Monday, August 16, 2021

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 80 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें [ भाग -1 ]

 क़िस्त 80 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें [ भाग -1]

विशेष नोट = इस विषय पर पूर्व  जानकारी के लिए क़िस्त 70 -81--105  भी देख सकते है --

-पिछली क़िस्त 70 में चर्चा की थी कि इज़ाफ़त अपने से पहले वाले शब्द के आखिरी हर्फ़ को वज़न के लिहाज़ से कैसे शे;र में कैसे मुतस्सिर [ प्रभावित ] करता है।

बह्र कैसे प्रभावित होती है ।क्यों हम उस हर्फ़ का वज़न कभी -1- लेते हैं कभी -2- लेते हैं ।

लफ़्ज़  A -e- लफ़्ज़ B  इज़ाफ़त की शक्ल की

तीन स्थितियाँ हो सकती है 

[X]   लफ़्ज़  A -का आखिरी हर्फ़ ’साकिन’ हो जैसे  दर्द-ए-दिल--ग़मे-दिल , राज़-ए-दिल--ज़ेर-ए-नज़र--बयान-ए-शोखी ---आदि जिसमें पहले शब्द के का-द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ] हो

वैसे भी उर्दू का हर हर्फ़ -साकिन-[ आप इसे हलन्त टाइप की आवाज़ समझ लें ] पर ही गिरता है । यह आप जानते होंगे।और यह इज़ाफ़त इन साकिन हर्फ़ को [ मुतहर्रिक ] कर देती है यानी -1- के वज़न पर कर देती है 

[Y]  लफ़्ज़  A --का आखिरी हर्फ़ पर -आ [ अलिफ़ ]- या -ऊ [ वाव ] का स्वर  जुड़ा हो जैसे -सीना-ए-सर ,तमाशा-ए-अहल-ए-करम ,दर्या-ए-दिल, दुआ-ए-मग्फ़िरत, दवा-ए-मरज़ . ---या  ख़ुश्बू-ए-चमन ,बू-ए-गुल--आदि

{ ऐसे ’अलिफ़’ या ; वाव’ को जो अपने से पहले वाले हर्फ़ कॊ खींच कर स्वर देते है उसे ]अलिफ़-ए-इल्लत या वा-ए-इल्लत कहते है -बस ऐसे ही लिख दिया आप लोगों की जानकारी के लिए। 

जब हम कहते है कि अमुक क़ाफ़िया में -अलिफ़ का क़ाफ़िया है तो दर अस्ल वह -अलिफ़-ए- इल्लत -का क़ाफ़िया होता है जिसे हम -आ- का क़ाफ़िया समझते है जैसे--ख़ुदा- वफ़ा--सज़ा--रफ़ा-दफ़ाआदि आदि 

[Z]  लफ़्ज़  A ---का आखिरी हर्फ़ पर -ई [ या] का स्वर जुड़ा हो जैसे दीवानगी-ए-शौक़. तीरगी-ए-वहम--हस्ती-ए-अशिया आदि। 

आज हम यहाँ  [X] क़िस्म के इज़ाफ़त पर मज़ीद [ अतिरिक्त ]बात करेंगे। कुछ बातें क़िस्त 70 में भी कर चुके हैं

इस टाईप के इज़ाफ़त में आप को दो आप्शन मिलते है । 

[1] पहले शब्द के आख़िरी हर्फ़ -द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ]-को हल्का सा ज़बर /जोर देकर पढ़े [ मुतहर्रिक के वज़न पर ] यानी -1- के वज़न पढ़े -जैसे द-म-ज़-र-न [1]

[2]  पहले शब्द के आख़िरी का आख़िरी हर्फ़   द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ] को खींच कर पड़े जैसे ---दे-मे-ज़े-रे--ने   [ 2] की वज़न पर । इस खींचने की क्रिया को उर्दू में ’इस्बाअ’ कहते है

 मरजी आप की --जैसे बहर की माँग हो --रुक्न की ’डिमांड’ हो -वैसे पढ़ेंगे। शे’र का  बह्र और वज़न क़ायम रहे । आप के पास दोनो विकल्प मौजूद है ।

उदाहरण के लिए  ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल लेते हैं । बहुत ही आसान बह्र की ग़ज़ल है ।आप ने भी पढ़ी होगी या सुनी होगी।

