Saturday, June 15, 2024

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 97 ::शायरी में -न- और -ना- का मसला

  एक चर्चा : शायरी में -न- और -ना- का मसला

[ नोट : यह लेख उनके लिए है जो अरूज़-आशना है या जो अरूज़ के बारे में अतिरिक्त जानकारी रखना चाहते हैं। यह लेख पढ़ कर आप लोग विचलित न हों--आप लोग बिना पढ़े भी जैसे शायरीया जैसी शायरी कर रहे हैं, करते रहें]। अरूज़ एक दिलचस्प विषय है -शर्त यह कि आप इसमे दिलचस्पी लें]
जब बात चलती है तो बात से बात निकलती है। पिछली क़िस्त में एक बात चली तो एक बात निकली।
मेरे एक मित्र ने ग़ालिब के एक ग़ज़ल के एक शे’र [ मतला] की तक़्तीअ’ पेश की-
न गुल-ए-नग़्मा हूँ , न पर्दा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़ ।
पूरी ग़ज़ल ग़ालिब के किसी दीवान या यू-ट्यूब पर या नेट पर मिल जाएगी।
अभी अपने मित्र द्वारा लिया गया शे’र लेते हैं--जिसकी उन्होने तक़्तीअ

न गुल-ए-नग़्मा हूँ , न पर्दा-ए-साज़
[ 1122--1212--112 ] जब -न- को "लघु" [1] लिया जाए
2122----1212--112 ---> जब -न- को "दीर्घ" [2] लिया जाए
बाद में उन्होने यह भी वज़ाहत फ़रमाई कि-न- को 2 पर लेना ठीक नही ।
तो बह्र का वज़न क्या -
1122--1212--112 होगा - फिर भी बह्र खफ़ीफ़ मुसद्दस मख्बून ---ही रहेगी।
उर्दू शायरी में -न- हमेशा -1- के वज़न पर ही लिया जाता है । अगर मगर का सवाल ही नहीं
ग़ालिब ने भी इसे -1- पर ही लिया है और बह्र फिर भी वज़न में है ।
[ अगर "ग़ालिब" साहब ग़लत होते तो ’ ज़ौक़" साहब उन्हे भरी महफ़िल में टोक न देते ,रुस्वा न कर देते ज़ौक़ साहब - ग़ालिब साहब के हमअस्र [ समकालीन ] शायर थे उस्ताद शायर थे और ग़ालिब से उनकी लाग-डाट चलती ही रहती थी। हा हा हा ] ख़ैर
-उर्दू शायरी में -न- को हमेशा -1-ही लिया जाता है ।
कारण ?
जो उर्दू रस्म-उल ख़त [ लिपि और इमला ] से परिचित है वह जानते हैं कि -न- में
नून+ छोटी हे [ जिसे हाए हूज या हाए ख़फ़ी [ छुपा हुआ ] होता है
यह हाए ख़फ़ी --नून - को मुतहर्रिक यानी -1- कर देती है

अच्छा ,अगर पुराने शायरों को -2- की ज़रूरत पड़ती थी तो वह क्या करते थे ?
पुराने शायर तो पहले यही करते थे कि किसी प्रकार ज़रूरत ही न पड़े तो बेहतर। अगर सख्त ज़रूरत पड़
भी जाए ज़रूरत-ए-नागहानी मे वह फ़ारसी शब्द -ने- या - नै [2] का प्रयोग करते थे। मगर बहुत कम अपवाद स्वरूप ही प्रयोग करते थे ।
तो हिंदी ग़ज़ल में ?
-न- [1] और -ना [2] का प्रयोग ही उचित है । -न [1] को -2- पर लेना उचित नही--। जैसे
ना ना करते प्यार तुम्ही से कर बैठे [ न न करते प्यार में वह मज़ा नही --]
निष्कर्ष - ग़ालिब के इस शे’र मे -न- को -1- पर ही लेना है [ -2 ] पर नहीं

न गुल-ए-नग़्मा हूँ , न पर्दा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़ ।

सवाल यह कि बह्र को क्या
1122--1212---22[1] से दिखाएंगे या
2122--1212--22 [1] ?
आप बताइएगा । क्यों ?

ख़ैर दोनो ही केस में बह्र ख़फ़ीफ़ मख़्बून ही रहेगी
सादर
_-आनन्द.पाठक-

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