस्कृत के ’ हलन्त’ वाला’ व्यंजन समझ सकते हैं ।जैसे -क्-ज़्-प्
फ़्-- आदि। चूंकि यह हर्फ़ बिना स्वर के होते है। जब इन हर्फ़ पर पर ’हरकत’ [ ज़ेर--ज़बर-पेश की] दी जाती है इनको स्वर दिया जाता है तब यह अपनी अपनी आवाज़ देते हैं।
वरना तो शान्त ही रहते हैं । इसीलिए इन्हे ’साकिन’ [ शान्त] कहते है॥
उर्दू का हर लफ़्ज़ ’साकिन’ पर ही ख़त्म होता है । ज़ुबान की फ़ितरत ही ऐसी है ।
8- मुतहर्रिक हर्फ़ : जब किसी साकिन हर्फ़ को ’हरकत’ [ ज़बर, ज़ेर. पेश की ] दी जाती है यानी स्वर दिया जाता है तो वैसी ही अपनी आवाज़ देते हैं । वैसे तो उर्दू में 7-क़िस्म की हरकत होती है
ज़बर---ज़ेर--पेश--मद्द--जज़्म--तस्द्दीद--तन्वीन । मगर इसमें 3- [ ज़बर-ज़ेर-पेश ] ही मुख्य हैं । यह् सब् बातें उर्दू के किसी भी क़वायद [व्याकरण ] की किताब में ब आसानी मिल जायेगी
जैसे
-क्- ज़बर =क । -क्-ज़ेर =कि । क्-पेश =कू
ज़्- ज़बर =ज़ ।ज़्-ज़ेर = जि ।ज़्-पेश =ज़ू
प् - ज़बर = प । प् ज़ेर् = पि । प् पेश =पू
अगर किसी”हर्फ़’ पर कोई ’अलामत ’ न लगी हो तो समझ लें कि ’ज़बर’ की अलामत तो ज़रूर होगी । यह बात अलग है कि लोग लिखते वक़्त उसे दिखाते नहीं ।
अगर आप मुतहर्रिक [ हरकत लगा हुआ हर्फ़ ] और साकिन [ बिना हरकत लगा हुआ हर्फ़ ] अच्छी तरह समझ लें तो आगे चल कर शे’र का वज़न ,बह्र समझने में और तक़्तीअ’
करने में , शब्द के मात्रा गणना करने में आप को कोई असुविधा नहीं होगी । उर्दू लफ़्ज़ का पहला ’हर्फ़’ -मुतहर्रिक होता है । यानी उर्दू का कोई लफ़्ज़ ’साकिन’ हर्फ़ से शुरू नहीं होता ।
9- सबब = "दो-हर्फ़ी कलमा " को सबब कहते हैं जैसे -- अब--तब--ग़म--दिल---रंज-- नम-- की --भी---तुम--हम --मन--इत्यादि
सबब---दो प्रकार के होते है
[क] सबब-ए-ख़फ़ीफ़
[ख] सबब-ए-सकील
सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = वह ’दो हर्फ़ी कलमा ’ [ अर्थ पूर्ण भी हो सकता है ,अर्थहीन भी हो सकता है ]-जिसमें पहला हर्फ़ ’ मुतहर्रिक’ हो और दूसरा हर्फ़ ’साकिन ’ हो । यानी [मुतहर्रिक साकिन ] बज़ाहिर हर दो हर्फ़ी कलमा सबब-ए-ख़फ़ीफ़
ही होगा क्योंकि उर्दू का पहला हर्फ़ तो मुतहर्रिक होता है और आख़िरी हर्फ़ साकिन ही होता है [ देखे ऊपर 7- और 8 ] इसे -2- की अलामत से दिखाते हैं। वैसे सबब का एक मानी [अर्थ] -रस्सी- भी होता है 1
अभी आप रस्सी { Rope ] ज़ेहन में रखें बाद में ज़रूरत पड़ेगी रुक्न की बुनावट समझने में ।
जैसे अब --ख़त --तब--फ़ा--लुन--तुन--मुस--तफ़-- दो--गो--आदि
अब = -[अ] अलिफ़- मुतहर्रिक -+-[ब] बे साकिन = वज़न 2
ख़त = ख़ [ख़े] मुतहर्रिक + त [ तोये] साकिन = वज़न 2
सबब-ए-सकील = वह -’दो हर्फ़ी कलमा’ - जिसमें पहला हर्फ़ मुतहर्रिक हो और दूसरा हर्फ़ भी मुतहर्रिक हो । यानी "मुतहर्रिक+ मुतहर्रिक"
उर्दू में ऐसा स्वतन्त्र शब्द मिलना मुश्किल है [ देखे पैरा 7-और 8 ] मगर उर्दू की [ वस्तुत: फ़ारसी की 1-2 तरक़ीब है जिसे उर्दू ने भी अपना लिया है ] कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ।
इस से ठीक इससे पहले वाले साकिन हर्फ़ पर ’हरकत’ आ ही जाती है या महसूस होती है । इसे 1-1 के अलामत से दिखाते है
जैसे
ग़म-ए-दिल = वैसे ग़म [ स्वतन्त्र रूप से ] में -म[मीम ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- मीम [म] पर हरकत [ एक भारीपन = सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: -गम- का वज़न यहाँ [ 1 1 ] लिया जायेगा
