Saturday, June 15, 2024

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 87 : हिंदी ग़ज़लो में ’नुक़्ता’ का मसला [ क़िस्त 02 अन्तिम]

  हिंदी ग़ज़लों में ’नुक़्ता" का मसला [क़िस्त 2 अन्तिम]


पिछली क़िस्त-86 में : हिंदी ग़ज़लों में ’नुक़्ता" का मसला [क़िस्त 1] पर चर्चा की थी।

उसी सिलसिले को आगे बढाते हुए ---

 पिछली किस्त में मैने कहा था कि हिंदी ग़ज़लों में उर्दू शब्दों पर नुक़्ता लगाना क्या अनिवार्य है या वैकल्पिक है ? इस पर दो विचारधारा के लोग हैं

1- एक वो -------------[ पिछली क़िस्त देखें ]

2-- दूसरे वो -----------[ -do- ]

 और मैं ?  । मैं  तटस्थ । इससे आप लोग यह न समझ लीजिएगा कि मैं किसी विचारधार विशेष का पोषक हूँ , समर्थक या विरोधी हूँ। नुक़्ता लगा दिया तो ठीक । न लगाया तो भी ठीक । बस भाव और अर्थ 

न गड़बड़ हो जाए। मगर इस बात का ज़रूर ख़याल रखता हूँ कि हिंदी ग़ज़लों में "यथा शक्ति"- यथा संभव" -" जहाँ नुक़्ता लगना चाहिए वहाँ लगना चाहिए। बात 24 करेट की है। इसका कोई विकल्प नही।

नुक़्ता सही जगह लगाना ही श्रेयस्कर है वरेण्य है ।

अब  चन्द शायरों के शेर उदाहरण स्वरूप देखते  है।


जालिम मैं कह रहा था कि तू इस खू से दरगुजर

"सौदा" का कत्ल है ये , छुपाया न जाएगा । 

मिर्जा मुहम्मद रफी ’सौदा’


अक्ल खो दी थी जो ऎ ;नासिख’ जुनून-ए-इश्क में

आइना समझा किए इक उम्र बेगाने को हम ।

- शेख इमाम बख्श ’नासिख’


लाई हयात आए कजा ले चली चले 

अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले

-इब्राहिम जौक-


नुक्ताचीं है गम-ए-दिल उसको सुनाए न बने

क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने


इश्क पर जोर नही है ये वो आतिश ’गालिब’

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने ।

-मिरजा गालिब-


अफ्शा-ए-राज-ए-इश्क में गो जिल्लतें हुईं

लेकिन उसे जता तो दिया जान तो गया ।

- दाग देहलवी -


कभी ऎ हकीकत-ए-मुन्तजर, नजर आ लिबास-ए-मजाज में

कि हजारों सिजदे तड़प रहे हैं  मेरी जबीन-ए-नियाज में ।

-अल्लामा इकबाल--


ऐसे ही हजारों अशआर जो हम आप प्राय: पढ़ते है सुनते हैं सुनाते हैं। आप ने ऊपर के तमाम अशआर पढ़े भाव समझे और आनन्दित हुए। 

परन्तु कुछ लोगों ने  पढने और सुनने की रौ में ध्यान नहीं दिया होगा ।

मैने ऊपर के तमाम शायरों के नाम में  और अशआर के अल्फ़ाज़ में " नुक़्ता’ का प्रयोग ’जानबूझ’ कर नहीं किया । अब क्या, अब तो आप ने पढ़ ही लिया .समझ भी लिया

बिना खटक के बिना झिझक के।

अब आप चाहें तो यथास्थान नुक़्ता लगा कर भी पढ़ सकते हैं। भाव [ मफ़हूम] में आप को कोई फ़र्क़ नहीं नज़र आएगा। मगर शर्त यह कि आप तलफ़्फ़ुज़  भी वैसा ही करेंगे।

मेरा आग्रह है कि आप यथा संभव शब्दों में नुक़्ता लगा कर ही लिखे तो बेहतर। 24 करेट सोने का कोई विकल्प नहीं। नहीं लगा सकते हैं या नहीं समझ में आ रहा है तो न लगाएँ--बेहतर\

