Saturday, June 15, 2024

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 89: ग़ालिब के एक ग़ज़ल की तक़्तीअ’- नक्श फ़रियादी है---[क़िस्त 02 अन्तिम]

  एक चर्चा :-_ ग़ालिब_के_एक_ग़ज़ल_की_तक़्तीअ’ [ क़िस्त -2] अन्तिम

मित्रो !
पिछली क़िस्त 86 में ग़ालिब के एक ग़ज़ल के एक शे’र की तक़्तीअ’ की थी । लेख लम्बा न हो जाए ,इसलिए वहाँ एक ही शे’र की तक़्तीअ’ की थी। आज बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ कर के देखते है।
शे’र 2
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
काव काव-ए/-सख़्तजानी/ हाय तनहा/ई न पूछ
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
सुबह करना /शाम का ला/ना है जू-ए- /शीर का ।

अब आप कहेंगे काव-काव ए-/ को हमने 2 1 2 2 के वज़न पर क्यों लिया ? यहाँ भी तो कसरा-ए-इजाफ़त है?
जी बिलकुल सही । मगर आप ने ध्यान से नहीं देखा -- शोख़ी- मे -ए-के पहले एक मात्रा,स्वर [बड़ी -इ- की मात्रा] थी । काव में
-ए- के पहले कोई मात्रा नही है --यानी -व- यहाँ मात्रा विहीन है यानी उर्दू ज़ुबान में -व- साकिन है \
अब व- कसरा के प्रभाव से यही -व- दो रूप अख्तियार कर सकता है या तो-व- मुतहर्रिक [1 ] का वज़न देगा या फिर
-वे- [2] का वज़न देगा --जैसी बह्र की मांग हो । चूंकि यहां -2- की माँग है तो हम इसे -2- की वज़न पर लेंगे और
इस -व- को -वे-[ खींच कर] पढ़ेंगे
अत: काव-काव-ए- / को काव कावे [ 21 22 ] वज़न पर पढ़ेंगे ।

[ एक बात नोट करने की--एक मित्र ने कहा कि-ए- का कोई वज़्न नहीं होता। जी बिलकुल सही। --उर्दू- स्क्रिप्ट में --कसरा ए इज़ाफ़त को =ए= से दिखाते
भी नहीं } वो लोग तो बस सामने वाले -हर्फ़ के नीचे एक निशान [ ,] जिसे अरबी में कसरा ,उर्दू में ज़ेर कहते है --से दिखाते हैं । वह तो हम लोग देवनागरी में इसे समझने
के लिए -ए- लिख देते हैं । अँगरेजी वाले-e- लिख देते हैं। कुछ लोग तो हिंदी में -ए- भी नहीं लिखते बस Direct ग़मे-दिल , दर्दे-दिल लिख देते हैं
यह तो लिखने का / दिखाने का अपन अपना तरीक़ा है बस।]
अब आप पूछेंगे कि ’सुबह’ को 21 पर क्यों लिया " देखने में और पढ़ने में तो यह 1 2 की चीज़ लगती है। जी बिलकुल सही।
इस विषय पर [ जैसे शहर--ज़हर--वहम--वज़ह - अकल--ज़ेहन-आदि] के वज़न पर कभी बाद में अलग से चर्चा करुँगा } बस आप यहाँ इतना समझ लें कि देवनागरी
लिपि में हम भले ही इसे सुबह लिखे या हिंदी में सुबह बोलें मगर उर्दू में इसका सही तलफ़्फ़ुज़ सु्ब् ह् [ 2 1 ] ही है \ यानी ब-साकिन--ह साकिन
जू-ए-शीर में ? वही बात जो पिछली क़िस्त [1] में शोख़ी-ए-तहरीर के बारे में लिखा था।
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शे’र 3-
2 1 2 2/ 2 2 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
जज़्बा-ए-बे/अख्तियार-ए-/शौक़ देखा/ चाहिए
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
सीना-ए-शम/शीर से बा/हर है दम शम/शीर का ।