दिल-ए-नादाँ = वैसे दिल [ स्वतन्त्र रूप से ] में -लाम [ल ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- लाम [ल] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: -दिल का वज़न यहाँ [ 1 1 ] लिया जायेगा
दौर-ए-हाज़िर= वैसे दौर [ स्वतन्त्र रूप से ] में -र[ रे ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- रे [र] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है । अत: दौर का वज़न यहाँ [2 1 ] लिया जायेगा
रंज-ओ-अलम = वैसे रंज [ स्वतन्त्र रूप से ] में -ज़ तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- ज़ -पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है । अत: रंज़ का वज़न [2 1 ] लिया जायेगा
जान-ओ-जिगर = वैसे जान [ स्वतन्त्र रूप से ] में -न [नून ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- नून [न ] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: जान का वज़न 2 1 लिया जायेगा।
10 - वतद = 3-हर्फ़ी कलमा को वतद कहते है । अगर हम आप से कहें कि 2-हर्फ़ [ मुतहर्रिक और साकिन ] से 3- हर्फ़ी कलमा के कितने arrangment हो सकते है ? बज़ाहिर 3- हो सकते है । अर्थ पूर्ण भी हो सकता है ,अर्थहीन भी हो सकता है ]देखिए कैसे
[अ] मुतहर्रिक + मुतहर्रिक + साकिन
[ब] मुतहर्रिक + साकिन + मुतहर्रिक
[स] मुतहर्रिक + साकिन + साकिन
जी,बिलकुल दुरुस्त । अत: वतद 3- प्रकार के होते है । वतद का एक अर्थ "खूँटा’ [ PEG] भी है । ये खूँटा--रस्सी का क्या लफ़ड़ा है --इसको बाद में समझायेंगे जब सालिम रुक्न कैसे बनते है पर चर्चा करेंगे ।
[अ] वतद -ए--मज्मुआ = वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला और दूसरा हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ हो ।
जैसे --- जैसे ----अबद--असर---सहर--बरस--सफ़र--
मज्मुआ--इसलिए कहते है कि दो- मुतहर्रिक एक साथ ’ जमा’ [ मज़्मुआ] हो गए। यानी मुतहर्रिक की ’तकरार- या मुकर्रर हो गया ।कभी कभी "वतद-ए- मक्रून" भी कहते है । मगर हम आइन्दा ’वतद-ए-मज्मुआ ’ ही कहेंगे
[ब] वतद-ए- मफ़रूक़ = वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमे पहला हर्फ़ मुतहर्रिक -दूसरा हर्फ़ साकिन--तीसरा हर्फ़ मुतहर्रिक हो ।मफ़्रूक़ - इसलिए कहते हैं कि दो मुतहर्रिक के position में "फ़र्क़’ [ मफ़्रूक़ ] है ।जैसे ’फ़ाअ’ [ -ऐन- मुतहर्रिक] यह एक रुक्न का जुज [ टुकड़ा] है। फ़े-मुतहर्रिक --अलिफ़ -साकिन---ऐन मुतहर्रिक]
वतद-ए-मौक़ूफ़ = वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला हर्फ़ मुतहर्रिक + दूसरा हर्फ़ साकिन+ तीसरा हर्फ़ साकिन हो ।जैसे ----अब्र--उर्द--अस्ल--बुर्ज---जुर्म --
11- फ़ासिला = सबब और वतद के अलावा दो परिभाषायें और भी है --4- हर्फ़ी कलमा और 5- हर्फ़ी कलमा के लिए । मगर हम यहाँ उनकी चर्चा नहीं करेंगे।कारण कि बग़ैर इसके भी हमारा काम
चल जायेगा ।अब बात निकल गई तो थोड़ी सी चर्चा कर ही लेते हैं । 4- हर्फ़ी कलमा क्या है ? दो सबब है । यानी सबब -ए-सकील+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = अब आप फ़ासिला की परिभाषा खुद ही बना सकते है ।