122----122-----122----122

जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं

खियाबां ख़ियाबा  इरम देखते है 1


दिल-आशुफ़्तगा, ख़ाल-ए-कुंज-ए-दहन है

सुवैदा में सैर-ए-अदम देखते है 2


तेरे सर्व-ए-कामत में इक कद्द-ए-आदम

क़यामत में फ़ित्ने को कम देखते हैं 3


तमाशा कि ऎ मह्व-ए-आइनादारी

तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं 4


सुराग-ए-तुफ़-ए-नाला ले दाग़-ए-दिल से

कि शब-रौ का नक़्श-ए-क़दम देखते हैं 5


बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ’ग़ालिब’

तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते है 6

 इस ग़ज़ल में जहाँ [X] टाईप की इज़ाफ़त का इस्तेमाल हुआ है बस उसी उसी मिसरा की तक़्तीअ’ कर के देखते है

यदि आप चाहें तो पूरी ग़ज़ल की तक्तीअ’ आप ख़ुद कर लें -आत्मविश्वास बढ़ेगा।

शे’र 1-

1   2 2 / 1  2   2     /  1   2  2 / 1 2 2

जहाँ ते/ रा नक़् श-ए/-क़ दम दे/ख ते हैं

यहाँ --श- को खींच कर पढ़ना है -2- की वज़न पर यहाँ श-ए-= शे [2] की आवाज़ सुनाई देनी चाहिए क्यों कि बह्र और रुक्न की यहाँ यही माँग है 

यहाँ कैसे इज़ाफ़त ने -श- [1] को [2] कर दिया 

शे’र 2-

1 2    2       / 1   2   2   / 1  2    2       /  1 2  2

दिल-आशुफ़/ त गा , ख़ा’/ ल-ए-कुंज-ए-/ द हन है

यहाँ दिल-आशुफ़्तगा में लाम में अलिफ़ का वस्ल है तो हम इसे -दि-ला-शुफ़  [ 122 ] पढ़ेंगे

ख़ाल-ए-कुंज-ए = में  इज़ाफ़त नें -ल-[ लाम ] को -1-मुतहर्रिक कर दिया और इसी इज़ाफ़त ने कुंज-ए- में -ज को -2- कर दिया । बह्र और वज़न सर्वोपरि राजन !

इसीलिए हम नहीं कह सकते कि इज़ाफ़त -ए-  सदा --1- का ही वज़न देगा या सदा-2- का ही वज़न देगा । जैसी बह्र और रुक्न की माँग होगी वो वज़न देगा।

शे’र 6- 

1   2     2 /  1  2     2 / 1  2   2  / 1    2    2 

सुराग-ए-/ तु फ़-ए-ना/ला ले दा/ ग़-ए-दिल से

यहाँ -ग- -ए-[ इज़ाफ़त ]  के साथ मिलकर -गे [ 2] का वज़न देगा --रुक्न की माँग तभी सन्तुष्ट होगी।यानी सुराग-ए- = सुरागे [ 1 2 2 ] इज़ाफ़त के कारण

वरना तो सुराग तो 121 के वज़न पर ही था । यही बात दूसरे रुक्न -फ़-ए- = फ़े [2 ] के साथ भी है 

अब आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि -नाला- का -ला- को -1- के वज़न पर क्यों ? देखने में तो -2- का वज़न लगता है ।

जी बिलकुल जायज़ सवाल है । हम हिंदी वाले -नाला- को -लाम पर अलिफ़ समझते है जब कि उर्दॊ में इसका सही तलफ़्फ़ुज़ =नाल: है -यानी लाम 

मुतहर्रिक  है अत: -1- के वज़न पर लिया जायेगा ।

उसी प्रकार दाग़-ए-दिल में -ग़ -इज़ाफ़त के कारण -1- [ मुतहर्रिक ] का वज़न देगा । वरना stand alone दाग़ -में -ग़- साकिन ही होता है । ख़ैर

बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर लें । अगर कहीं दिक्कत महसूस हो तो यह बन्दा हाज़िर है।मुझे लगता नहीं है कि आप लोगों को कोई दिक्कत पेश आयेगी।

अच्छा । 

अब [Y]   टाइप के इज़ाफ़त की चर्चा कर लेते हैं 


[Y]  लफ़्ज़  A --का आखिरी हर्फ़ पर -आ [ अलिफ़ ]- या -ऊ [ वाव ] का स्वर  जुड़ा हो जैसे 

