क़िस्त 80 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें [ भाग -1]
विशेष नोट = इस विषय पर पूर्व जानकारी के लिए क़िस्त 70 -81--105 भी देख सकते है --
-पिछली क़िस्त 70 में चर्चा की थी कि इज़ाफ़त अपने से पहले वाले शब्द के आखिरी हर्फ़ को वज़न के लिहाज़ से कैसे शे;र में कैसे मुतस्सिर [ प्रभावित ] करता है।
बह्र कैसे प्रभावित होती है ।क्यों हम उस हर्फ़ का वज़न कभी -1- लेते हैं कभी -2- लेते हैं ।
लफ़्ज़ A -e- लफ़्ज़ B इज़ाफ़त की शक्ल की
तीन स्थितियाँ हो सकती है
[X] लफ़्ज़ A -का आखिरी हर्फ़ ’साकिन’ हो जैसे दर्द-ए-दिल--ग़मे-दिल , राज़-ए-दिल--ज़ेर-ए-नज़र--बयान-ए-शोखी ---आदि जिसमें पहले शब्द के का-द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ] हो
वैसे भी उर्दू का हर हर्फ़ -साकिन-[ आप इसे हलन्त टाइप की आवाज़ समझ लें ] पर ही गिरता है । यह आप जानते होंगे।और यह इज़ाफ़त इन साकिन हर्फ़ को [ मुतहर्रिक ] कर देती है यानी -1- के वज़न पर कर देती है
[Y] लफ़्ज़ A --का आखिरी हर्फ़ पर -आ [ अलिफ़ ]- या -ऊ [ वाव ] का स्वर जुड़ा हो जैसे -सीना-ए-सर ,तमाशा-ए-अहल-ए-करम ,दर्या-ए-दिल, दुआ-ए-मग्फ़िरत, दवा-ए-मरज़ . ---या ख़ुश्बू-ए-चमन ,बू-ए-गुल--आदि
{ ऐसे ’अलिफ़’ या ; वाव’ को जो अपने से पहले वाले हर्फ़ कॊ खींच कर स्वर देते है उसे ]अलिफ़-ए-इल्लत या वा-ए-इल्लत कहते है -बस ऐसे ही लिख दिया आप लोगों की जानकारी के लिए।
जब हम कहते है कि अमुक क़ाफ़िया में -अलिफ़ का क़ाफ़िया है तो दर अस्ल वह -अलिफ़-ए- इल्लत -का क़ाफ़िया होता है जिसे हम -आ- का क़ाफ़िया समझते है जैसे--ख़ुदा- वफ़ा--सज़ा--रफ़ा-दफ़ाआदि आदि
[Z] लफ़्ज़ A ---का आखिरी हर्फ़ पर -ई [ या] का स्वर जुड़ा हो जैसे दीवानगी-ए-शौक़. तीरगी-ए-वहम--हस्ती-ए-अशिया आदि।
आज हम यहाँ [X] क़िस्म के इज़ाफ़त पर मज़ीद [ अतिरिक्त ]बात करेंगे। कुछ बातें क़िस्त 70 में भी कर चुके हैं
इस टाईप के इज़ाफ़त में आप को दो आप्शन मिलते है ।
[1] पहले शब्द के आख़िरी हर्फ़ -द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ]-को हल्का सा ज़बर /जोर देकर पढ़े [ मुतहर्रिक के वज़न पर ] यानी -1- के वज़न पढ़े -जैसे द-म-ज़-र-न [1]
[2] पहले शब्द के आख़िरी का आख़िरी हर्फ़ द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ] को खींच कर पड़े जैसे ---दे-मे-ज़े-रे--ने [ 2] की वज़न पर । इस खींचने की क्रिया को उर्दू में ’इस्बाअ’ कहते है
मरजी आप की --जैसे बहर की माँग हो --रुक्न की ’डिमांड’ हो -वैसे पढ़ेंगे। शे’र का बह्र और वज़न क़ायम रहे । आप के पास दोनो विकल्प मौजूद है ।
उदाहरण के लिए ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल लेते हैं । बहुत ही आसान बह्र की ग़ज़ल है ।आप ने भी पढ़ी होगी या सुनी होगी।
122----122-----122----122
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
खियाबां ख़ियाबा इरम देखते है 1
दिल-आशुफ़्तगा, ख़ाल-ए-कुंज-ए-दहन है
सुवैदा में सैर-ए-अदम देखते है 2