यानी वो 4-हर्फ़ी कलमा जिसमे हरकत +हरकत+हरकत+साकिन वाले हर्फ़ एक साथ हों \
जैसे "लफ़्ज़ "हरकत " खुद ही फ़ासिला है ।ह+र+क+त् । ऐसे लफ़्ज़् को ’फ़ासिला सुग़रा ’ कहते हैं
5-हर्फ़ी कलमा क्या है ? सबब-ए-सकील + वतद-ए-मज्मुआ = यानी हरकत+हरकत+हरकत +हरकत +साकिन= 5 हर्फ़ =ऐसे लफ़्ज़ को फ़ासिला कबरा कहते है।
बस आप समझ लीजिए कि उर्दू ज़ुबान की फ़ितरत ऐसी है कि यह "फ़ासिला कब्रा"-’सपोर्ट’ नही करती या नहीं कर पाती।
[ नोट : आप पैरा 11-नहीं भी समझेंगे तो भी ’अरूज़’ का काम चल जायेगा । समझ लेंगे तो बेहतर। आप इन बुनियादी इस्तलाहात [ परिभाषाओं से ] घबराये नहीं।
आगे चल कर ये परिभाषायें बड़े काम की साबित होंगी।बह्र और वज़न समझने में। उकताहट तो हो रही होगी मगर धीरे धीरे यह सब आप को भी अजबर [ कंठस्थ ] हो जायेगा ।धीरज रखिए ।
12 ज़ुज : सालिम रुक्न सबब और वतद के योग से बनता है। इन्हीं टुकड़ो से बनता है । कैसे बनता है इसकी चर्चा आगे करेंगे।इन्ही टुकड़ो को ’ज़ुज’ कहते हैं।
13 ज़िहाफ़ : ज़िहाफ़ एक अमल है जो हमेशा ’सालिम रुक्न ’ पर ही लगता है। दरअस्ल -यह अमल ’सबब’ और ’ वतद’ पर ही होता है । ज़िहाफ़ से-सालिम रुक्न के वज़न में कतर-ब्यॊत हो जाती है। कमी -बेशी हो जाती है
और सालिम रुक्न का रूप बदल जाता है । इस बदली हुई शकल को " मुज़ाहिफ़ रुक्न’ कहते हैं । प्राय: वज़न में नुक़सान भी हो जाता है ।कभी कभी वज़न बढ़ भी जाता है । पर वज़न में ज़्यादातर: कमी ही हो होती है ।
ज़िहाफ़ की चर्चा किसी क़िस्त में विस्तार से करेंगे।
शे’र में ’लोकेशन’ के लिहाज़ से ज़िहाफ़ 2-क़िस्म के होते हैं।
[अ] आम ज़िहाफ़ : वह ज़िहाफ़ जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है। [ शे’र के मुक़ाम के लिए नीचे देखें ] जैसे-- ख़ब्न---क़ब्ज़--त्य्यै --
[ब] ख़ास ज़िहाफ़ : वह ज़िहाफ़ जो शे’र के किसी ’ख़ास’ मुक़ाम पर ही आ सकता है [शे’र के मुक़ाम के लिए नीचे देखें ] जैसे--क़स्र----हज़्फ़ --खरम---
सालिम रुक्न पर अमल संख्या के लिहाज़ से ज़िहाफ़ 2-किस्म के होते है।
[अ] मुफ़र्द ज़िहाफ़ : या ’एकल’ ज़िहाफ़। वह ज़िहाफ़ जो सालिम रुक्न पर ’अकेले’ ही अमल करता एक बार ही अमल करता है ।
[ब] मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ या मिश्रित ज़िहाफ़ । वह ज़िहाफ़ जि दो या दो से अधिक ज़िहाफ़ से मिल कर बने हों।
कहते हैं कुल ज़िहाफ़ात की संख्या लगभग 50- के आस पास हैं
14 सालिम बह्र : वह बह्र जो सालिम रुक्न [ ऊपर लिखे हुए ] के तकरार [ आवृति] से बनती है । सालिम इसलिए कि ये अर्कान अपनी सालिम शकल [ बिना नुक़सान के ] में ही इस्तेमाल होती हैं
’मुफ़ऊलातु’ -सालिम रुक्न से कोई सालिम बह्र नहीं बनती । वज़ाहत ऊपर नोट में दे दी गई है। सालिम बह्र --जैसे -- मुतक़ारिब --मुतदारिक --हज़ज--रमल --रजज़ --कामिल--वाफ़िर- ।इनकी संख्या 7- हैं
15- मुरक़्कब बह्र या मिश्रित बह्र ।वह बह्र जो 2-या 2 से अधिक सालिम रुक्न से मिल कर बनती है । जैसे -- मुज़ार’ ख़फ़ीफ़--मुज्तस--बसीत -- जदीद--[ आगे के क़िस्त में ज़िक्र आयेगा] इनकी संख्या 12- हैं
-16- मिसरा : एक काव्यमयी अर्थ पूर्ण ,सार्थक लाइन [ पंक्ति] जो अरूज़ के मान्य वज़न / अर्कान /बह्र /आहंग के अनुसार हो ,को मिसरा कहते है ।