जज़्बा को 21 के वज़न पर क्यों लिया ? देखने में तो जज़्बा 22 का दिख रहा है । देवनागरी में भले दिख रहा हों --उर्दू स्क्रिफ्ट में नहीं दिखेगा । इस शब्द के आख़िर में हा-ए-हूज़ ख़फ़ी अवस्था में है --जिसे आप जज़्ब: की तरह पढ़ेंगे यानी जज़् ब: [2 1 ] । कभी अगर ज़रूरत पड़ी तो इसे जज़् बा [2 2 ] की तरह भी पढ़ेंगे। यह सब -हा-ए-हूज़ का कमाल है।जिसे आप कभी कभी मात्रा पतन के नाम से मन्सूब कर देते है। ख़ैर।
अख़्तियार-ए-शौक़ ? अख ति या रे [ 2 1 2 2 ] -र- ने -ए-को अपने सर चढ़ा लिया । चढ़ा सकता है --नहीं भी चढ़ा सकता है। चूंकि यहाँ उसे वज़न [2] की ज़रूरत थी सो चढ़ा लिया।
सीना = 21 क्यों ? वही बात जो जज़्बा के साथ । सीना को आप सीन: [2 1 ]के वज़न पर पढ़े -यहाँ भी शब्द के आख़िर में -हाए--हूज़ मुख्तफ़ी है जो -न- को 1- का वज़न कर दे रहा है।
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शे’र 4
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 [1]
आगही दा/म-ए-शुनीदन /जिस क़दर चा/हे बिछाए
2 1 2 2 / 2 1 2 2/ 2 1 2 2 / 2 1 2
मुद्दआ’ अन /क़ा है अपने /आलम-ए-तक़/रीर का ।

दाम-ए-शुनीदन को हम यहा -दा/मे शुनीदन / [ 2 1 2 2 ] के वज़न पर पढ़ेंगे? क्यों भाई? वही बात की -म - ने -ए- को अपने सर पर चढ़ा कर अपना वज़न [2] कर लिया क्योंकि उसे यहाँ 2 की ज़रूरत थी। अगर ज़रूरत न होती तो वह कभी अपने सर पर वज़न न बढता ।यही बात आलम-ए-तकरीर में भी है।
तो फिर मुद्दाआ’ अन्क़ा में ?
जी -मुद्दआ’- को ऐसे तोड़ कर पढ़े ---मुद द आ’ [ यानी 2 1 2 ] ऐसे लफ़्ज़ को उर्दू में तश्दीद शुदा लफ़्ज़ कहते है [ जैसे मुद्दत --जन्नत-- शिद्दत--] ऐसे शब्दों का वज़न दो भागो से बनता है
जैसे शिद्दत = शिद दत [2 2]
मुद्दत = मुद दत [2 2 ]
मुद्दआ = मुद द आ [ 2 1 2 ]
/ हे बिछा ए / 2 1 2 2 क्यों नहीं लिया } कारण? यहाँ -ए- [ बिछाए का हिस्सा है] जिसे -1- की वज़न पर पढ़ा जाएगा} किसी मिसरा के आख़िर में एक साकिन हर्फ़ बढ़ाने से [ यहाँ -ए साकिन] मिसरा के वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ता---इस विषय पर इसी मंच पर पहले भी चर्चा कर चुका हूँ।
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शे’र 5
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
बस कि हूँ ग़ा/ लिब असीरी /में भी आतिश/ ज़ेर-ए-पा
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2
मू-ए-आतिश / दीदा है हल् /का मेरी ज़न/जीर का ।

-ग़ालिब-

दीदा=21 वही बात जो ऊपर जज़्बा--सीना के साथ है। दीदा को दो प्रकार से पढ़ा जा सकता है -दीद: [21] --या दीदा [2 2] जैसा रुक्न की माँग हो।
-ज़ेर-ए-पा -को 2 1 2 के वज़न पर क्यॊं लिया? ज़ेरे-पा [2 2 2 ] पर क्यों नहीं लिया । - र- को 2 की ज़रूरत नहीं पड़ी यहाँ सो -ए- को अपने सर पर नहीं लिया
बिना -रे - से उसका काम चल रहा है यहाँ तो क्यों ख़ामख़्वाह में अपने सर पर बोझ ले।
मू-ए-आतिश = 2 1 2 2 वही बात यहाँ भी । मू -में उ है और उसके बाद -ए- । पहले भी लिख चुका हूँ यह -ए- भी ज़रूरत के मुताबिक़ कभी -1- कभी -2- का वज़न ग्रहण करेगा।

दीदा = 2 1 क्यों ?
ग़ालिब यूँ ही तो ग़ालिब नहीं कहे जाते।
अब आप समझ गए होंगे की लफ़्ज़ अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ [ अरूज़ और उर्दू व्याकरण की हद में रह कर ] वज़न ग्रहण करते हैं। और तलफ़्फ़ुज़ भी उसी प्रकार से करते है।
मात्रा पतन नाम की कोई कन्सेप्ट अरूज़ में नहीं है--बस तलफ़्फ़ुज़ दबा कर या खींच कर का कन्सेप्ट है।

इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता [ करबद्ध ] गुज़ारिश है कि अगर तक़्तीअ’ करने में कुछ ग़लती हो गई हो तो निशानदिही ज़रूर फ़र्माएँ कि मैं ख़ुद को आइन्दा दुरूस्त कर सकूँ}---सादर।


आनन्द #पाठक-

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