तेरे सर्व-ए-कामत में इक कद्द-ए-आदम
क़यामत में फ़ित्ने को कम देखते हैं 3
तमाशा कि ऎ मह्व-ए-आइनादारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं 4
सुराग-ए-तुफ़-ए-नाला ले दाग़-ए-दिल से
कि शब-रौ का नक़्श-ए-क़दम देखते हैं 5
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ’ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते है 6
इस ग़ज़ल में जहाँ [X] टाईप की इज़ाफ़त का इस्तेमाल हुआ है बस उसी उसी मिसरा की तक़्तीअ’ कर के देखते है
यदि आप चाहें तो पूरी ग़ज़ल की तक्तीअ’ आप ख़ुद कर लें -आत्मविश्वास बढ़ेगा।
शे’र 1-
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
जहाँ ते/ रा नक़् श-ए/-क़ दम दे/ख ते हैं
यहाँ --श- को खींच कर पढ़ना है -2- की वज़न पर यहाँ श-ए-= शे [2] की आवाज़ सुनाई देनी चाहिए क्यों कि बह्र और रुक्न की यहाँ यही माँग है
यहाँ कैसे इज़ाफ़त ने -श- [1] को [2] कर दिया
शे’र 2-
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
दिल-आशुफ़/ त गा , ख़ा’/ ल-ए-कुंज-ए-/ द हन है
यहाँ दिल-आशुफ़्तगा में लाम में अलिफ़ का वस्ल है तो हम इसे -दि-ला-शुफ़ [ 122 ] पढ़ेंगे
ख़ाल-ए-कुंज-ए = में इज़ाफ़त नें -ल-[ लाम ] को -1-मुतहर्रिक कर दिया और इसी इज़ाफ़त ने कुंज-ए- में -ज को -2- कर दिया । बह्र और वज़न सर्वोपरि राजन !
इसीलिए हम नहीं कह सकते कि इज़ाफ़त -ए- सदा --1- का ही वज़न देगा या सदा-2- का ही वज़न देगा । जैसी बह्र और रुक्न की माँग होगी वो वज़न देगा।
शे’र 6-
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2
सुराग-ए-/ तु फ़-ए-ना/ला ले दा/ ग़-ए-दिल से
यहाँ -ग- -ए-[ इज़ाफ़त ] के साथ मिलकर -गे [ 2] का वज़न देगा --रुक्न की माँग तभी सन्तुष्ट होगी।यानी सुराग-ए- = सुरागे [ 1 2 2 ] इज़ाफ़त के कारण
वरना तो सुराग तो 121 के वज़न पर ही था । यही बात दूसरे रुक्न -फ़-ए- = फ़े [2 ] के साथ भी है
अब आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि -नाला- का -ला- को -1- के वज़न पर क्यों ? देखने में तो -2- का वज़न लगता है ।
जी बिलकुल जायज़ सवाल है । हम हिंदी वाले -नाला- को -लाम पर अलिफ़ समझते है जब कि उर्दॊ में इसका सही तलफ़्फ़ुज़ =नाल: है -यानी लाम
मुतहर्रिक है अत: -1- के वज़न पर लिया जायेगा ।
उसी प्रकार दाग़-ए-दिल में -ग़ -इज़ाफ़त के कारण -1- [ मुतहर्रिक ] का वज़न देगा । वरना stand alone दाग़ -में -ग़- साकिन ही होता है । ख़ैर
बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर लें । अगर कहीं दिक्कत महसूस हो तो यह बन्दा हाज़िर है।मुझे लगता नहीं है कि आप लोगों को कोई दिक्कत पेश आयेगी।
अच्छा ।
अब [Y] टाइप के इज़ाफ़त की चर्चा कर लेते हैं
[Y] लफ़्ज़ A --का आखिरी हर्फ़ पर -आ [ अलिफ़ ]- या -ऊ [ वाव ] का स्वर जुड़ा हो जैसे
लफ़्ज़ A -e- लफ़्ज़ B जिसमे लफ़्ज़ A का आख़िरी हर्फ़ -आ - या -ऊ- क़िस्म का हो जैसे
सरगस्ता-ए-ख़ुमार . , नाला-ए-दिल, बू-ए-गुलाब ,जल्वा-ए-गुल ,दीदा-ए-अख़्तर .ख़ाना-ए-आशिक़--दर्या-ए-दिल या वफ़ा---सज़ा----दगा---शिकस्ता----के साथ इजाफ़त वग़ैरह वग़ैरह