17 शे’र = एक शे’र दो-मिसरों से मिल कर बनता है । पहले मिसरा को ’मिसरा ऊला’ [ ऊला/उला= अव्वल ] कहते है और दूसरे मिसरे को ’मिसरा सानी’ कहते हैं । [सानी= दूसरा]
18 मतला = किसी ग़ज़ल के पहले शे’र को [जहाँ से ग़ज़ल तुलुअ’ -शुरु होती है ]"मतला कहते है । इसके दोनो मिसरों में ’हम क़ाफ़िया" इस्तेमाल होता है ।
19 मक़्ता = किसी ग़ज़ल का आख़िरी शे’र [ जहाँ ग़ज़ल क़त’ -ख़त्म हो जाती है कट जाती है ] को ’मक़्ता’ कहते हैं । अगर शायर ’तख़्ल्लुस" डालना चाहे तो इसी मक़्ता के शे’र में डालता है ।
’तख़्ल्लुस’ डालना ---मक़्ता की आवश्यक शर्त नहीं है --आप की मरजी। आप डालना चाहे डालें ,न डालना चाहे न डालें।
20 तख़ल्लुस [Pen Name ] = बहुत से शायर अपना "उपनाम" रखते हैं -जो बाद में उनकी पहचान बन जाती है । जैसे ग़ालिब--दाग़-- ज़ौक़--जिगर -- जब कि इनके असल नाम और हैं।’
21 -शे’र के मुक़ाम : किसी शे’र में अर्कान के ’लोकेशन’ के आधार पर उन मक़ामात के नाम भी दिए गए हैं जिससे उन स्थानों को पहचानने में या समझने में सुविधा हो ।
सद्र = मिसरा ऊला के पहले रुक्न के पहले मुक़ाम को - सद्र- कहते है ।
अरूज़ = मिसरा ऊला के अन्तिम मुक़ाम को -अरूज़- कहते हैं
इब्तिदा = मिसरा सानी के पहले मुक़ाम को -इब्तिदा- कहते हैं
ज़र्ब = मिसरा सानी के अन्तिम मुकाम को --ज़र्ब-कहते हैं ।
हस्व = किसी शे’र के [ सदर/अरूज़ या इब्तिदा/ ज़र्ब के बीच ] उन तमाम मुक़ामात को -हस्व- कहते है
इस परिभाषा की ज़रूरत क्यों पड़ी ? इसलिए पड़ी कि कुछ -ज़िहाफ़- सदर और इब्तिदा के लिए मख़्सूस [ ख़ास है ] तो आप ब आसानी समझ जाएँ कि अमुक ज़िहाफ़ किस मुक़ाम के रुक्न पर लगेगा।
वैसे ही अगर हम कहें कि अमुक -ज़िहाफ़- अरूज़/ज़र्ब के लिए मख़्सूस[ ख़ास] है तो आप समझ लें कि इस अमुक ज़िहाफ़ का अमल कहाँ होगा।
एक उदाहरण से देखते हैं
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं -इक़बाल -
-सद्र - / हस्व / हस्व / अरूज़
सितारों /से आगे /जहाँ औ /र भी हैं
-------------------
-इब्तिदा-/ --हस्व--/ -हस्व- / ज़र्ब
अभी इश्/ क़ के इम् / तिहाँ औ /र भी हैं
एक और उदाहरण देखते हैं ---
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है -ग़ालिब-
--सद्र-- / --हस्व-- / -अरूज़-
दिल-ए-नादाँ / तुझे हुआ /क्या है
--------------
--सद्र--- / -हस्व-- / - ज़र्ब-
आख़िर इस दर्/ द की दवा /क्या है
22- मुरब्ब: बह्र :- वह शे’र जिसमें -’चार अर्कान [4] - का इस्तेमाल हुआ हो । यानी एक मिसरा में -दो रुक्न [2]- हो ।बज़ाहिर मुरब्ब: में -हस्व- का मुक़ाम नहीं होता। यानी
मिसरा ऊला मे --सद्र और अरूज़-- और मिसरा सानी में -इब्तिदा और ज़र्ब । हो गए 4-रुक्न के मुक़ाम।
23- मुसद्दस बह्र : वह शे’र जिसमें -छह अर्कान [6] का इस्तेमाल हुआ हो यानी एक मिसरा में -तीन[3]- अर्कान हो । बज़ाहिर मुसद्दस शे’र के एक मिसरा में -एक हस्व- का ही मुक़ाम- आयेगा।
24 - मुसम्मन बह्र : वह शे’र जिसमें -आठ- अर्कान [ 8 ]का इस्तेमाल हुआ हो यानी एक मिसरा में -चार [4] अर्कान हो । बज़ाहिर मुसम्मन शे’र के ए्क मिसरा में -दो हस्व - का मुक़ाम आयेगा
[नोट -याद रहे ये ’अर्कान’ सालिम भी हो सकते है या मुज़ाहिफ़ रुक्न [ सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा हुआ ] भी हो सकते है या दोनो के मिश्रण भी हो सकते है । यह सब बह्र के नामकरण में आयेगा।
