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- उर्दू शायरी में मात्रा पतन के बारे में कुछ बातें-
किसी मंच पर एक बहस चल रही थी कि -नाबीना-- का वज़न क्या - 221 -लिया जा सकता है? सद्स्यॊं ने अपने अपने विचार प्रगट किए मैने भी किया।
जिसमें मैने कहा था कि -- नाबीना--शब्द के आख़िर मे हर्फ - नून और अलिफ है और अलिफ नून की आवाज को खींच कर -ना(2)-
की पूरी आवाज दे रहा है खुल कर आवाज दे रहा है। अत: -नाबीना- को 222 के वज़न पर लेना उचित होगा।
एक सदस्य/सदस्या का कहना था कि तब -दीवाना--परवाना --जैसे शब्द का वज़न भी 222 लेना चाहिए ।
जिस पर मैने कहा ---नहीं। ऐसा नहीं है।
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।
जिन्हे उर्दू शायरी या ग़ज़ल ,शे’र-ओ-सुखन का शौक़ है उन्हें थोड़ा बहुत उर्दू अल्फ़ाज़ और क़वायद से भी परिचित होना चाहिए।
थोड़ी बहुत जानकारी हो तो बेहतर और नही भी हो तो कोई ख़ास बात नही
ख़ैर
1- पहली बात तो यह कि हिंदी में मात्रा पतन का कोई अवधारणा नहीं है ।हिंदी में जैस बोलते हैं वैसा लिखते हैं वैसा पढ़ते हैं
मगर उर्दू में ऐसा नहीं है । उर्दू में कुछ शब्द का इमला [ मक़्तूब] कुछ होता है तलफ़्फ़ुज़ [ मल्फ़ूज़] कुछ होता है ।
2- उर्दू शायरी -तलफ़्फ़ुज़- के आधार पर चलती है। मात्रा-पतन नाम की कोई चीज़ यहाँ भी नही है --बस सारा खेल शब्द के-तलफ़्फ़ुज़-
का है कि बह्र और वज़न की माँग पर किस हर्फ़ को दबा कर पढ़ना है /गिरा कर पढ़ना है --जिसे हम मात्रा-पतन कहते हैं या समझते हैं
3- हमारी राय में --किसी शे’र में मात्रा कम से कम गिरानी पड़े तो अच्छा और न गिरानी पड़े तो बहुत अच्छा। , शे’र की रवानी बनी रहती है।
4- वज़न गिराने का मसला हमेशा शब्द के आख़िरी हर्फ़ पर ही आता है --बीच के हर्फ़ पर नहीं।
मतलब आख़िरी हर्फ़ कों खींच कर पढ़ना है -यानी -2- पर पढ़ना या दबा कर पढ़ना है यानी -1- पर पढना है।
अब मूल प्रश्न पर आते हैं--क्यों दीवाना--परवाना--आइना--क़रीना--ज़माना जैसे शब्द का -ना--कभी -1- के वज़न पर लेते हैं कभी -2- के वज़न पर लेते हैं ?
जो उर्दू स्क्रिप्ट [ रस्म उल ख़त] से वाक़िफ़ है वो जानते है कि इन तमाम शब्दो के अन्त में हा-ए-हूज़ अपनी मुख़्तफ़ी शकल में शामिल है।
[ घबराइए नहीं मैं हा-ए-हूज़ और उसकी मुख़्तफ़ी शकल के बारे में स्पष्ट कर दे रहा हूँ]
हिंदी में -ह- के लिए एक ही वर्ण और एक ही आवाज़ है मगर उर्दू में -ह- के लिए दो हर्फ़ है
[1] बड़ी हे -- [ जिसे हाए हुत्ती भी कहते है जैसे--तरह- सरह में लिखे जाते हैं या आते है
[2] छोटी हे- [ जिसे हाए हूज़ भी कहते है।] जैसे निगाह--राह--तबाह--जैसे हज़ारो शब्दों के अन्त में आते है
सारा खेल इसी छोटी -हे- [ हाए हुव्वज़ ] का है
यदि यह -हे- शब्द के आख़िर में independently आए जिसे हाए-असली भी कहते है तो यह -हे- अपनी पूरी आवाज़ देगा जैसे ऊपर -राह--निगाह--तबाह में आता है और इसका वज़न -1-
लिया जायेगा।
मगर यही -हे-जब अपने पहले वाले हर्फ़ के साथ वस्ल हो जाता है [तब इसे हाए वस्ली भी कहते हैं और अपने से पहले वाले हर्फ़ के साथ "मुख्तफ़ी"[ यानी इस -हे- की आवाज़ ख़फ़ीफ़ [छोटी] हो जाती है
आप इसे यूँ समझिए कि इस प्रकार के- हे-की आवाज़ अपने पहले वाले हर्फ़ के साथ ’खप’ जाती है
जैसे --दीवान: -परवान:--आइन:--करीन:-- जमान: तब -न- का वज़न -1- का देगा
मगर
इसी छोटी हे- कॊ अगर खींच कर पढ़ेंगे तो यही -हे- आवाज़ --आ-- [ अलिफ़ मद] की तरह सुनाई देगा यानी -2- का वज़न सुनाई देगा
तब यह दीवान: -परवान:--आइन:--करीन:-- जमान: आप को -दीवाना--परवाना--आइना--क़रीना--ज़माना का -न- 2 के वज़न पर सुनाई देगा
इसी लिए ऐसे शब्द बह्र की माँग के अनुसार ऐसे शब्दों के -ना- कभी -1- कभी-2- के वज़न पर लेते हैं
दरअस्ल -शब्द -जगह- में यही हाए-हूज़ मुख़्तफ़ी यानी -ग- के साथ ’खप’ गया है जो खींच कर पढ़ने से-जगा- हो गया जो अलिफ़ क़ाफ़िए के मुक़ाबिल लाया गया था
जो अज़-रु-ए-अरूज़ दुरुस्त है।
अच्छा एक बात और0---
जब ऐसी -हे- खींच कर पढ़ने से जब -आ- की आवाज़ आ रही है तो क्या --इस -हे-को इमला मे -अलिफ़-से बदल लेना चाहिए?
अरूज़ियों का कहना है कि नहीं--ज़रूरत नही -इमला -इसी -हे-[ हाए हूज़] से चलेगा। पढ़ने वाला और समझने वाला समझ लेगा।
यही बात --वादा-- परदा--नाकर्दा-- जैसे शब्दों के साथ भी है
एक और -हे- भी है-----हा हा हा हा --जिसे- ’दो चश्मी--हे कहते हैं । उसकी बात कभी बाद में।
नोट = अगर इस आलेख में कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि निशानदिही फ़रमा दे कि मैं आइनदा दुरुस्त कर सकूँ
सादर
-आनन्द.पाठक-
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