ऐसे केस में इज़ाफ़त दिखाने के लिए --पहले शब्द के आखिरी हर्फ़ के आगे -ए- लगा कर दिखाते है --उर्दू में भी ,हिंदी में भी।
इस इज़ाफ़त -ए- का शे’र पर क्या प्रभाव पड़ेगा --देखते हैं
ग़ालिब के शे’र से ही देखते हैं
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ’ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते है
तमाशा-ए-अहले-करम --में दोनॊ टाईप के इज़ाफ़त इस्तेमाल किए गये है
अब इसकी तक़्तीअ’ कर के मुतमइन [ निश्चिन्त ] हो लेते हैं
122----122----122-----122
तमाशा/-ए-अहले-/करम दे/ खते है
बज़ाहिर -ए- यहाँ -1- के वज़न पर लिया जायेगा
अब दूसरा शे’र लेते है--ग़ालिब का ही
2122----1122-----22
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया
इसमें भी Y Type इज़ाफ़त का इस्तेमाल हुआ है
तक़्तीअ’ कर के देखते हैं
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2
फिर मुझे दी/ द: -ए-तर या/ द आया-----याद+आया= यादाया [ अलिफ़ का वस्ल हो गया है]
बज़ाहिर -ए-का वज़न-1- पर आया
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2
दिल जिगर तश्/ न:-ए-फ़र या /द आया
बज़ाहिर -ए-का वज़न-1- पर आया
अब चन्द अश’आर ऐसे देखते है जिसमे इज़ाफ़त के पहले शब्द का आख़िरी हर्फ़ -ऊ- पर गिरता हो --
ग़ालिब का ही एक मिसरा है-
नहीं देखा शनावर-जू-ए-खूँ में तेरे तौसन को---और बह्र है
1222---1222---1222--1222
अब इसकी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं कि -ए- का वज़न क्या उतरता है
1222--- /-1222 /--1222-- /-1222
नहीं देखा / शनावर-जू-/ ए-खूँ में ते/ र तौसन को
बज़ाहिर -ए- [ इज़ाफ़त ] -1- की वजन पर लिया गया है
अब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक शे’र देखते है-बह्र है 1212--1122--1212--112
मक़ाम फ़ैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले- तो सू-ए-दार चले
अब इसकी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं
1 2 1 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2 ’ 1 1 2
मक़ाम फ़ै/ ज़ कोई रा / ह में जँचा /ही नहीं
1 2 1 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2 / 1 1 2
जो कू-ए-या /र से निकले-/ तो सू-ए-दा /र चले
बज़ाहिर मिसरा सानी में -ए- [ इजाफ़त ] को -1- के वज़न पर लिया गया है।
हम ऐसे ही बहुत से उदाहरण देख सकते है कि इज़ाफ़त-ए- का वज़न -1- पर लिया गया है
अब अगली क़िस्त 81 में हम [Z] लफ़्ज़ A ---का आखिरी हर्फ़ पर -ई [ या] का स्वर जुड़ा हो जैसे दीवानगी-ए-शौक़. तीरगी-ए-वहम--आदि।
पर इज़ाफ़त की चर्चा करेंगे।
[ नोट -इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो ज़रूर निशानदिही फ़रमाएँ कि आइन्दा मैं खुद को दुरुस्त कर सकूं~।
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181
Email akpathak3107@gmail.com
दिनांक 16-अगस्त-21
बहुत सुन्दर और सार्थक।
ReplyDeleteआभार आप का
ReplyDeleteसादर