25 मुज़ायफ़ [ मुज़ाइफ़] बह्र: मुज़ायफ़/मुज़ाइफ़ के मा’नी होता है -दो गुना- करना । किसी शे’र में अगर अर्कान की संख्या को -दो गुना - कर दें तो उसके नाम में ’मज़ाइफ़’- शब्द जोड़ देंगे जिससे पता लग सके की शे’र मूलत:
मुरब्ब: / मुसद्दस/ मुसम्मन ही है -बस अर्कान की संख्या को -दो गुना- कर के कहा गया है । यानी "मुरब्ब: मुज़ाइफ़" --में 8-अर्कान हैं। मुसद्दस मुज़ाइफ़ में -12- अर्कान हैं । मुसम्मन मुज़ाइफ़ में 16- अर्कान है
मुसम्मन मुज़ाइफ़ को कभी कभी 16-रुक्नी बह्र भी कहते हैं।
{ नोट - मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ में ’कन्फ़्यूज’ नहीं होइएगा । मुज़ाहिफ़ ---ज़िहाफ़ शब्द से बना है ।जब कि मुज़ाइफ़ -[ -ह- नहीं है ] जिसके मा’नी होता है दो-गुना ।
26 - कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ओ-अत्फ़ = विस्तार से समझने के लिए देखे क़िस्त नं0-70
27- तस्कीन-ए-औसत का अमल = इस विषय पर विस्तार से अलग एक आलेख प्रस्तुत कर दूँगा । यहाँ संक्षेप में चर्चा कर लेता हूँ ।
= अगर किसी ’एकल मुज़ाहिफ़ रुक्न " में -तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ लगातार एक के बाद एक [ मुतस्सिल] आ जाए तो बीच [ औसत ] वाला मुतहर्रिक -साकिन- माना जाता है
इससे रुक्न की शकल बदल जायेगी । बदली हुई रुक्न को ’ मुसक्किन ’कहते हैं।
यहाँ दो-तीन बातें ध्यान देने की है । तस्कीन-ए-औसत का अमल
[अ] हमेशा मुज़ाहिफ़ रुक्न पर ही होता है । सालिम रुक्न पर कभी नही होता।
[ ब] इसका अमल बह्र- के किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न पर एक साथ सभी रुक्न पर या अलग अलग रुक्न हो सकता है शर्त यह है कि इस से बह्र बदलनी नहीं चाहिए जिस मुज़ाहिफ़ बह्र पर इसका अमल हो रहा है ।
अगर यही स्थिति ’दो-आस पास [ adjacent and consecutive ] रुक्न में आ जाए तो फिर इस अमल को "तख़्नीक़ का अमल" कहते है और बरामद रुक्न को ’मुख़्न्निक़" कहते है।
इन तमाम इस्तलाहात [ परिभाषाओं ] को समझने के लिए उदाहरण के तौर पर 1-2 लेते हैं जिससे बात और साफ़ हो जाएगी।
ग़ज़ल 01 :
अर्कान फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन
बह्र बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
सितारॊं से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी है -1-
तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ
यहाँ सैकड़ों कारवां और भी हैं -2-
कनाअत न कर आलम-ओ-रंग-ओ-बू पर
चमन और भी आशियाँ और भी हैं -3-
अगर खो गया तो इक नशेमन तो क्या ग़म
मुक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ और भी हैं -4-
तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तेरे सामने आसमाँ और भी हैं -5-
इसी रोज़-ओ-शब में उलझ कर न रह जा
कि तेरे ज़मान-ओ-मकाँ और भी हैं -6-
गए दिन कि तनहा था मैं अंजुमन में
यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं -7-
-इक़बाल-
इस ग़ज़ल में --
शे’र की संख्या = 7 [ किसी ग़ज़ल में कितने शे’र हो सकते है या होने चाहिए .इस पर अरूज़ ख़ामोश है ]
मतला = पहला शे’र न-1 = जिसके दोनो मिसरों का ’हम क़ाफ़िया- जहाँ- और -इम्तिहाँ- है
मतला का मिसरा ऊला = सितारों के आगे----
मतला का मिसरा सानी = अभी इश्क़ के इम्तिहाँ ---
