क़िस्त 104 : " तुम इतना जो मुस्करा रहे हो" मिसरे की बह्र क्या होगी? "
किसी मंच पर किसी मित्र ने एक प्रश्न पूछा है इस मिसरे की बह्र क्या है। यह आलेख उसी संदर्भ में है।
पहले तो यह स्पष्ट कर दूँ कि
1- कभी कभी किसी एक मिसरे से सही सटीक बह्र नही निकाली जा सकती।
2- सही सटीक बह्र निकालने के लिए अगर 3-4 शे’र हो तो बेहतर। शे’र जितने ज़ियादें होंगे बह्र उतनी ही
सही और सटीक निकलेगी । अगर पूरी ग़ज़ल हो तो फिर बात ही क्या।
3- कुछ मित्रों ने इस एक मिसरे की बह्र अपने अपने तरीके से बताई । किसी ने इसे मीर कि बह्र बताई किसी ने
इसकी बह्र २२१२२ - १२१२२ बताई [ नाम नही बताया ] ख़ैर।
4- किसी भी शे’र का सही सही बह्र निकालने /जाँचने का सबसे सही तरीका उसकी सही सही तक़्तीअ’ करना है।
वैसे भी तक़्तीअ दो प्रकार की होतॊ है
-- हक़ीक़ी तक़्तीअ’
-- ग़ैर हक़ीक़ी तक़्तीअ’
[ इस विषय पर किसी और दिन बात करूँगा]
3- अपने एक मित्र से इसकी पूरी ग़ज़ल मँगवाई -बह्र निर्धारण के लिए। तो मालूम हुआ कि यह जनाब क़ैफ़ी आज़मी [ मरहूम] साहब की
ग़ज़ल है जो फ़िल्म ’अर्थ [1982] में प्रयोग हुआ है।
तुम इतना जो मुस्करा रहे हॊ
क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो ।
आँखों में नमी, हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो ।
बन जाएँगे ज़ह्र पीते पीते -
ये अश्क़ जो पीते जा रहे हो।
जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो ।
रेखाओं का खेल है मुकद्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो ।
इस ग़ज़ल की तक्तीअ के आधार पर मैने इस ग़ज़ल [ इस मिसरे की भी ] बह्र निकाली है [ यह मानते हुए कि जिसने यह ग़ज़ल उन्होने सही
नकल कर के भेजी होगी। शायद उन्होने ’रेख्ता’ साइट से किया है। ख़ैर
पाठको की सुविधा के लिए तक़्तीअ’ यहाँ पेश कर रहा हूँ । मैने इसकी बह्र
221---1212----122 [ बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस अख़रब मक़्बूज़ महज़ूफ़] निकाली है।
तक़्तीअ’ कर के देखते हैं।
2 2 1 / 1 2 1 2 / 1 2 2
तुम इतना/ जो मुस करा /रहे हॊ
क्या ग़म है/ जिस को छुपा/ रहे हो । -1
आँखों में /नमी, हँसी/ लबों पर
क्या हाल/ है क्या दिखा/ रहे हो । -2
बन जाएँ/गे ज़ह्र पी/ते पीते -
ये अश्क़ /जो पीते जा /रहे हो। -3
जिन ज़ख़्मों /को वक़्त भर/ चला है
तुम क्यूँ उ/न्हे छेड़े जा /रहे हो । -4
रेखाओं /का खेल है /म कद दर
रेखाओं / से मात खा/ रहे हो । -5
टिप्पणियां~
शे’र 1--कुछ लोगों का मानना है कि मतला के मिसरा सानी --जिस [2]- पर बह्र टूट रही है। अगर -जिस को[2 2] की जगह ’जिसे’ [1 2] होता तो बेहतर होता।
बात तो सही है फिर तो कुछ विवाद न होता।
मगर क़ैफ़ी साहब ग़लत नहीं थे-- वो भी सही थे -। शायरी मक़्बूती [ लिखित] के अलावा मलफ़ूज़ी [ उच्चारण के आधार पर ] भी निर्भर करती है।
अगर आप -जिस - पर ज़रा ज़ियादा ज़ोर दे कर -एक ठहराव दे कर पढे तो यह ’ मुतहर्रिक [1] का वज़न देगा। -स- यूँ ही साकिन है। -स- अपनी आवाज़ नहीं देगा।
अत: -जिस- को -1- की वज़न पर लेना ग़लत नहीं होगा ।
शे’र 5 -- में कुछ लोगों को -रेखाओं-[ 2 2 1 ] पर लेने की आपत्ति थी । यहाँ -ओं- को -1- की वज़न पर लिया गया है। यानी शे’र की अदायगी में --ओ- को खीच कर नहीं
बल्कि दबा कर लगभग -अ-[1] की आवाज़ तक यानी मात्रा पतन कर पढ़ना होगा जो कि किया जा सकता है ।
आप लोगों से अनुरोध है कि अगर कहीं ग़लत तक़्तीअ हो गई हो तो निशानदिही फ़र्मा दें कि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं~।
सादर
-आनन्द.पाठक
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