मगर ग़लत जगह न नुक़्ता लगाए .[  न ग़लत जगह पर नुकताचीं ही करें --हा हा हा हा ।]   अर्थ का अनर्थ हो सकता है ।जैसे

अब कुछ शब्द देखते हैं --नुक़्ता सहित और नुक़्ता रहित--

जलील--ज़लील

राज --राज़

नुक्ता--नुक़्ता

कमर-क़मर 

अजल--अज़ल 

सजा--सज़ा 

अर्ज--अर्ज़

जंग--ज़ंग

अगर नुक़्ता रहित शब्द कहीं प्रयोग होता है तो वाक्य के प्रयोग और सन्दर्भ से अर्थ और मफ़हूम स्पष्ट हो जाता है। वैसे भी गद्य [ नस्र] में अब धीरे धीरे नुक़्ता लगना कम होता जा रहा है वैसे ही जैसे में कुछ तत्सम शब्दों में ’हलंत’ का लगना।

ऐसे बहुत से शब्द  जो नुक़्तायुक्त भी है और नुक़्ताविहीन भी। अर्थ भी अलग अलग है । मगर बोलने में समान  ध्वनि। किसी ग़ज़ल या शे’र में जैसे भी प्रयोग  हो भाव स्पष्ट ही रहता है।

चलने को तो  कानून--कागज- अक्ल -जैसे तमाम शब्द भी चल जाते हैं  जहाँ  हक़ीक़तन नुक़्ता लगना चाहिए--मगर लेखन में धीरे धीरे नुक़्ता लगाने का प्रचलन कम होता जा रहा है और अगर हम लोग इस तरफ़ ध्यान न देंगे तो आने वाले दिनों में नुक़्ता लगाने की प्रवृत्ति कम होती जाएगी--नुक़्ता घिसता जाएगा।

अच्छा एक बात और-- हर जगह -ज- देख कर नुक़्ता न लगा दें --जैसे

शज़र--हसरत ज़यपुरी --ज़ाने ज़ाँ--तू ज़हाँ ज़हाँ चलेगा--मेरा साया साथ होगा---हँसते गाते जहाँ से गुज़र----आज़ ज़यपुर का मौसम खराब है । आदि आदि। 

आप के लिए मैने दिल सज़ा के रखा है।

हमारी गुज़ारिश तो यही होगी --कि अगर आप शे’र-ओ-शायरी , .ग़ज़ल से जौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते हैं तो उर्दू शब्दों की सही वर्तनी ज़रूर समझे , ज़रूर सीखें। यह आप के निरन्तर पढ़ने से

"स्वाध्याय" से आयेगा। आप की लगन से ही आयेगा।

अगर आप उर्दू रस्म उल ख़त [ लिपि ] नहीं पढ़ सकते है तो एक प्रामणिक" उर्दू हिंदी शब्द कोश"  की एक प्रति  ज़रूर रखें  अपने पास संदर्भ के लिए । रेख़्ता साइट की मदद ले सकते है ।[ ध्यान रहे रेख्ता हर समय सही नहीं होता]

आप लिखने से ज़ियादा पढ़ने पर ज़ोर दें । कोई ग़ज़ल शे’र पोस्ट करने के पहले 2-4 बार नज़र-ए-सानी ख़ुद कर लें । दूसरों के भरोसे नहीं छोड़ें। जल्द पोस्ट करें और ग़लत पोस्ट करें--उचित नहीं।

 बेहतर होगा कि ’कम पोस्ट करें और सही पोस्ट करें’। आप शायर है कवि हैं शायरा हैं कवयित्री हैं --तो आम पाठक को आप से ज़ियादा उम्मीद रहती है --कम से कम भाषा की शुद्धता के बारे में।

24 कैरेट की शुद्धता। बाक़ी आप की मरजी। चलने को तो सब कुछ चलता है विशेषत: फेसबुक पर ह्वाट्स अप पर।


--आनन्द.पाठक -


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