[ वैसे हर शे’र का पहला मिसरा - मिसरा उला कहलाता है और दूसरा मिसरा मिसरा सानी कहलाता है ।
हुस्न-ए-मतला = इस ग़ज़ल में ’हुस्न-ए-मतला; नहीं है । अगर होता तो ठीक ’मतला’ के नीचे आता और उसके भी दोनों मिसरे " हम काफ़िया" होते।
मक़ता = आख़िरी शे’र -7 = यहाँ पर शायर ने अपना तख़्ल्लुस ; इक़बाल : नहीं डाला है । मक़्ता में तख़्ल्लुस डालना कोई अनिवार्य शर्त
नहीं है । ग़ज़ल में कोई न कोई शे’र तो आख़िरी होगा ही ।वही मक़्ता होगा।
क़ाफ़िया = काफ़िया का बहु वचन ’क़वाफ़ी’ है। यहाँ क़वाफ़ी हैं---जहाँ--इम्तिहाँ--कारवाँ--आशियाँ--फ़ुगाँ--आसमाँ--मकाँ--राज़दां ---
हर शे’र के मिसरा सानी में "हम क़ाफ़िया" आना ज़रूरी है लाज़िमी है । क़ाफ़िया का अर्थ पूर्ण [ बा मा’नी होना ] ज़रूरी है ।
रदीफ़ = यहाँ रदीफ़ - और भी हैं-- । रदीफ़ एक शब्द लफ़्ज़ भी हो सकता है या एक जुमला भी हो सकता है ।रदीफ़ का मतला [ और हुस्न-ए-मतला भी ]
के दोनो मिसरों में और हर शे’र के मिसरा सानी में आना ज़रूरी है ।
अर्कान = इस ग़ज़ल में जो रुक्न इस्तेमाल किए गए है -उसका नाम "फ़ऊलुन "[ 1 2 2 ] है और बिना किसी काट-छाँट के --पूरा का पूरा सालिम शकल में इस्तेमाल
हुआ है अत: इसे "सालिम बह्र " कहेंगे। मान लीजिए अगर किसी कारण वश [ ज़िहाफ़ के कारण ] किसी रुक्न में कोई काट-छाँट हो जाती [ यानी 122 की जगह 22 ही हो जाता तो]
फिर हम इसे ’सालिम ’ न कह कर "मुज़ाहिफ़’ [ उस ज़िहाफ़ के नाम के साथ] जोड़ देते। इत्तिफ़ाक़न इस बहर में कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है --सब रुक सालिम के सालिम ही हैं।
बह्र = "फ़ऊलुन"- चूंकि बहर मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न तय किया गया अत: ग़ज़ल में इस बह्र का नाम होगा --बह्र-ए-मुतक़ारिब-। और चूंकि यह रुक्न मिसरा में 4- बार [ यानी
=शे’र में 8-बार ] इस्तेमाल हुआ है तो हम इसे ’मुसम्मन’ कहेंगे। तब बह्र का पूरा नाम होगा----बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम--। हम प्राय: इसे
122---122---122---122-- कर के दिखाते हैं । इस बह्र के बारे में या अन्य बह्र के बारे में आगे विस्तार से बात की गई है । मान लीजिए अगर किसी शे’र के एक मिसरे मे 3-ही अर्कान
यानी पूरे शे’र मे 6-अर्कान होते तो ] हम फ़िर मुसम्मन नहीं कहते बल्कि ’मुसद्दस’ कहते हैं ।
शे’र के मुक़ामात के लिए उदाहरण के तौर पर कोई एक शे’र ले लेते है । मान लीजिए 5-वाँ शे’र लेते हैं
--A---- /---B---/ ---C---/ --D--
तू शाहीं /है परवा/ज़ है का/म तेरा
-------------------------------
--E----/---F--/--G------/--H-
तेरे सा/मने आ/ समाँ औ /र भी हैं
सद्र = A =-- तू शाहीं --[ 1 2 2 ]
अरूज़ =D =--म तेरा - - [ 1 2 2 ]
इब्तिदा =E = --तेरे सा-- [ 1 2 2 ]
अरूज़ =H = -र भी है [ 1 2 2 ]
हस्व = B--C--F--G = है परवा= ज है का--= मने आ--= समाँ और--= सभी 1 2 2
नोट-1- आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि --तू--है---तेरे का -ते--देखने में तो - 2 -वज़न का लगता है मगर यहाँ -1- के वज़न पर क्यों लिया गया ?[ देखिए किस्त -75 ]
2- यह तो मुसम्मन शे’र था तो इसमें 4- हस्व आ गया। अगर यह शे’र ’मुसद्दस’ होता तो 2- ही हस्व आता है । और मुरब्ब: शे’र होता तो कोई ’हस्व का मुक़ाम नहीं होता । सोचिए क्यों ?
