ग़ालिब ने कहा था ---शायरी सिर्फ़ क़ाफ़िया पैमाइश ही नहीं --मा’नी आफ़्रीनी का नाम है। बिलकुल सही कहा।
आजकल जो शायरी /ग़ज़ल देखते हैं उसमे ज़्यादातर ’क़ाफ़िया पैमाईश " ही है जिसे बहुत से लोग ’तुकबन्दी’ भी कहते है।
इसी तुकबन्दी पर शरद तैलंग साहब [कोटा निवासी] का एक शे’र याद आ रहा है---
अगर आप ने मिर्ज़ा ग़ालिब फ़िल्म [ नसरुउद्दीन शाह अभिनीत और गुलज़ार द्वारा निर्देशित] देखी हो तो लालकिले में आयोजित
एक मुशायरे का सीन आता है जिसमे ग़ालिब साहब फ़ेटें से एक पुर्ज़ा निकालते है और एक ग़ज़ल पढ़ रहे हैं--और बड़े मगन
होकर पढ़ रहे हैं
पास के एक शायर ने वह पुर्ज़ा उलट-पुलट कर देखा उसमे कुछ भी नही लिखा था -न ग़ज़ल -न क़ाफ़िया मगर ग़ालिब साहब शे’र दर शे’र क़ाफ़िया दर क़ाफ़िया लगाते जा रहे थे} यानी उन्होने पहले से कोई क़ाफ़िया
पैमाइश नहीं की थी बस शे’र सरज़द [ निकल ] हो रहे थे और क़ाफ़िया शे’र के मानी के हिसाब से अपने आप
"नेचुरली’ आते जा रहे थे जिसे ग़ालिब -मा’नी आफ़्रीनी कह्ते थे।
मगर सब ग़ालिब तो नहीं हो सकते ।
ख़ैर
"क़ाफ़िया पैमाइश "--से मुराद यह है कि अगर मतला में कोई क़ाफ़िया बाँध दिया --मसलन
ख़बर--नज़र
तो फिर एक पन्ने पर आगे के 10-12 क़ाफ़िए लिख लेगे --जैसे -असर--सहर--शरर--इधर--उधर
[ यानी पहले क़ाफ़िया पैमाइश कर लेंगे] तब शे’र आगे कहेंगे आगे के क़वाफ़ी को मद्दे नज़र रखते हुए
कभी कभी ऐसे शे’र मा’नी से दूर भी हो जाते हैं।
ग़ालिब का कहना है --आप शे’र कहें और क़ाफ़िया को अपने आप स्वत: Natural flow में आने दें।
[ मा’नी आफ़्रीनी होने दीजिए] इसी लिए आप ने देखा होगा कि क़ाफ़िया ’रीपीट’ भी हो जाता है और हो भी सकता है शर्त यह कि शे’र नए मा’नी में हो।
मगर यह इतना आसान है क्या?
नहीं । इसके लिए आप के पास शब्द का काफ़ी बड़ा भंडार होना चाहिए। अनुभव होना चाहिए।क़ाफ़िया का भंडार होना चाहिए कि क़ाफ़िया तंग न पड़े, जो सबके पास नहीं होता।
ज़्यादातर शायर क़ाफ़िया पैमाइश का ही सहारा लेते है और शे’र कहते हैं।
आजकल तो क़ाफ़िया बन्दी के नाम पर हिन्दी -उर्दू-अंगेरेजी-देशज सब चलते है।
अगर किसी ने मतला में लोटा--मोटा क़ाफ़िया बाँध दिया तो उनके क़ाफ़िया पैमाइश में
उपयोगी
ReplyDeleteआभार आप का सर जी
Deleteनिःसंदेह बहुउपयोगी
ReplyDeleteनवाज़िश आप की
Deleteउम्दा जानकारी वाह
ReplyDeleteशायर एक ख्याली परिंदा है अपनी खुद की बनाई हुई दुनिया का परिंदा है नेचुरल शायर के मुंह से उस के शेर काफिया सहित मा' नी आफ्रिनी निकलते हैं
में उनमें से एक अहमद फराज को समझता हूं