एक चर्चा : 22--22--22--22--- जैसी बह्र पर [ क़िस्त 01]
प्राय: जब भी हम 22--22--22--22-- जैसी बह्र देखते है तो तुरन्त इसे मीर की बह्र करार देते है ।
यह मीर की बह्र नहीं है। मीर की बह्र पर इस मंच पर [ अन्यत्र भी] और अपने ब्लाग -" उर्दू बह्र पर
एक बातचीत-’ में विस्तार से चर्चा कर चुका है। यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं।
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पहले भी कई बार लिख चुका हूँ कि 22--22--22-22-- जैसी बह्र का वज़न दो तरीक़ों से बरामद किया का सकता है ।
तरीका 1---बहर-ए-मुतक़ारिब के मुज़ाहिफ़ की फ़ैमिली से
तरीका 2- बह्र-ए-मुतदारिक की मुज़ाहिफ़ फ़ैमिली से
तरीका 1- पर पहले भी कई बार चर्चा कर चुका है। आप सब लोग जानते भी होंगे।
आज तरीक़ा 2-- यानी बह्र-ए-मुतदारिक से यही बह्र [ same-to-same ] से कैसे बरामद की जा सकती है।
आज इसी पर चर्चा करेंगे
212---212---212---212 यह बह्र तो आप जानते ही होंगे।
अरे वही। बह्र-ए- मुतदारिक मुसम्मन सालिम । कितनी बार आप लोगों ने इस बह्र में शायरी की होगी। ख़ैर।
फ़ाइलुन [ 2 1 2 ] पर अगर आप -’ख़ब्न"- का ज़िहाफ़ लगा दें तो बरामद होगा ---112
चूंकि ज़िहाफ़ ख़ब्न एक आम ज़िहाफ़ है सो वह शे’र के किसी मुक़ाम [ यानी सदर--हस्व-अरूज़ ] पर लग सकता है या लगाया जा सकता है ।
हम 212--212--212---212 के सभी मुकाम पर ज़िहाफ़ खब्न का अमल कर दें तो बरामद होगा
112---112---112---112 और अब यह बह्र एक मुज़ाहिफ़ बह्र हो गई और इसका नाम हो गया
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन मख़्न्बून ।
और आप यह भी जानते है कि ’तस्कीन -ए-औसत" का अमल मुज़ाहिफ़ बह्र पर ही होता है । और अब इस पर तस्कीन औसत का अमल हो सकता है ।
[ तसकीन-ए-औसत --यानी 3- मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ लगातार आ जाए तो बीच वाला --मुतहर्रिक हर्फ़ साकिन हो जाता है ]
यानी यहाँ किसी 1 1 को -2- कर सकते हैं } तो फ़िर क्या होगा ? कुछ नहीं होगा बस
112---112---112---112-- = 22--22--22--22- हो जायेगा
और अगर इसे दो गुना [ मुज़ाइफ़ ] कर दूँ तो
22--22--22--22--// 22--22--22--22 [ सोलह रुक्नी]
इसीलिए कहता हूँ
सिर्फ़ 22--22--22--22 लिख देने से ही काम नही चलेगा। आप को बताना होगा कि आप ने बह्र कौन सी सेलेक्ट की है--\
मुतदारिक फ़ैमिली वाली या मुतक़ारिब फ़ैमिली वाली?
इसीलिए मै कहता हूँ कि आप मूल बहर गज़ल के शुरु में [ अगर लिखना ही है तो] लिख देंगे तो अरूज़ समझने वालॊ को सुविधा होगी
न लिखें तो कोई बात नही --कोई सवाल न उठेगा मगर तक्तीअ तो सवाल करेगी ही। वज़न तो सवाल करेंगे ही।
21--121--121---122 = 16 मात्रा [ मुतक़ारिब पर ज़िहाफ़ के अमल से ] == 22--22--22--22- [ तक्ख़नीक़ के अमल से ]
112---112--112--112 = 16 मात्रा [ मुतदारिक पर ज़िहाफ़ के अमल से]= 22---22--22--22 [ तस्कीन के अमल से ]
अगर मैं मात्र यही लिख कर छोड़ दूं
22--22--22--22--// 22--22--22--22
तो क्या आप बता पाएंगे कि हमने अपनी ग़ज़ल किस मूल बह्र [ मुतदारिक या मुतक़ारिब ] से बरामद किया है ?
शकील बदायूनी साहब की एक मशहूर ग़ज़ल है [ यूट्यूब पर मिल जायेगा ] के दो अश’आर यहाँ उदाहरण के तौर पर लगा रहा हूँ।
हंगामा-ए-ग़म से तंग आकर, इज़हार-ए-मसर्र्त कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदा दिली , दानिस्ता शरारत कर बैठे ।
अल्लाह तो सबकी सुनता है, जुर्रत है ’शकील’ अपनी अपनी
’ हाली; ने ज़ुबाँ से उफ़ भी न की, "इक़बाल’ शिकायत कर बैठे ।
[ हाली और इक़बाल उर्दू के मशहूर शायर हुए। इक़बाल शिकायत कर बैठे---इक़बाल साहब की
एक मशहूर लम्बी नज़म है -शिकवा--जिस पर उनकी काफ़ी आलोचना भी हुई थी उस ज़माने में।
बाद में फिर एक दूसरी नज़्म भी लिखी-जवाब-ए-शिकवा --उस आलोचना के संदर्भ में।
शे’र में उसी तरफ़ इशारा है ।ख़ैर ]
मैं चाहूंगा कि आप मेरी बात यूँ ही न मान लिया करें । शक़ील साहब की ग़ज़ल की तक़्तीअ’ कर लें मुतमुईन
[निश्चिन्त] भी हो लें।
इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर इस हक़ीर फ़क़ीर से कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो बराए मेहरबानी निशानदिही फ़रमाए कि यह राकिम आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सके ।
सादर
-आनन्द.पाठक-
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