कसरा-ए-इज़ाफ़त = आलम-ए-रंग -या - मुक़ामात-ए-आह आदि जैसे शब्द-संयोजन को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त कहते हैं । -ए- यहाँ कसरा-ए-इज़ाफ़त है किसका अर्थ यहा है [ रंग की दुनिया ]
वाव -ए- अत्फ़ = रंग-ओ -बू या आह-ओ-फ़ुग़ाँ --आदि जैसे शब्द संयोजन को ’वाव-ए-अत्फ़’ कहते है । =वाव-यहाँ संयोजक है दो शब्दों का जिसका अर्थ होता है "और"
ग़ज़ल 02
2122--------/--1212-----/-22
वक़्त-ए-पीरी/ शबाब की / बातें
ऐसी हैं जै /सी ख़्वाब की/ बातें 1
उसके घर ले चला मुझे देखो
दिल-ए-ख़ाना ख़राब की बातें 2
मुझको रुस्वा करेंगी ख़ूब ऎ दिल
ये तेरी इज़्तराब की बातें 3
देख ऎ दिल न छेड़ किस्सा-ए-ज़ुल्फ़
कि ये हैं पेंच-ओ-ताब की बातें 4
जिक्र क्या जोश-ए-इश्क़ में ऎ ’ ज़ौक़’
हम से हों सब्र-ओ-ताब की बातें 5
-ज़ौक़-
नोट -वैसे मूल ग़ज़ल में 11-अश’आर हैं । हमने चर्चा के लिए यहाँ मात्र 5-ही अश;आर का इन्तख़ाब [ चुनाव है] किया है ।
इस ग़ज़ल में --
शे’र की संख्या = 5 [ किसी ग़ज़ल में कितने शे’र हो सकते है या होने चाहिए .इस पर अरूज़ ख़ामोश है ]
मतला = पहला शे’र न-1 = जिसके दोनो मिसरों का ’हम क़ाफ़िया- --शबाब- और -ख़्वाब - है
मतला का मिसरा ऊला = वक़्त-ए-पीरी------
मतला का मिसरा सानी = ऐसी हैं जैसे -----
[ वैसे हर शे’र का पहला मिसरा - मिसरा उला कहलाता है और दूसरा मिसरा मिसरा सानी कहलाता है ।
हुस्न-ए-मतला = इस ग़ज़ल में ’हुस्न-ए-मतला; नहीं है । अगर होता तो ठीक ’मतला’ के नीचे आता और उसके भी दोनों मिसरे " हम काफ़िया" होते।
मक़ता = आख़िरी शे’र -5 = यहाँ पर शायर ने अपना तख़्ल्लुस ; ज़ौक़ : डाला है । उनका असल नाम -शेख़ इब्राहिम था । ज़ौक़-इनका तख़्ल्लुस्स था । यह उस्ताद शायर थे । मक़्ता में तख़्ल्लुस डालना कोई अनिवार्य शर्त
नहीं है । ग़ज़ल में कोई न कोई शे’र तो आख़िरी होगा ही ।वही मक़्ता होगा।
क़ाफ़िया = काफ़िया का बहु वचन ’क़वाफ़ी’ है। यहाँ क़वाफ़ी हैं---शबाब--ख़्वाब---ख़राब---इज़्तराब---ताब---वग़ैरह
हर शे’र के मिसरा सानी में "हम क़ाफ़िया" आना ज़रूरी है लाज़िमी है । क़ाफ़िया का अर्थ पूर्ण [ बा मा’नी होना ] ज़रूरी है ।
रदीफ़ = यहाँ रदीफ़ - की बातें -- । रदीफ़ एक शब्द लफ़्ज़ भी हो सकता है या एक जुमला भी हो सकता है ।रदीफ़ का मतला [ और हुस्न-ए-मतला भी ]
के दोनो मिसरों में और हर शे’र के मिसरा सानी में आना ज़रूरी है ।
अर्कान = इस ग़ज़ल में जो मुरक्क़ब रुक्न [ यानी 2 किस्म के - सालिम रुक्न और उस पर ज़िहाफ़ लगा हुआ - इस्तेमाल हुआ है॥ इसी लिए इसे मुरक़्क़ब बह्र कहते है
और ज़िहाफ़ लगा हुए अर्कान है तो मुरक़्क़ब मुज़ाहिफ़ बह्र कहेंगे । सालिम बह्र नहीं कहेंगे।-उसका नाम "फ़ऊलुन "[ 1 2 2 ] है और बिना किसी काट-छाँट के --पूरा का पूरा सालिम शकल में इस्तेमाल
हुआ है अत: इसे "सालिम बह्र " कहेंगे। मान लीजिए अगर किसी कारण वश [ ज़िहाफ़ के कारण ] जो अर्कान इस्तेमाल हुए हैं--वो हैं --फ़ाइलातुन---मुसतफ़इलुन--फ़ाइलातुन [ 2122--2212--2122-
बह्र = यह मुरक़्क़ब बह्र है ।और चूंकि एक मिसरा में 3-अर्कान [यानी पूरे शेर में 6- अर्कान ] अत: इसे हम ’मुसद्दस" कहेंगे और चूंकि यह अर्कान अपने मुज़ाहिफ़ शकल में इस्तेमाल हुए है
इस बह्र का ख़ास नाम है -- बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ - है
शे;र के मुक़ामात
शे’र के मुक़ामात के लिए उदाहरण के तौर पर कोई एक शे’र ले लेते है । मान लीजिए पहला शे’र लेते हैं यहाँ
--A---- /---B-- -/ ---C--
वक़्त-ए-पीरी/ शबाब की / बातें
-------------------------------
--E---- /---F- -/--G---
ऐसी हैं जै /सी ख़्वाब की/ बातें
सद्र = A =-- वक़्त-ए-पीरी [2 1 2 2 ]
अरूज़ = C =-- बातें [ 2 2 ]
इब्तिदा =E = --ऐसी है जै-- -[ 2 1 2 2 ]
अरूज़ = G = --बातें [ 2 2 ]
हस्व = B---F-= --शबाब की--- सी ख़्वाब की [ 1 2 1 2 ]
नोट- यह शे’र ’मुसद्दस’ होता तो 2- ही हस्व आया । और मुरब्ब: शे’र होता तो कोई ’हस्व का मुक़ाम नहीं आता । सोचिए क्यों ?