   लफ़्ज़ A -e- लफ़्ज़ B जिसमे लफ़्ज़ A का आख़िरी हर्फ़ -आ - या -ऊ- क़िस्म का हो जैसे

सरगस्ता-ए-ख़ुमार . , नाला-ए-दिल, बू-ए-गुलाब ,जल्वा-ए-गुल ,दीदा-ए-अख़्तर .ख़ाना-ए-आशिक़--दर्या-ए-दिल या वफ़ा---सज़ा----दगा---शिकस्ता----के साथ इजाफ़त वग़ैरह वग़ैरह 

ऐसे केस में इज़ाफ़त दिखाने के लिए --पहले शब्द के आखिरी हर्फ़ के आगे -ए- लगा कर दिखाते है --उर्दू में भी ,हिंदी में भी।

इस इज़ाफ़त -ए-  का शे’र पर क्या प्रभाव पड़ेगा --देखते हैं

ग़ालिब के शे’र से ही देखते हैं 


बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ’ग़ालिब’

तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते है 


तमाशा-ए-अहले-करम --में दोनॊ टाईप के इज़ाफ़त इस्तेमाल किए गये है 

अब इसकी तक़्तीअ’ कर के मुतमइन [ निश्चिन्त ] हो लेते हैं 

122----122----122-----122

तमाशा/-ए-अहले-/करम दे/ खते है 

बज़ाहिर -ए- यहाँ -1- के वज़न पर लिया जायेगा


अब दूसरा शे’र लेते है--ग़ालिब का ही

2122----1122-----22


फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया

दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया


इसमें भी Y Type  इज़ाफ़त का इस्तेमाल हुआ है

तक़्तीअ’ कर के देखते हैं 

2   1 2    2 / 1 1  2     2  / 2  2 

फिर मुझे दी/ द: -ए-तर या/ द आया-----याद+आया= यादाया [ अलिफ़ का वस्ल हो गया है]

बज़ाहिर -ए-का  वज़न-1- पर आया

2       1   2   2  / 1 1  2     2   / 2  2 

दिल जिगर तश्/ न:-ए-फ़र या /द आया

बज़ाहिर -ए-का  वज़न-1- पर आया


अब चन्द अश’आर ऐसे देखते है जिसमे इज़ाफ़त के पहले शब्द का आख़िरी हर्फ़ -ऊ- पर गिरता हो --

ग़ालिब का ही एक मिसरा है-


नहीं देखा शनावर-जू-ए-खूँ  में तेरे तौसन को---और बह्र है

1222---1222---1222--1222

अब इसकी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं कि -ए- का वज़न क्या उतरता है 


1222---   /-1222       /--1222--  /-1222 

नहीं देखा / शनावर-जू-/ ए-खूँ  में ते/ र तौसन को

बज़ाहिर -ए- [ इज़ाफ़त ] -1- की वजन पर लिया गया है 


अब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक शे’र देखते है-बह्र है 1212--1122--1212--112


 मक़ाम फ़ैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले- तो सू-ए-दार चले


 अब इसकी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं 

1   2   1 2 / 1  1 2  2  / 1 2 1 2 ’ 1 1 2

 मक़ाम फ़ै/ ज़ कोई रा / ह में जँचा /ही नहीं


1    2  1  2  / 1 1 2  2   / 1 2    1  2 / 1 1 2

जो कू-ए-या /र से निकले-/ तो सू-ए-दा /र चले


बज़ाहिर मिसरा सानी में -ए- [ इजाफ़त ] को -1- के वज़न पर लिया गया है।

हम ऐसे ही बहुत से उदाहरण देख सकते है कि इज़ाफ़त-ए- का वज़न -1- पर लिया गया है


अब अगली क़िस्त 81 में हम [Z]  लफ़्ज़  A ---का आखिरी हर्फ़ पर -ई [ या] का स्वर जुड़ा हो जैसे दीवानगी-ए-शौक़. तीरगी-ए-वहम--आदि। 

पर इज़ाफ़त की चर्चा करेंगे।

[ नोट -इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो ज़रूर निशानदिही फ़रमाएँ कि आइन्दा मैं खुद को दुरुस्त कर सकूं~।


-आनन्द.पाठक- 

Mb 8800927181

Email  akpathak3107@gmail.com

दिनांक 16-अगस्त-21





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