कसरा-ए-इज़ाफ़त = वक़्त-ए-पीरी / दिल-ए-ख़ाना / किस्सा-ए-ज़ुल्फ़/ जोश-ए-इश्क़ -आदि जैसे शब्द-संयोजन को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त कहते हैं । -ए- यहाँ कसरा-ए-इज़ाफ़त है किसका अर्थ होता है -का-
वाव -ए- अत्फ़ = पेच-ओ-ताब/सब्र-ओ-ताब --आदि जैसे शब्द संयोजन को ’वाव-ए-अत्फ़’ कहते है । =वाव-यहाँ संयोजक है दो शब्दों का जिसका अर्थ होता है "और"
तक़्तीअ’ = तक़्तीअ’ का शब्दकोशीय अर्थ तो होता है किसी चीज़ के टुकड़े टुकड़े करना । पर शायरी के सन्दर्भ में किसी शे’र [ या मिसरा] के टुकड़े टुकड़े करना । यह एक अमल है जिससे किसी शे’र या मिसरा का पता
लगाते है कि मिसरा सही वज़न या बह्र में है या नहीं । यानी मिसरा बह्र से कहीं ख़ारिज़ तो नहीं है । इसके भी अपने उसूल हैं होते हैं । तक़्तीअ’ हमेशा ’तलफ़्फ़ुज़’ [ शे’र के अल्फ़ाज़ के उच्चारण ] के अनुसार ही
होती है ---लिखे हुए अल्फ़ाज़ [ मक़्तूबी ] पर नहीं होता । तक़्तीअ’ में नून गुन्ना की गणना नहीं करते। मिसरा के टुकड़े -- मान्य बह्र और अर्कान के मुताबिक़ किया जाता है और देखते है कि अर्कान के ’मुतहर्रिक ’ की जगह
कोई मुतहर्रिक हर्फ़ और साकिन के मुक़ाम की जगह ’साकिन’ हर्फ़ आ रहा है कि नही । अगर अर्कान के अनुसार आ रहे हैं तो मिसरा बह्र में है ,वरना ख़ारिज़ है।तक़्तीअ’ पर विस्तार से किसी मुनासिब मुक़ाम परअलग से बात करेंगे।
जैसे -इक़बाल का एक शे’र है --
न आते हमें इसमे तक़रार क्या थी
मगर वादा करते हुए आर क्या थी
हम जानते हैं कि यह शे’र मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में है । कैसे? सतत अभ्यास से समझ में आ जायेगा। अत: इस मिसरा के टुकड़े भी वैसे ही करेंगे।
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
न आते /हमें इस/ मे तक़ रा /र क्या थी
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
मगर वा/ दा करते / हुए आ /र क्या थी
यह शे’र बिलकुल वज़न में है और बह्र में है और यह तक़्तीअ से ही पता चलेगा।
मैं यह तो दावा नहीं करता कि सभी बुनियादी इस्तलाहात [ परिभाषाओं ] पर बात कर ली ।अगर आइन्दा मज़ीद [अतिरिक्त ] बुनियादी परिभाषायें वक़्तन फ़क़्तन [ समय समय पर ] याद आते रहेंगे--या ज़रूरत महसूस होती रहेगी तो यहाँ पर लिखता चलूँगा।
नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com
जनाब पाठक साहब ढेर सारी जानकारियों के लिए शुक्रिया. बराए मेहरबानी काफिया पर एक पोस्ट लिखिये
ReplyDeleteजी सर्वेश जी --ज़रूर लिखूँगा। अभी तक वर्षों से उपेक्षित अपने ब्लाग को नया रूप परिवर्धन और अपरिवर्तन में व्यस्त हूं। कफ़िया पर भी जल्द ही एक आलेख प्रस्तुत करूंगा---सादर
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-11-2020) को "चाँद ! तुम सो रहे हो ? " (चर्चा अंक- 3875) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
-- सुहागिनों के पर्व करवाचौथ की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत धन्यवाद आप का शास्त्री जी
Deleteसादर
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteओंकार जी--आभारी हूं आप का।
ReplyDeleteसादर